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बारह पन्ने - अतीत की शृंखला से - उपन्यास
Mamta
द्वारा
हिंदी फिक्शन कहानी
बारह पन्ने अतीत की शृंखला के बचपन इंसान की ज़िंदगी का सबसे सुनहरा दौर जिसे शायद अंतिम साँस तक नही भुलाया जा सकता ।जीवन का सबसे स्वर्णिम काल ,चिंतारहित खेलना खाना ,बेपरवाह सी ज़िंदगी काश ! कोई ऐसा चमत्कार होता कि वो समय लौट आता । मैंने भी ऐसा ख़ूबसूरत सा बचपन जिया जो आज भी मेरी स्मृतियों का अनमोल ख़ज़ाना है ।उस काल को कुछ पन्नो में समेटना शायद असम्भव सा है पर कोशिश तो करूँगी ही अतीत की शृंखला से कुछ पल चुरा कर लाने का । ये बारह पन्ने किसी किताब के पन्नो
बारह पन्ने अतीत की शृंखला के बचपन इंसान की ज़िंदगी का सबसे सुनहरा दौर जिसे शायद अंतिम साँस तक नही भुलाया जा सकता ।जीवन का सबसे स्वर्णिम काल ,चिंतारहित खेलना खाना ,बेपरवाह सी ज़िंदगी ...और पढ़े! कोई ऐसा चमत्कार होता कि वो समय लौट आता । मैंने भी ऐसा ख़ूबसूरत सा बचपन जिया जो आज भी मेरी स्मृतियों का अनमोल ख़ज़ाना है ।उस काल को कुछ पन्नो में समेटना शायद असम्भव सा है पर कोशिश तो करूँगी ही अतीत की शृंखला से कुछ पल चुरा कर लाने का । ये बारह पन्ने किसी किताब के पन्नो
मुझे तो आज भी ऐसा लगता है मानो कल की ही बात है जब सुरनगरी के अपने इस नए घर में मैंने पहली बार कदम रखा था और नल खोल कर पानी बरसाया था ।कोई भी जब पूछता, गुड्डी ...और पढ़ेकर रही हो ? तो मेरा जवाब होता- मी बरछा रही हूँ । आज भी अपने बचपन का वो पल मेरी आँखो में बसा है और शायद उसी पल ने मुझे बारह पन्ने लिखने को प्रेरित किया । सोचती हूँ बीते वक्त की परछाइयों से सुकून से भरे कुछ ख़ूबसूरत पल चुरा लूँ ।स्मृति के आइने पर जो
ठीक है वो वक्त लौटाया तो नही जा सकता पर यादों में जिया तो जा सकता है ।शायद आज मै भी उसी वक्त को फिर एक बार जीने की कोशिश कर रही हूँ ,सुखद स्मृतियों के माध्यम से ...और पढ़ेअपने बिछड़ गए दोस्तों ,भाई बहनो को कुछ पल फिर से अपने क़रीब लाने की कोशिश कर रही हूँ । वैसे तो सुरनगरी के हमारे इन बारह घरों का आपस में बड़ा मेल था पर हमारे तीन चार घरोंका एक दूसरे पर कुछ ज़्यादा ही हक़ था । हम सबकी माँओं की भी आपस
जब माँ दोपहर में बाहर नहीं निकलने देती थी तो गिट्टे और नक्की बजाने का सिलसिला चलता । पड़ोस में मकान बनाने को आयी बजरी में से ढेर सारे अच्छे अच्छे पत्थर छाँटकर इकट्ठा करके उनमे से भी ...और पढ़ेगोल गोल पत्थर छाँट लेते और उन से गिट्टे खेलते बाक़ी बचे पत्थर नक्की खेलने में काम आते ।इस तरह अपने अलग ही तरह के खिलौने और खेल बना लेते थे हम ।।तब आज की तरह गर्मियों की छुट्टियों में ढेर सा होमवर्क तो मिलता नहीं था ,और ना ही कोई समर केम्प आदि होते थे
उन दिनो स्कूल से आकर जल्दी से होम वर्क ख़त्म करने की जल्दी रहती थी ,क्योंकि शाम होते ही खेलने जो जाना होता था ।सब अपना अपना काम ख़त्म करके बाहर उपस्थित हो जाते थे ।अगर किसी का काम ...और पढ़ेना हो रहा हो तो मदद के हाथ तैयार रहते थे ,इतनी एकात्मकता थी सबमें । मँझली और छोटी तो सीमा का हाथ बँटाने को हरदम तैयार रहती थीं । सीमा के कोने वाले घर दिन में ना जाने कितनी बार दौड़ कर जाना होता था ।उसके घर में अनुशासन बहुत था ।