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भक्तराज ध्रुव - उपन्यास
Renu
द्वारा
हिंदी आध्यात्मिक कथा
स्वायम्भुव मनुके दो पुत्र थे— ‘प्रियव्रत और उत्तानपाद।’
उत्तानपाद की दो स्त्रियाँ थीं— ‘सुरुचि और सुनीति।’
सुरुचि का पुत्र था उत्तम और सुनीति का ध्रुव। राजा उत्तानपाद सुरुचि पर आसक्त थे, एक प्रकारसे उसके अधीन थे। वे चाहनेपर भी सुनीति के प्रति अपना प्रेम नहीं प्रकट कर सकते थे। ध्रुव और उत्तम की उम्र अभी बहुत थोड़ी-केवल पाँच वर्षों की थी।
राजसभा लगी हुई थी। महाराज उत्तानपाद सुरुचि के साथ सिंहासन पर बैठे हुए थे। उनकी गोद में उत्तम खेल रहा था और वे उसे बड़े स्नेह से दुलार रहे थे। सुनीति ने पुत्र का साज-शृंगार करके धाई के लड़कों के साथ उन्हें खेलने के लिये भेज दिया था। वे खेलते-खेलते राजसभा में आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि मेरा भाई उत्तम पिता की गोद में बैठा हुआ है, अतः उनकी भी इच्छा हुई कि मैं चलकर पिता की गोद में बैठूं। उन्होंने जाकर पिता के चरण छूए । राजा ने उनको आशीर्वाद दिया। वे अपने पिताकी गोद में बैठना ही चाहते थे कि सुरुचि ने उन्हें डाँट दिया। उसने कहा— “ध्रुव! तुम बड़े नटखट हो। जहाँ तुम्हें बैठने का अधिकार नहीं है, वहाँ क्यों बैठना चाहते हो ? इस सिंहासन पर बैठने के लिये बहुत पुण्य करने पड़ते हैं। यदि तुम पुण्यात्मा होते तो मेरे गर्भ से जन्म लेते। भाग्यहीना सुनीति के गर्भ में क्यों आते? उत्तम मेरे गर्भ से पैदा हुआ है। वह राज्य का उत्तराधिकारी है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते। यदि तुम्हें अपने पिता की गोद में बैठना हो तो जाकर तपस्या करो, भगवान् की आराधना करो और मेरे गर्भ से जन्म लो। तब दूसरे जन्म में तुम्हें यह गोद, यह सिंहासन प्राप्त हो सकता है।”
स्वायम्भुव मनुके दो पुत्र थे— ‘प्रियव्रत और उत्तानपाद।’उत्तानपाद की दो स्त्रियाँ थीं— ‘सुरुचि और सुनीति।’सुरुचि का पुत्र था उत्तम और सुनीति का ध्रुव। राजा उत्तानपाद सुरुचि पर आसक्त थे, एक प्रकारसे उसके अधीन थे। वे चाहनेपर भी सुनीति के ...और पढ़ेअपना प्रेम नहीं प्रकट कर सकते थे। ध्रुव और उत्तम की उम्र अभी बहुत थोड़ी-केवल पाँच वर्षों की थी। राजसभा लगी हुई थी। महाराज उत्तानपाद सुरुचि के साथ सिंहासन पर बैठे हुए थे। उनकी गोद में उत्तम खेल रहा था और वे उसे बड़े स्नेह से दुलार रहे थे। सुनीति ने पुत्र का साज-शृंगार करके धाई के लड़कों के साथ
यमुना के किनारे पहुँचकर ध्रुव ने पहले दिन उपवास किया। और दूसरे दिन से वे विधिपूर्वक भगवान् की आराधना करने लगे। पहले महीने में तीन-तीन दिन पर कैथ और बेर के फल खा लेते तथा निरन्तर भगवान् के द्वादशाक्षर-मन्त्र ...और पढ़ेजप करते हुए भगवान् के चतुर्भुज रूप का ध्यान करते रहे। दूसरे महीने में हर छठे दिन सूखे पत्ते और कुछ तिनके खा लेते तथा प्रेम से भगवान् की आराधना करते रहे। तीसरे महीने में हर नवें दिन पानी पी लेते और चौथे महीने में तो उन्होंने जल भी छोड़ दिया, केवल वायु पीकर ही रहे। वह भी प्राणवायु इस
संसार में प्रत्येक मनुष्य के सामने दो प्रकार की बातें आती हैं—एक तो सुनीति की और दूसरी सुरुचि की। जो रुचि शुभ नीति का विरोध करती है, वह रुचि कुरुचि है, हम अपनी उदारता से भले ही उसे सुरुचि ...और पढ़ेसुरुचि के अनुसार चलने पर उत्तम सुखभोग कुछ दिनों के लिये प्राप्त हो सकता है। परंतु ध्रुव अथवा स्थायी लाभ सुनीति के अनुसार चलने से ही होता है। सुनीति सुरुचि की विरोधिनी नहीं है, बल्कि सुनीति के साथ सुरुचि का संयोग हो जाय तो आनन्द की और भी अभिवृद्धि हो जाय। परंतु मनुष्य का मन इतना चञ्चल है, इतना कमजोर
भगवान् की आराधना से सब कुछ हो सकता है, अब तक होता आया है और आगे भी होता रहेगा। संसार के इतिहास में ऐसा कोई दृष्टान्त नहीं है कि किसी ने आराधना करके अपनी अभिलषित वस्तु न प्राप्त की ...और पढ़ेसभी कुछ-न-कुछ चाहते हैं। सभी कुछ-न-कुछ पाने के लिये अशान्त हैं। सभी अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त करने के लिये प्रयत्न कर रहे हैं। परंतु किसी को भी पूर्ण सफलता मिलती नहीं दीखती। इसका कारण क्या है ? सफलता का जो वास्तविक मार्ग है, उस पर बहुत लोगों की दृष्टि ही नहीं है। अपनी बुद्धि की शक्ति से; अपने शरीर की
शास्त्रों में धर्म के दो प्रकार बतलाये गये हैं— एक सामान्य धर्म और दूसरा विशेष धर्म। सत्य, अहिंसा, प्रेम, भगवद्भक्ति— ये सब सामान्य धर्म हैं। इनका प्रत्येक देश में, प्रत्येक काल में और प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा पालन किया ...और पढ़ेसकता है तथा किया जाना चाहिये। ये सार्वभौम धर्म हैं। जो धर्म किसी जाति के लिये हो, किसी देश के लिये हो, किसी समय के लिये हो, उसे विशेष धर्म कहते हैं। ब्राह्मणधर्म, क्षत्रियधर्म, वैश्यधर्म –ये सब विशेष धर्म हैं।व्यावहारिक दृष्टि से सामान्य धर्म को निर्विशेष धर्म अर्थात् विशेषणरहित धर्म कह सकते हैं। और विशेष धर्म को सविशेष धर्म अर्थात्