भक्तराज ध्रुव - भाग 5 Renu द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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भक्तराज ध्रुव - भाग 5

शास्त्रों में धर्म के दो प्रकार बतलाये गये हैं— एक सामान्य धर्म और दूसरा विशेष धर्म। सत्य, अहिंसा, प्रेम, भगवद्भक्ति— ये सब सामान्य धर्म हैं। इनका प्रत्येक देश में, प्रत्येक काल में और प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा पालन किया जा सकता है तथा किया जाना चाहिये। ये सार्वभौम धर्म हैं। जो धर्म किसी जाति के लिये हो, किसी देश के लिये हो, किसी समय के लिये हो, उसे विशेष धर्म कहते हैं। ब्राह्मणधर्म, क्षत्रियधर्म, वैश्यधर्म –ये सब विशेष धर्म हैं।
व्यावहारिक दृष्टि से सामान्य धर्म को निर्विशेष धर्म अर्थात् विशेषणरहित धर्म कह सकते हैं। और विशेष धर्म को सविशेष धर्म अर्थात् विशेषणयुक्त धर्म कह सकते हैं। पहला केवल धर्म है और दूसरा अमुक धर्म है। सामान्य धर्म किसी भी विशेष धर्म का विरोध नहीं करता। परंतु विशेष धर्म कहीं-कहीं सामान्य धर्म का विरोध करता हुआ-सा दीखता है। वास्तव में धर्म का स्वरूप अविरोधी ही है। परंतु संतों के जीवन की यह विशेषता है कि वे सामान्यरूप से दोनों प्रकार के धर्मों का निर्वाह करते हैं।
ध्रुवके जीवन में दोनों ही धर्मो की पूर्णता थी। वे सत्य, अहिंसा, प्रेम और भक्ति के मूर्तिमान् आदर्श थे तथा क्षत्रियोचित तेज, शौर्य और युद्धवीरता की भी उनमें पूर्ण प्रतिष्ठा थी। परंतु एक सरल भक्त के जीवनमें युद्ध के लिये अवसर ही कब आ सकता है। उन्होंने अनेकों यज्ञ किये, परंतु कभी युद्ध का अवसर न आया, किसी के प्रति उनके मन में वैर-भाव था ही नहीं, उनके साथ कोई युद्ध करता कैसे ? युद्ध तो लोग उसी से करते हैं, जिसके मनमें वैर-भाव रहता है।
ध्रुव के जीवन में और दीर्घकालव्यापी जीवन में, जिसका परिमाण छत्तीस हजार वर्ष है, केवल एक बार युद्ध का प्रसङ्ग आया है। उस समय ध्रुव का जो अस्त्र-कौशल प्रकट हुआ, जो वीरता उन्होंने दिखायी, वह केवल भगवान् की ही सहायता से प्राप्त हो सकती है, अन्यथा उसका अंशमात्र प्राप्त करना भी साधारण लोगों के लिये असम्भव है। बात यह थी कि ध्रुव का भाई उत्तम शिकार खेलने के लिये गया हुआ था, उन दिनों शिकार की बड़ी प्रथा थी और उत्तम को इसका व्यसन हो गया था। उधर कहीं यक्षों से मुठभेड़ हो गयी और उनके हाथों वह मारा गया। प्राणियों की हत्या करने वालों की यह दशा होनी ही चाहिये । ममता के कारण उत्तम की माता भी कुछ लोगों को साथ लेकर उसे ढूँढ़ने के लिये जंगल में गयी और आग लग जाने से वह वहीं जल गयी। ध्रुव को जब इन बातों का पता चला तब उन्होंने उत्तम को मारने वालों की जाँच करने के लिये उधर की यात्रा की।
पृथ्वी के सम्राट् ध्रुव जब उधर गये तब चाहिये तो यह था कि यक्ष इनसे क्षमा माँगें और इनका सत्कार करें; परंतु बात उलटी हुई, वे ध्रुव से भिड़ गये। शासन की दृष्टि से उन्हें अपने काबूमें करना न्यायोचित था। ध्रुव ने भगवान् का स्मरण करके युद्ध प्रारम्भ किया। बड़ा घमासान युद्ध हुआ, यक्षों ने बड़ी क्रूरता से प्रहार किये। ध्रुव उन से घिर गये। उस समय ऋषि और मुनि वहाँ आ-आकर ध्रुव के कल्याण की प्रार्थना करने लगे। ऋषियों ने आशीर्वाद दिया— “ध्रुव ! वे शार्ङ्गधारी भक्तवत्सल भगवान् तुम्हारी रक्षा करें और तुम्हारे विपक्षियों का शासन करें, जिनका नामोच्चारण करके संसार के लोग बड़ी ही सुगमता से शीघ्र ही दुस्तर मृत्यु को पार कर जाते हैं।
ऋषियों के आशीर्वाद से ध्रुव की शक्ति और भी बढ़ गयी। उन्होंने नारायणास्त्र का सन्धान किया। यक्षों के विनाशका समय उपस्थित हो गया। उनके सब मायाजाल छिन्न-भिन्न हो गये, उनके अस्त्र-शस्त्र और घातक प्रयोग नारायणास्त्र के सम्मुख क्षणभर में ही निष्फल हो गये। भगवान्ने ध्रुव के पितामह
स्वायम्भुव मनु के हृदय में प्रेरणा की और वे युद्ध-भूमि में ध्रुव के पास आये। उन्हें देखते ही ध्रुव ने रथ से उतरकर उनके चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गये, मानो आज्ञा की प्रतीक्षा में हों। स्वायम्भुव मनु ने युद्ध-भूमि में ही एक
बड़ा सुन्दर व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा— “युद्ध केवल स्वार्थ के कारण ही होता है। जिनका भगवान् पर विश्वास है, जो सबके हृदय में भगवान्‌ का दर्शन करते हैं, उनमें भला युद्ध की रुचि, युद्ध की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? सारी सृष्टि स्वयं ही संसार की ओर बढ़ रही है। महाकाल स्वयं सबको भक्षण कर रहा है; ऐसी स्थितिमें भगवान् का स्मरण करके अपना कालयापन करना चाहिये। ध्रुव! तुम मेरे पौत्र हो, तुमने यह क्या किया? माना कि यक्षों ने कुछ अनुचित कर दिया था; परंतु क्या तुममें वह सहन करने की शक्ति नहीं थी ? अब छोड़ दो यह काम, यक्षों का विनाश मत करो। इनका दोष मत देखो। इन पर अविश्वास मत करो, इनमें भगवान् का दर्शन करो। तुम तो भगवान्‌ के परम प्यारे भक्त हो।”
स्वायम्भुव मनु की बात सुनते ही ध्रुव ने युद्ध बंद करने की घोषणा कर दी। ध्रुव-जैसा भक्त अपने गुरुजनों की आज्ञा मानने में भला कब आनाकानी कर सकता है। युद्ध बंद हो गया और यक्षों के अधिपति कुबेर स्वयं ध्रुव के पास आये। ध्रुव ने उनका स्वागत किया। उनके सामने अञ्जलि बाँधकर खड़े हो गये।
कुबेर ने कहा— “ध्रुव! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम्हारी क्षत्रियोचित वीरता से मुझे बड़ा ही सन्तोष प्राप्त हुआ है। तुममें भगवद्भक्ति आदि सामान्य धर्म तो हैं ही, क्षत्रिय धर्म भी तुममें पूर्ण रूप से विद्यमान है; जो हुआ सो हुआ। यों व्यावहारिक दृष्टि से तो मेरे यक्षों ने तुम्हारे भाई को मारा और तुमने मेरे यक्षों को। परंतु
वास्तव में किसी ने किसी को नहीं मारा। यह भगवान्‌ की इच्छा का मन्त्र, यह प्रकृति का चक्र यों ही चल रहा है, इसमें हर्ष-शोक का स्थान नहीं है। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो मुझसे वर माँग सकते हो।”
ध्रुव ने कहा— “भगवन्! मुझे और क्या चाहिये ? आप-लोगों की कृपा से भगवान् का निरन्तर स्मरण होता रहे; भगवान् के चरणों में निरन्तर प्रेम बना रहे, यही चाहता हूँ। कुबेर ने 'एवमस्तु' कहकर आशीर्वाद दिया। स्वायम्भुव मनु अपने लोक में चले गये। कुबेर अन्तर्धान हो गये और ध्रुव अपनी राजधानीमें आये।
ध्रुव के यहाँ बराबर यज्ञ-यागादि चलते ही रहते थे। बड़े-बड़े संत उनके पास आया करते थे और वे बड़ी श्रद्धा-भक्ति से सबका सम्मान करते थे। ध्रुव स्वयं भी तीर्थों में जाया करते थे और सभी देवी-देवताओं को अपना इष्टदेव ही समझकर पूजा करते थे। काशी-प्रभास आदि क्षेत्रों में उनके द्वारा प्रतिष्ठापित बहुत-सी मूर्तियाँ अब भी विद्यमान हैं। विष्णु और शिवमें तनिक भी भेद-बुद्धि उनके मन में नहीं थी। उनकी दृष्टि में विष्णु के हृदय शिव और शिव के हृदय विष्णु हैं। प्रभास क्षेत्र में बहुत दिनों रहकर उन्होंने अपने ही द्वारा स्थापित शिवलिङ्ग की पूजा की थी। वे
स्वयं ही वन में से फूल चुन-चुनकर ले आते, उनके मन्त्र पढ़कर एक-एक फूल अलग-अलग बड़े प्रेम से चढ़ाते और अनेक दास-दासियों के रहनेपर भी वे वनसे स्वयं ही कन्द-मूल-फल ले आते तथा भगवान् शङ्कर को अर्पित करके प्रसाद पाते। नित्य ही षोडशोपचार से पूजा करके उनके मन्त्र का जप एवं उनकी प्रार्थना करने का उनका नियम था।
एक दिन भगवान् शङ्कर की प्रार्थना करते-करते ध्रुव तन्मय
हो गये। उनकी दृढ़ निष्ठा और अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् शङ्कर स्वयं पधारे। उन्होंने ध्रुव से कहा— “प्यारे ध्रुव!
मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि देता हूँ। मेरा दर्शन करो और तुम्हारी जो इच्छा हो मुझसे माँग लो।” ध्रुव ने देखा कि भगवान् शङ्कर सामने खड़े हैं। उनके जटा-जूट पर गङ्गा की धवल धारा बह रही है, ललाट पर चन्द्रमा चमक रहा है और श्वेत शरीर पर काले-काले नाग लिपट रहे हैं। हाथ में त्रिशूल और
मुस्कराता हुआ मुख मण्डल देखकर ध्रुव का प्रेम एवं उत्साह और भी बढ़ गया। उन्होंने बड़े प्रेम से स्तुति की तथा चरणों में गिरकर निवेदन किया कि “प्रभो! मुझे ब्रह्मपद, स्वर्ग अथवा लौकिक विषयों की लेशमात्र भी अभिलाषा नहीं है, ये सब लोक तो स्वयं ही जन्म-मृत्यु की चक्की में पिस रहे हैं। प्रभुके चरणोंमें मेरी अटल भक्ति बनी रहे, यही आशीर्वाद दीजिये। भगवान् शङ्कर प्रसन्नता पूर्वक उन्हें आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गये।
ध्रुव की महिमा का और क्या वर्णन किया जाय ? उनके हृदय-मन्दिर में आठों याम भगवान् प्रकट रहते थे। वे अनेक तीर्थोंमें भ्रमण करके पुनः अपनी राजधानीमें लौट आये और भगवान् का स्मरण करते हुए राज-काजमें लग गये।