फैसला - 5 - अंतिम भाग Divya Shukla द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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फैसला - 5 - अंतिम भाग

फैसला

(5)

मै भी तो बहुत परेशान थी |

जिस जद्दोजहद से मै गुजर रही थी अब उसका हल निकलना ही चाहिये, यह सोच कर ही मैने बात छेड़ी,

"सुनो मुझे तुम से बात करनी है " विजयेन्द्र ने अख़बार से नजर उठा कर मुझे देखा, " बोलो क्या बात है अब क्या हो गया " मैने उस दिन की सारी बातें बताई वो सुनते रहे, " मेघा तुम अब बंद करो यह फ़ालतू बकवास तुम्हारे भड़काने से मै अपने माँ बाप को नहीं छोड़ सकता, "

मै कुछ दिन के लिये अपने मायके चली आई | इस बार मुझे किसी ने जाने से रोका नहीं, पर मेरे हाथ पर एक रुपया भी नहीं रखा | तीन महीने अन्नी -अप्पा के पास रही | बीच -बीच में विजयेन्द्र भी चक्कर लगा जाते | मुझे तो लगता फाइवस्टार और ढाबों का खा खा कर जब उकता जाते तो घर का खाना खाने यहाँ मेरे पास आ जाते | मेरा अस्तित्व उनकी जिस्मानी भूख मिटाने तक ही तो था | मुझे पता था उनके रिश्ते बाहर भी थे पर मैने कभी सवाल नहीं किया | करने का कोई फायदा भी न था |

तीन महीने बीत गये | अब मैने सोचा यही डिग्री कालेज में एडमिशन ले कर अपनी अधूरी पढ़ाई ही पूरी कर डालूं | माँ भी यही चाहती थी |अन्नी से मैने सारे हालत बता दिये थे पर अप्पा से नहीं कह पाई | अन्नी ने जरुर अप्पा से बात की होगी तभी इस बार विजयेन्द्र को अलग ले जा कर बहुत देर तक मेरे बाबा बात करते रहे |

राघव ढाई साल का हो रहा था | उसे प्लेस्कूल में भी डालना था | अप्पा ने मुझे बुला कर कहा,

" बेटा मैने विजयेन्द्र जी से बात की है राघव की पढ़ाई के लिये तुम दोनों लखनऊ शिफ्ट हो जाओ, वहां स्कूल बहुत अच्छे है, फिर तुम चाहना तो अपना भी फार्म भर देना " फिर एक दिन अचानक विजयेन्द्र मुझे लेने आ गये | वहां जाने के नाम पर मेरा दिल घबराने लगा | फिर वही घुटन, वही माहौल अन्नी ने मुझे समझा - बुझा कर भेज दिया |

वापस आने पर कुछ दिन सब ठीक रहा | विजयेन्द्र भी कुछ बदल गये थे, मेरा ख्याल रखने लगे | वह कार की एजेंसी के लिये भाग दौड़ कर रहे थे | मंत्री पिता के संपर्क भी थे और धन की भी कमी नहीं थी | एजेंसी करीब करीब फाइनल हो चुकी थी, बस कुछ फार्मेल्टी बाकी थी जिसके लिये वह गये थे | उन्हें तीन - चार दिनों बाद वापस आना था काम अगर न हुआ तो और भी रुक सकते थे | इन तीन चार दिनों में ठाकुर कामेश्वर प्रताप सिंह ने मेरा जीना हराम कर दिया | अब तो उन्हें पापा जी कहना भी मुझे पाप लगता था | अब मुझे पता चल गया यहाँ कोई नहीं है जो मुझे बाघ के पंजे से बचा सके जो हैं भी उनमें इतनी हिम्मत नहीं | मुझे जो करना है खुद करना है |

अपनी शादी भी मै बचाना चाहती थी, पर लाख समझाने और बताने पर भी विजयेन्द्र मेरी बात नहीं मानते | कभी-कभी मुझे यह भी लगता, यह सब समझ कर भी नहीं समझना चाहते | कैसे पति हैं जिसे पत्नी की इज्जत की भी परवाह नहीं -- यह सोच कर मुझे पति नाम लंबा -चौड़ा पुरुष एक रीढ़ विहीन केंचुआ लगता और घिन आने लगती, लेकिन वह मेरे बेटे का पिता था इसलिये मै उससे घृणा नहीं करना चाहती थी |

इन दिनों मैने एक बात महसूस किया कि जब किसी व्यक्ति का आदर- सम्मान आपके मन से खतम हो जाये तो उससे कोई भय भी नहीं लगता | वह पागलों की तरह मेरे पीछे पड़े थे मै उन्हें हिकारत से दुत्कार देती, यह जिद भी थी उस समर्थ पुरुष की जिसने जो चाह लिया वह हासिल कर लिया | एक कमजोर सी लड़की से वह कैसे हार मानते ? विजयेन्द्र वापस आ गये मैने बताया और उन्होंने सुन लिया | बस …

इसी तरह चल रहा था | कार की एजेंसी फाइनल हो गई यह खबर मिलते ही विजयेन्द्र ख़ुशी से उछल पड़े |, काम मुश्किल था, क्योंकि यह बड़े व्यापारिक घराने अपना बड़ा बिजनेस अपने बिरादरी या रिश्तेदारी में ही देते है, मंत्री जी का संपर्क न होता तो यह काम असंभव था, अब इस काम में पैसा अच्छा खासा लगना था -विजयेन्द्र ने पिता से बात की | उन्होंने साफ़ कह दिया, …

” अपने श्वसुर से मंगवा लो तुम्हारी पत्नी को बड़ा घमंड है अपने बाप पर ’’

यह सब सुन कर मै सुन्न हो गई |

विजयेन्द्र से मैने साफ़ कह दिया, ” मै अप्पा से पैसे नहीं मांगूगी "

" मुझे तुम्हारे बाप का पैसा नहीं चाहिये, पापा को भी नहीं ....पर तुमने पापा का अपमान किया है | तुम्हे उनके पैर पकड़ कर माफ़ी मांगनी होगी तुम्हारी वजह से मेरे पापा मुझसे नाराज़ है | "

" मेरी वजह से नाराज़ ? मैने किया क्या है वह सबके सामने बतायें मेरा अपराध क्या है ? मैने उनकी कौन -सी बात नहीं मानी .....विजयेन्द्र अगर तुम्हे लगता है कि मै गलत हूँ, मुझे तुम्हारे पापा की बात मान लेनी चाहिए तो चलो तुम खुद मुझे उनके कमरे में छोड़ आओ, मै एक पति की गैरत देखना चाहती हूँ तुम्हारी शक्ल देखना चाहती हूँ उस समय | "

" बकवास बंद करो मेघा तुम बेहयाई पर उतर आई हो तुम खुद आवारा हो मेरे बूढ़े बाप पर इल्जाम लगा रही हो | "

उस पल मुझे लगा यह मेरा पति है जिसे हर पल की खबर दी, जो मेरी बात सुनी -अनसुनी कर जाता था आज मुझ पर इतना घिनौना इल्जाम लगा रहा है ---

मेरा दाम्पत्य जीवन पहले से ही तनाव भरा था अब बिखरने भी लगा --

विजयेन्द्र को मेरी जरूरत अपनी जिस्मानी भूख मिटाने भर के लिये ही थी |
उस रात जब वह मेरे करीब आये तो मैने उनका हाथ पकड़ लिया और कहा,

-- " विजयेन्द्र क्या तुम मुझे प्यार नहीं करते ? " ---बिना एकपल सोचे उन्होंने कहा
" नहीं मुझे तुमसे कोई प्यार नहीं है " ----

" और राघव को ? वो तो तुम्हारा बेटा है " ...

" अरे बच्चे तो कुत्ते बिल्लियों के भी हो जाते है और प्यार - व्यार सब फ़िल्मी बातें हैं | मै तो शादी ही नहीं करना चाहता था, वह तो पापा की जिद थी इसलिए करना पड़ा वरना जब बाज़ार में दूध मिल जाये तो गाय कौन पलेगा, एक मुसीबत मोल ले ली मैने शादी कर के " मैने सोचा भी नहीं था विजयेन्द्र ऐसा सोचते है बहुत दुःख हुआ मुझे मैने उनसे साफ़ कह दिया " अब तुम मुझे छूना भी नहीं | बिना प्रेम के यह रिश्ते कैसे ? मै वेश्या नहीं हूँ जो शादी का लाइसेंस ले कर तुम्हारे साथ अय्याशी करूँ | " मेरी बात सुनकर व्यंग से हँसे विजयेन्द्र और तल्खी से बोले,

" मेरी बात छोड़ो अपनी सोचो तुम ही एक दिन आओगी मेरे पास नाक रगड़ने इसके लिये मै भी देखूंगा कब तक रहती हो ऐसे | " उस दिन से हमारे बीच सब ख़तम हो गया | हम कमरा शेयर करते, बेड भी शेयर करते पर हमारे बीच एक गहरी खाई बन गई थी |

बस राघव एक धागा था हमारे रिश्ते का वरना हमारे बीच अब तो जिस्मानी रिश्ते भी नहीं रहे | हमारे बीच वह आखिरी रात थी जब विजयेन्द्र नें मुझसे जबरदस्ती करने की कोशिश की और मेरे मना करने पर बिफ़र गये | जोर - जोर से चीख कर मुझे बुरा भला कहने लगे,

" तुम्हारी जैसी खूबसूरत औरतें चंद रुपयों में मिल जाती है ...इस गुमान में मत रहना तुम्हारे बगैर काम नहीं चलेगा --इतना गुरुर किस बात का -आखिर और काम ही क्या है तुम्हारा " सन्न सी रह गई मै पल भर को अपने स्त्रीत्व का इतना घोर अपमान |

उफ़ घिन आ गई मुझे और मै क्रोध से तिलमिला उठी | उनकी तरफ एक हिकारत भरी नजर डाल के कहा,

" सुनो मुझे तो तुम जैसा नहीं चाहिए ... कोई पैसे भी नहीं खर्च करने पड़ेंगे |
तुम जैसे बल्कि तुमसे बेहतर मर्द तो फ्री में उपलब्ध होते हैं हर जगह | घरबाहर आसपडोस हर कहीं |
फिर भी नहीं चाहिए वरना तुममे और मुझमें क्या फर्क रह जाएगा ? "

कह कर व्यंग से मुस्करा दी पर शूल सा गड गया | मन में बहुत पीड़ा हुई, किंतु उसकी एक रेख तक चेहरे पर नहीं आने दी | मुस्कराती रही, और बह बुरा भला कहते रहे ,

" आखिर किस बात का घमंड है तुम्हे बेशर्मी से जुबान चलाना ही सीखा है औरत हो औरत की तरह रहो मर्द बनने की कोशिश मत करना "

" सुनो मुझे मर्द बनने का कोई शौक नहीं -मुझे अभिमान है मै औरत हूँ और हर जन्म में औरत ही बनना चाहूंगी |"

सब खतम हो गया अब हमारे बीच यह आखिरी रात थी और आखिरी झगड़ा भी | मैने अपनी सारी पैकिंग की | रात को ही अप्पा को फोन किया | सुबह राघव को ले कर मै वापस आ गई, बीती रात न मै सोई न मेरे माँ बाप, बेटी का टूटता घर उनके लिये बहुत बड़ा सदमा था | इस सब के लिए बाबा खुद को दोषी मानते थे | मैने अपने अप्पा से कमरा बंद कर के बात की आज एक बेटी अपने बाबा से वह सब बता रही थी जो उस पर गुजरी थी | मेरी नज़रें नीची थी और अप्पा की आँखे भरी,
" कितना दर्द सहा मेरी फूल सी बेटी ने | अब तुम जो फैसला लेना चाहो मै तुम्हारे साथ हूँ, लेकिन बेटा अपनी ही बेटी का घर तोड़ने के लिये मैं तुम्हारे साथ कोर्ट कचहरी नहीं जा पाऊंगा | "
मै अपने तीन साल के बच्चे को लेकर अप्पा के लखनऊ वाले घर आ गई | अन्नी ने बहुत कहा पर मै नहीं मानी, अलग रहने का निर्णय मेरा था और राघव मेरी ज़िम्मेदारी थी उसे मै ही निभाऊँगी | मेरे पास सिर्फ बैंक में थोड़े पैसे और कुछ इंदिरा बचत पत्र थे | थोड़े बहुत जेवर और कुछ नहीं | मेरा ग्रेजुएशन भी पूरा नहीं हुआ था, नौकरी कहाँ मिलती | मैने छोटे -छोटे बहुत सारे कोर्सेस किये और अपनी एक सहेली के फ़िनिशिंग स्कूल में लड़कियों को सिखाने लगी | घर सजाने का शौक मुझे हमेशा से था | यह एक ग्रूमिंग इंस्टीट्यूट था यहाँ मुझे कोई परेशानी नहीं हुई| मेरे कई खर्चे यही से निकल जाते, बाकी बच्चों की ट्यूशन से पूरा करती |, जिंदगी में खालीपन तो था पर सुकून भी था, हम माँ बेटे खुश थे | मेरे लिए मेरी पूरी कायनात मेरा बेटा था, पर साल भर बीतते -बीतते विजयेन्द्र यहाँ भी आ धमके | उनका कहना था मै अभी उनकी कानूनी पत्नी हूँ, या तो मै उनके साथ चलूं नहीं तो वह यहीं रहेंगे | वह जब भी आते गाली गलौज करते, बस हाथ नहीं उठाया | यह अप्पा का घर था यहाँ उनके नौकर, ड्राइवर सब थे |, मुझे बड़ी शर्मिंदगी होती | मेरा मानसिक तनाव बढ़ता जा रहा था, आख़िरकार तंग आ कर मैने कोर्ट में डाइवोर्स फ़ाइल कर दिया | नोटिस मिलते ही बाप -बेटे बौखला गये | अब शुरू हुआ मुझ पर प्रताड़ना का दौर | मेरे खिलाफ कई षड्यंत्र रचे गये | मुझे चरित्रहीन साबित करने की कोशिश की |मेरी घृणा बढती गई हर इस कुत्सित प्रयास पर | आखिर मै उनके बेटे की माँ भी थी | और, कोई बाप अपने बेटे की माँ पर ऐसा लांछन कैसे लगा सकता है | मेरी वकील ने कोर्ट में मेरे और राघव के लिए भरण पोषण की रकम की मांग की साथ ही मेरा स्त्री धन, मेरे सारे जेवर लौटाने को कहा, जो इनके पिता को नामंजूर था | वह पचा नहीं पा रहे थे कोई लड़की उनका वैभव ठुकरा कर जा भी सकती है ! तारीख पर तारीख पड़ती रही | मुझे फोन पर धमकियां भी मिलती रहीं | मेरा बेटा छीनने की बात हुई | उनका स्तर यहाँ तक गिर गया कि मुझ तक कहलवाया दस लाख ले लो और राघव को भेज दो |

मैने फोन करके विजयेन्द्र से कहा, " अपने पापा से कह दो मै किराये की कोख नहीं चलाती न ही बच्चे बेचने का धंधा करती हूँ | " इन सब का असर मेरे बच्चे पर पड़ रहा था | यह लोग उसे कोर्ट बुलाने की तैयारी में लगे थे | मै नहीं चाहती थी इतना छोटा बच्चा कोर्ट जाये और माँ बाप की किच -किच देखे | मैने मन ही मन एक फैसला किया | किसी को नहीं बताया, और अगली तारीख पर कोर्ट में जज के सामने अपनी हर मांग वापस ले लिया सिवा बेटे के | मुझे कुछ नहीं चाहिए यह कोर्ट में लिख कर दे दिया | जैसे ही मैने अपना स्त्री धन, मेंटेनेस सब ड्रॉप किया तुरंत ही विजयेन्द्र ने डाइवोर्स पेपर पर दस्तखत कर दिये | जज ने उनसे बेटे के बारे में सवाल किया तो उन्होंने कहा, ” राघव को माँ को दे दीजिये | मुझे जब मिलना होगा मिल लूँगा | "

मुझे यह तो पता था विजयेन्द्र को मुझसे कोई लगाव नहीं बस एक स्त्री देह भर थी उनके लिए जिसे मेंटेन करके वह अपनी भूख मिटाते, पर यह नहीं जानती थी बेटे से भी कोई प्रेम नहीं | कितनी आसानी से कह दिया मिल लूँगा जब कभी मन होगा, और दस्तखत कर दिया | एक टीस उठी मन में, सब ख़तम हो गया अब | अब मेरा सारा जीवन राघव तक ही सिमट गया | समय गुजरता गया | अपने नाना की देख- रेख में राघव बड़ा होने लगा |अप्पा ही उसके गार्जियन हैं इस साल उसनें बारहवीं की परीक्षा दी है, वह सिविल सर्विसेस में जाना चाहता है उसे राजनीत से एलर्जी सी है करीब पन्द्रह दिन पहले मुझे जब पता चला कि राघव की दादी बीमार है मैने उसे वहां भेजने का फैसला किया | बीते सालों में कई बार उन्होंने पोते को बुलवाया जरुर था पर मैने ही नहीं जाने दिया, डर जाती अभी छोटा है न आने दिया तो ? कहीं बहका लिया तो ? मै तो मर ही जाउंगी | पर अब यह बड़ा हो गया है इसे वहां अपनी जड़ों में जाना चाहिए, एक बार खुद से देखना सोचना चाहिए | मैने राघव से पूछा भी " बेटू तुम अपनी दादी अम्मा को देखने जाओगे ? वह बीमार है तुम्हे याद कर रही है " ------

वह एकटक मेरा मुंह देखता रहा मानो मेरा चेहरा पढने की कोशिश कर रहा हो -
फिर कुछ सोच कर बोला, " चला जाऊं देख आऊं ? आप जैसा कहो अम्मी दादी अम्मा तो अब बूढी हो गई होंगी न ? तुम बताओ अम्मी | " ---- मैने बेटे का मन पढ़ लिया वह जाना चाहता था |

" चले जाओ बेटे अगले हफ्ते का टिकिट करवा लेते है | " --- और सारी तैयारी कर के कल उसे ट्रेन में बिठा आई |

तब से मन बहुत बेचैन है | सारी रात सो नहीं सकी सुबह हो गई है अब तो -- पता नहीं कब पहुंचेगा |

कोई उसे लेने टाइम से पहुंचा या नहीं,, इसी सोच विचार में डूबी थी कि …

अचानक फोन की घंटी घनघना उठी | मैने झपट कर फोन उठाया दूसरी तरफ राघव ही था,
" हैलो अम्मी , मै पहुँच गया हूँ यहाँ मुझे लेने कार भी आ गई है | तुम परेशान मत हो प्रभात चाचा आयें है, वो ही तो मुझे पहचानते है अपना ख्याल रखना , खाना जरुर खाना मुझे पता है तुमने कल से कुछ नहीं खाया होगा | "मेरा गला भर आया आवाज़ ही नहीं निकली बस इतना ही कहा “ठीक है मेरे बच्चे तुम बस फोन करते रहना “

अन्नी जग गई थी वाशरूम में थी निकलते ही मुझसे पूछा, " मेघा राघव का फोन था न वह ठीक से पहुँच गया ? "

" हां अन्नी वह पहुँच गया अब उसकी आवाज़ सुनकर ठंडक पड़ी कलेजे को लो माँ चाय पीओ "-
राघव को एक हफ्ता हो गया | मै सुबह - शाम फोन कर के उसकी खैरियत लेती | कभी उससे बात हो जाती तो कभी पता चलता उसे उसके बाबा शापिंग पर ले गये है या कहीं बाहर गए है सब, | कभी लगता सच कह रहे हैं वो लोग तो कभी लगता मेरा बेटा छीन रहे है पैसे की चमक - दमक दिखा कर |राघव अब उम्र की उस दहलीज़ पर था जहाँ वह न छोटा बच्चा था न ही समझदार युवा | कच्ची उम्र में यह सब बहकने को काफी होता है | मुझे लगा मैने बहुत बड़ी गलती कर दी | अन्नी सही कहती है उनका पैसा मेरे बेटे को भरमा लेगा |मैने राघव को पालने में कोई कमी नहीं रखी थी उसे सब कुछ दिया था पर एक सीमा में | वहां तो कोई सीमा ही नहीं है ----

इसी ऊहापोह में पड़ी थी सर भारी हो रहा था | आज एक बार भी बात नहीं हुई थी -

तभी मेरा सेल फोन बज उठा राघव का फोन था नाराज़ हो रहा था मुझसे,

" तुमने आज मुझे फोन क्यों नहीं किया अम्मी भूल गई क्या मुझे यहाँ भेज कर ?"
वह मुझे छेड़ रहा था | फिर बहुत सारी बातें की सबके बारे में मै चुपचाप सुनती रही |
फोन काटने से पहले उसने पूछा ---

" अम्मी एक बात बताओ तुम इस आदमी के साथ इतने दिन भी कैसे रही तुम्हे तो इन्हें दस दिन में ही छोड़ देना चाहिए था "

बेटे के इस वाक्य ने मानो मेरे बरसों पहले लिए फैसले पर आज मुहर लगा दी |

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दिव्या शुक्ला

(कथादेश 2016 )