भक्तराज ध्रुव - भाग 6 Renu द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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भक्तराज ध्रुव - भाग 6

जैसे प्राणियों के शरीर से आरोग्य और रोग के कीटाणु निकला करते हैं और आस-पास के लोगों पर प्रभाव डालते हैं, वैसे ही
सत्य, अहिंसा, प्रेम, भक्ति आदि के चिदणु भी बाहर निकला करते हैं तथा मिलने-जुलने वालों पर अपना प्रभाव डालते हैं। कोई अपने को गुप्त नहीं रख सकता, सभी के शरीरसे तन्मात्राएँ
निकलती हैं और वायुमण्डल को अपने अनुकूल बनाती हैं।
संतों के शरीर से भी निरन्तर सद्भावनाओं का प्रसार होता रहता है और उनके सम्पर्क में रहकर कोई असंत हो नहीं सका। एक यह भी कारण है कि लोगों ने सत्सङ्ग को इतना महत्त्व दिया है। किसी को पहचानना हो तो उसके आस-पास के लोगों द्वारा उसे
पहचाना जा सकता है।
ध्रुव की दो स्त्रियाँ थीं। भ्रमि से कल्प और वत्सर नाम के दो पुत्र हुए थे। इला से एक पुत्र हुआ था उत्कल। उत्कल ध्रुव का ज्येष्ठ पुत्र था और वह प्रायः ध्रुव के साथ ही रहता था। ध्रुव की श्रद्धा-भक्ति का उस पर इतना प्रभाव पड़ा था कि जन्म से ही
उसकी चित्त वृत्तियाँ शान्त थीं और किसी विषय में उसकी आसक्ति नहीं थी। वह ध्रुव के पास बैठकर भगवत्तत्त्व के सम्बन्ध में अनेकों प्रकार की बातें पूछता और सुनता। ध्रुव ने भी कठिन-से-कठिन तत्त्व को उसे इस प्रकार हृदयङ्गम करा दिया था कि सारा संसार उसे अपने-आपमें दीखता और वह अपने-आपको सब में व्याप्त देखता। उसकी दृष्टि सम हो गयी और वह एकरस आत्मा के चिन्तन में ही मस्त रहता था।
ध्रुव के दूसरे पुत्र कल्प और वत्सर भी बड़े ही सदाचारी एवं
भगवद्भक्त थे। वे भी ध्रुव की शिक्षा के प्रभाव से भगवान्‌ की आज्ञा समझकर अपने कर्तव्य का पालन करते थे। ध्रुव न केवल तीनों पुत्रों को ही बल्कि सम्पूर्ण जगत् को समान दृष्टि से, भगवत् दृष्टि से देखते थे। पुत्रों का समय पर उन्होंने यथोचित संस्कार किया और वे युवक हुए।
ध्रुव ने देखा, राज्य करते-करते छत्तीस हजार वर्ष बीतने आये। भगवान् की आज्ञा का यथाशक्ति पालन करने की चेष्टा की गयी। अब भगवान्‌ के चिन्तन बिना एक क्षण बिताना भी असह्य हो रहा है। उनके ही भजन में सम्पूर्ण शक्ति लग जानी चाहिये।
मन भगवान् का स्मरण करता है; परंतु शरीर तो व्यवहार में लगा है न। अब ऐसा करना चाहिये कि सम्पूर्ण इन्द्रियाँ, सम्पूर्ण प्राण, सम्पूर्ण मन और सम्पूर्ण बुद्धि भगवान् के भजन में ही लग जायँ। आत्मा भजनमय ही हो जाय। चाहे ऊपर-ऊपर ही भेद-दृष्टि हो; परंतु उसे क्यों प्रश्रय दिया जाय। उन्होंने सोचा, जगत् के व्यवहारों में क्या रखा है, करते-करते युग बीत गये, इनमें क्या रस है ? कुछ पता नहीं चलता। अनादिकाल से सृष्टि की परम्परा
यों ही चल रही है, आना-जाना, सुख-दुःख और पाप-पुण्य के द्वन्द्व में सब उलझे हुए हैं, क्या जीवन का यही प्रयोजन है ?
ध्रुव सोचते ही गये। उन्होंने निश्चय किया कि अब ऐसा साधन किया जाय, ऐसा भजन किया जाय कि केवल भजन-ही-भजन रहे। न अपनी स्मृति रहे, न किसी प्राप्तव्य की स्मृति रहे। केवल भजन की ही स्मृति रहे। अर्थात् साधक और साध्य दोनों ही जिस भजन में अन्तर्भूत हो जायँ वही सर्वोत्कृष्ट भजन है और भजन का लक्ष्य, भजन का वास्तविक स्वरूप भी वही है। ‘भजन का लक्ष्य स्वयं भजन ही है’ यह बात जो भूल जाते हैं, वे ही नाना प्रकार के फलों के लिये भटकते रहते हैं और उन्हें
अपने भजन से सन्तोष नहीं होता। यही निष्काम भजन है, यही तत्त्वज्ञानी का भजन है और इसे ही पूर्ण भक्ति निष्ठा कहते हैं। तो अब आज से ऐसा ही भजन होना चाहिये। ध्रुव ने निश्चय कर लिया।
निश्चय करने भर की ही देर थी, उन्होंने राजकाज का भार पुत्र को सौंपा। गुरुजनों और ब्राह्मणों से अनुमति ली और विशालाकी यात्रा कर दी। उनके जाने के पश्चात् राज्यका उत्तराधिकार उत्कल को ही मिलना चाहिये था और मिला भी;
परंतु उत्कल ने उसे सम्हाला नहीं। वह दिन-रात भगवान् में, अपने-आप में मस्त रहता था। साधारण लोग उसे पागल समझते थे, वह राज-काज का निर्वाह क्या करता। मन्त्रियों ने सर्वसम्मति से और प्रजाकी अनुमति से वत्सर को राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया। वे योग्यता के साथ अपने पिता की भाँति राज्य का कार्य करने लगे।
ध्रुव विशाला पहुँचे। वहाँ स्नानादि से निवृत्त होकर आसन बाँधकर, प्राणों को रोककर, मनोवृत्तियों को समेटकर वे भगवान् के विराट् रूप में तल्लीन हो गये। थोड़ी ही देर के बाद उनके सामने से भगवान् का विराट् रूप हट गया और भगवान्‌ के दिव्य अप्राकृत विग्रह को देख-देखकर वे मुग्ध होने लगे। उनके हृदय में प्रेम की धारा बहने लगी। आँखों से आनन्दके आँसू उमड़ पड़े। शरीर पुलकित हो गया। शरीरका बन्धन टूट गया और अपने-आपको भूलकर वे भजन स्वरूप भगवान् में तन्मय हो गये।
कुछ समय के बाद उन्हें ऐसा जान पड़ा कि आकाश में एक दूसरे ही चन्द्रमा उग रहे हैं। दिशाओं में दिव्य प्रकाश फैल गया है और बड़ी ही मीठी ध्वनि कानों में अमृत उड़ेल रही है। वे मानो भगवान् का स्पर्श प्राप्त करने लगे। इसी समय एक विमान उनके सामने उतरता हुआ-सा दीख पड़ा। उन्होंने देखा कि बड़े
ही सुन्दर श्यामवर्ण के चतुर्भुज पीताम्बरधारी दो पार्षद उस विमान पर बैठे हुए हैं। उनकी अवस्था किशोर है, आँखें कमल की-सी हैं और उनके दिव्य आभूषण उस विमान के प्रकाश में भी पूर्णतः जगमगा रहे हैं। ध्रुव भगवान्‌ के पार्षदों को देखकर उठ खड़े हुए और भगवान्‌ के नामों का उच्चारण करते दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने पार्षदों को नमस्कार किया। उन्हें देखकर ध्रुव भगवान्‌ की स्मृति में और भी तल्लीन हो गये। उनका सिर नम्रता से झुक गया।
उन पार्षदों ने, जिनका नाम सुनन्द और नन्द था, मुसकराते हुए ध्रुव के पास जाकर कहा—“ध्रुव ! तुम्हारा कल्याण हो। तुमने पाँच वर्ष की अवस्था में जिन भगवान् को प्रसन्न किया था, हम उन्हीं के पार्षद हैं। उनकी आज्ञा से हम तुम्हें विष्णुपद में ले चलने के लिये आये हुए हैं। बड़े-बड़े ज्ञानी और योगी जिस पद की प्राप्ति के लिये अनेकों प्रकार की साधनाएँ करते रहते हैं, समस्त ग्रह, नक्षत्र, सप्तर्षि और ताराएँ जिसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं, तुम्हारे पूर्वजों ने अथवा अन्य किसी ने अब तक जिस पद की प्राप्ति नहीं की है, हम तुम्हें उस पद पर ले चलने के लिये आये हुए हैं। तुमने भगवान्‌ की आराधना से वह पद प्राप्त किया है। आओ, प्रेमसे इस श्रेष्ठ विमानपर आरोहण करो।”
पार्षदों की वाणी सुनकर ध्रुव ने स्नान किया, नित्यकर्म किये, मुनियों को प्रणाम करके आशीर्वाद लिये, विमान की परिक्रमा की, उसकी पूजा की, पार्षदों की वन्दना की और फिर वे उस विमान पर आरोहण करने लगे। उस समय काल उनके सामने आया। उन्होंने मृत्यु के सिरपर पैर रखकर उस दिव्य विमानपर सवारी की। आकाशमें नगारे, मृदङ्ग और सिंगे बजने लगे, गन्धर्व गायन करने लगे और दिव्य पुष्पोंकी वर्षा होने लगी।
पार्षदों ने देखा कि ध्रुव किसी चिन्ता में पड़े हुए हैं। उनकी आकृति से स्पष्ट मालूम हो रहा था कि अभी उन्हें कोई काम करना बाकी है। भगवान्‌ के पार्षदों से क्या छिपा रहता ! उन्होंने ध्रुव का हृदय देख लिया। वे अपनी माता के लिये चिन्तित हो रहे थे। पार्षदों ने हँसकर कहा— “ध्रुव ! क्या तुम अपनी माता के लिये चिन्तित हो रहे हो? क्यों न हो, तुम्हारे-जैसा भक्त अपनी माता की चिन्ता क्यों न करे ? जिस माता ने दस महीने तक गर्भ में धारण किया, अनेकों कष्ट सहकर बचपन में पालन-पोषण किया और जिसकी शिक्षा-दीक्षा से प्रभावित होकर भगवान् को प्राप्त किया, जिसके स्नेह-ममता-प्रेम के फलस्वरूप ही यह
स्थान तुम्हें प्राप्त हो रहा है, उसके लिये चिन्ता होनी
स्वाभाविक ही है।
“परंतु चिन्ता करने का कोई कारण नहीं है, तुम्हारे-जैसे पुत्र की जननी कभी कल्याण से वञ्चित रह ही नहीं सकती। देखो, वह तुमसे पहले विमान पर सवार होकर आगे-आगे जा रही है। वह तुम्हारे साथ ही रहेगी।” पार्षद ध्रुव से भगवान् के गुण, उनकी लीला का वर्णन कर रहे थे और उनका विमान ऊपर उठ रहा था। स्थान-स्थान पर विमानपर चढ़कर देवताओं ने स्वागत किया। वे ग्रह और सप्तर्षियों से ऊपर विष्णु पद पर पहुँच गये।
ध्रुव को जो पद प्राप्त हुआ, वह अपने प्रकाश से ही प्रकाशित होता रहता है। जो सब प्राणियों पर प्रेम रखते हैं, दुःखियों पर दया रखते हैं और भगवान् के चरणों में अनन्य प्रेम रखते हैं, केवल वे ही इस पद पर पहुँच सकते हैं। भगवान् की अपार कृपा से ही ध्रुव-जैसा जीवन, ध्रुव-जैसा भजन और ध्रुव-जैसी गति प्राप्त होती है। जैसे भगवान्ने पद-पद पर ध्रुव की रक्षा की, ध्रुव की अभिलाषा पूर्ण की, वैसे ही यदि हम भी भगवान्‌ की ओर चलें, वैसे ही उत्साह और भजन को अपनावें तो वे अवश्य ही ध्रुव के समान ही हमारी सहायता करेंगे और वे तो करने के लिये सर्वदा उत्सुक रहते ही हैं।
कल्पभर तक ध्रुव उस स्थान में रहकर भगवान् की लीलाका अनुभव करते रहेंगे और उसके बाद उन्हें सायुज्य-मुक्ति
प्राप्त होगी।