Barah panne - ateet ki shrinkhala se - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

बारह पन्ने - अतीत की शृंखला से पार्ट 3

ठीक है वो वक्त लौटाया तो नही जा सकता पर यादों में जिया तो जा सकता है ।शायद आज मै भी उसी वक्त को फिर एक बार जीने की कोशिश कर रही हूँ ,सुखद स्मृतियों के माध्यम से ।और अपने बिछड़ गए दोस्तों ,भाई बहनो को कुछ पल फिर से अपने क़रीब लाने की कोशिश कर रही हूँ ।
वैसे तो सुरनगरी के हमारे इन बारह घरों का आपस में बड़ा मेल था पर हमारे तीन चार घरोंका एक दूसरे पर कुछ ज़्यादा ही हक़ था । हम सबकी माँओं की भी आपस में खूब छनती थी ।

बच्चे गए स्कूल ,पुरुष वर्ग अपने अपने काम पर और सब औरतें काम ख़त्म करते ही ,बड़ी बड़ी बिंदी लगा सुंदर सी साड़ी पहन किसी एक के घर जम जाती चाय के बहाने से ,और फिर जो कहकहे लगते कि बस पूछिए मत ।आज भी कानो में माँ और रंजू संजू की माँ और सुधा चाची जी के ठहाके गूंजते है ।

फिर शाम के समय सब बच्चे बाहर लेन में जमकर खेलते और औरतें समूह बनाकर बनाकर सुख दुःख साँझा करती और साथ साथ स्वेटर बुनाई भी चलती रहती ।कभी कभी पड़ोस में किसी के घर से कीर्तन का बुलावा आता तो सुरनगरी की हमारी लेन की औरतों का अपना अलग ही समूह जाता था इक्कठा होकर ।वहाँ भी मौक़ा लगाकर अपनी मज़ेदार बातों का छौंक लगाती थीं सब ।

हम सब बच्चे अपनी सुरनगरी के सुरक्षित वातावरण में अपने खेल में मस्त रहते ,उन्हें हमारी चिंता करने की ज़रूरत नही पड़ती थी ।आज की तरह नही कि बेचारे बच्चों को खेलने की जगह ही ना मिले और मिले भी तो उनकी सुरक्षा की चिंता अलग बनी रहती है ।चारों तरफ़ वाहनो की भरमार ,धुएँ और धूल से भरपूर वातावरण ,बेचारे बच्चे भी करे तो क्या करे ? अब घर में घुसे रहकर टी वी देखेंगे और मोबाइल से खेलेंगे ।

एक हमारा ज़माना था ,हमें मिला था उस समय साफ़ सुथरा सुरक्षित वातावरण ,खेलने को भरपूर जगह और खूब सारे प्यारे प्यारे संगी साथी । खेल भी कितने मज़ेदार थे हमारे ;ऊँच नीच ,चोर सिपाही, पिट्ठू, पोशमपा,नीली साड़ी हरी साड़ी , लंगड़ी टांग ,इक्कल दुक्कल और विष अमृत और लंगड़ी टांग ।लड़के कभी कुछ और खेलने लगते तो लड़कियाँ जम जाती गिट्टे बजाने में ।कुछ खेल तो सभी मिल कर खेलते थे ,क्योंकि जितने ज़्यादा बच्चे उतना ज़्यादा मज़ा ।मिलकर ज़ोर ज़ोर से खेल से सम्बंधित गाना भी तो गाना होता था ना ! पोशमपा का गाना भी कितना मज़ेदार था ।दो बच्चे हाथ पकड़ कर ऊँचा कर लेते और सारे बच्चे बारी बारी उसके नीचे से निकलते जाते और गाना चलता रहता ।जैसे ही जेल शब्द आता ,हाथ नीचे और एक बच्चा उन हाथों की जेल में बंद करके बाहर बैठा देते ये सिलसिला चलता रहता ,जब तक सारे जेल में बंद ना हो जाए ।

पोशमपा भई पोशमपा

पोशमपा ने क्या किया

सौ रुपय की घड़ी चुरायी

अब तो जेल में जाना पड़ेगा

जेल की रोटी खानी पड़ेगी

जेल का पानी पीना पड़ेगा

ऐसे ही कोड़ा जमालशाही के खेल में सब गोला बनाकर बैठ जाते और मिलकर गाना गाते ।यानि हर खेल में गाने का बहाना ज़रूर तलाश लेते थे ।

कभी सारे बच्चे दो पंक्तियों में सामने सामने खड़े होते ।फिर दोनो पंक्तियों से एक एक बच्चा बीच में आता ,बाक़ी सब गाना गाते

हरा समंदर गोपी चंदर

बोल मेरी मछली कितना पानी ?

इतना पानी इतना पानी ।

वो दोनो बच्चे कमर पर हाथ रखकर बताते इतना पानी और धीरे धीरे हाथों से ही पानी का स्तर ऊँचा करते जाते ।

अपने छोटे से लाड़ले को आज यही अपने बचपन के गाने सिखाने लगी ,और उसकी प्यारी सी तोतली भाषा में उन गानो की पंक्तियां सुनकर मानो मै भी फिर से बचपन में पहुँच गयी ।आज लगा सच में उसके माध्यम से कुछ पल अपने बचपन को लौटा ही लिया ।

और तब रस्सी कूदना तो हमारा मस्ती भरा व्यायाम था। उस उम्र में,कितना ही रस्सी कूद लो थकते ही नही थे और आज के समय में बच्चों को पता ही नही कि रस्सी कूदना भी कोई खेल होता है ।ना इतने बच्चे इकट्ठे होते हैं ना कोई रस्सी कूदता है ।

पर बच्चे और कूदे ना ऐसा तो हो नही सकता ,यहाँ अमेरिका में हर घर के गराज या बैकयार्ड में ट्रैम्पलीन लगा है कूदने को ।अकेले अकेले बच्चों को उस पर कूदते देख मुझे अपने बचपन का दोस्तों के साथ रस्सी कूदना ज़रूर याद आता है ।

हम तो तब किसी भी बात में आनंद ढूँढ लेते थे और उस समय बिजली चली जाना हमारे लिए उत्सव से कम नही होता था ,क्यूँकि ऐसी स्थिति में पढ़ाई या कुछ और काम तो होगा नही इसलिए सब के सब बाहर निकल आते और बच्चों का खेल शुरू ,और वो भी खूब शोर मचा मचा कर ।ना जाने क्यूँ तब मिल कर समवेत स्वर में शोर मचाने में इतना आनंद क्यों आता था ।और अगर किसी की माँ बाहर ना आने दे तो बस सारे पहुँच जाते इकट्ठे होकर और बाहर ले ही आते ,जब तक बिजली ना आए ये मस्ती चलती रहती ।और दुआ करते कि बिजली आए ही ना वरना अंदर जाना पड़ेगा और बिजली आने पर इतना बुरा लगता कि अब घर में जाकर सोना पड़ेगा ।

तब हमारे खेल भी कितने संगीतमय और कितने निराले थे ।तब ये कोई नही गिनता था कि किसके पास कितने खिलौने है बस ये जानते थे कि कौन किस खेल में कितना अच्छा है ? और उसी से तय होता कि उस खेल का लीडर कौन बनेगा ? साथ ही मिलकर खेलने की जो भावना थी उससे आपसी प्रेम और सदभाव , नेतृत्व ,सहनशक्ति ,बाँटने आदि की भावना का विकास हुआ होगा ।जाने अनजाने ये खेल हमें बचपन में ही कितना कुछ सिखा गए ।अब हमें बच्चों को सिखाना पड़ता है कि शेयरिंग इज़ केयरिंग ताकि कोई बच्चा घर आए तो खिलौनो से मिलकर खेले ।क्यूँकि इन बेचारों को पता ही नही की बाँट कर खेलना भी कुछ होता है ।

खेल में हमारे साथ हमारे छोटे भाई बहन होते थे और हम खेलते खेलते उनका भी ख़याल रखते ताकि माँ को कोई फ़िक्र ना हो ।अब सोचकर लगता है ,वो जब हम पर भरोसा करके छोटे भाई बहनो का ख़याल रखने को कहती थी तो कितना गर्व होता था स्वयं पर और ज़िम्मेदारी की भावना भी आती थी ।

उफ़्फ़ कितना ख़ूबसूरत वक्त था , कितनी प्यारी यादें ,आज भी लगता है जैसे कल की ही बात हो ।

यहाँसभी साधारण लोग थे और प्रेम की भावना से परिपूर्ण थे।सादा खाना पीना और सादा रहन सहन था ।रोज़मर्रा के दाल चावल सब्ज़ी के अलावा जब भी किसी एक के घर कुछ भी अच्छा सा कोई ख़ास व्यंजन बनता तो ये तो लाज़मी था कि दूसरे के यहाँ तो जाएगा ही ।

हर एक के घर के खाने का अपना एक अलग ही स्वाद होता था और वो लज़ीज़ व्यंजन जो थोड़ा थोड़ा सा हिस्से में आता हमारे ,वो क्या मज़ेदार लगता था कि बस पूछिए ही मत ।रंजू के माँ के बनाए कोफ़्ते और खीर , नीता के घर से आया साग ,पलदा और लौकी चने की दाल ,भटनागर जी के यहाँ की साबुत हरी मिर्च डाली खिचड़ी और मखाने की खीर ,क्या क्या याद करे क्या छोड़ दे ! और अगर किसी एक के घर कढ़ी बनी हो तो वो तो निश्चित रूप से एक दूसरे के यहाँ जाएगी ही ।हमारे घर की कढ़ी का कुछ ख़ास ही योगदान था इस आदान प्रदान में ।

सच में बचपन की उन चीजों का स्वाद उनकी याद भुलाए नहीं भूलती।लगता है जैसे कल ही की बात हो ।

जब नवरात्रि आती तो गर्व होता हमें अपने लड़की होने का ,क्यूँकि उस दिन हमारी तो बड़ी पूछ होती थी ।कन्या पूजन के लिए सभी के घरों से हमारे लिए निमंत्रण आता था । हम सब लड़कियाँ इकट्ठा होकर सबके घरों में जाती थी पूजा के लिए ।

हमारे घर के एकदम सामने ऊपर की तरफ़ था मोहन चाचा जी का घर ।आज भी मुझे याद है कैसे कन्या पूजन के दिन बड़े प्रेम से मोहन चाचाजी ठंडे ठंडे पानी से हमारे पैर धुलाते ,पोंछते ,चटाई पर बैठाकर बिंदी लगाते ,हाथ में डोरी बांधते और सुधा चाची हलवा पूरी चने का प्रसाद देती।और हमारी रुचि हलवा पूरी में कम प्लेट में रखे दक्षिणा की छोटी सी धनराशि पर होती थी । जो उस समय हमारे लिए किसी कुबेर के ख़ज़ाने से कम नही होती थी।हमें थोड़ा सा प्रसाद तो चखना ही पड़ता था बस जल्दी से ज़रा सा मुँह में डालकर हम बड़े गौरवान्वित होकर उनके घर की सीढ़ियाँ उतरते।और उतरते हुए एक नज़र सामने पड़ने वाले रंजू संजू के घर की खिड़की पर ज़रूर डालते ,वो इसलिए कि हमारी तो आज कितनी कमाई हो गयी पर इन लड़कों को आज कोई नहीं पूछेगा ।उनके तो कोई बहन भी नहीं थी ,और उन्हें तो कोई आज पैसे भी नहीं देगा । अपने घर की खिड़की में बैठे हुए उनके गमगीन चेहरे देखकर थोड़ा बुरा लगता आख़िर दोस्त थे हमारे , पर पैसे की ख़ुशी के आगे भला क्या नज़र आता उस समय ।

आज कितने ही डॉलर हाथ में हों , कितने ही सुख करतल पर धरे हों पर जो सुख उन दक्षिणा के पैसों और उस प्रसाद में था वो सुख किसी और में कहाँ? वो तो हमारे लिए सबसे क़ीमती ख़ज़ाना था ।और जो आनंद बब्बी के घर की सीढ़ियों पर बैठकर गर्मी की दोपहर में दोस्तों के साथ बात करने का था वो आनंद आज AC की ठंडक और क़ालीन से सुसज्जित सीढ़ियों पर बैठने में कहाँ ?जिन पर कभी कभी उन दिनो की याद ताज़ा करने को बैठ ज़ाया करती हूँ ।आज अपने इस बड़े से आलीशान घर में भी वो आनंद ढूँढती हूँ जो सुरनगरी के उस घर ,उन प्यारे से साथियों के साथ और भाई बहनो के प्यार में था । वहाँ तब ज़िम्मेदारी नही थी केवल सुख था अब सुख के साथ जिम्मेदारियाँ पहले है ।

तब ना अनगिनत खिलौने थे हमारे पास ना ढेरों विलासिता की वस्तुयें पर जो ज़िंदगी थी जो साथी थे जो वातावरण था वो किसी स्वर्ग से कम नहीं था ।साथ मिलकर खेलना ,साथ मिलकर स्कूल जाना, लौटते हुए चूरन वाले से खट्टा चूरन लेकर चाटना ,उफ़्फ़! आज भी सोचकर मुँह में पानी भर आता है । वो भी अपनी जेब खर्ची के पैसों से लेने का मज़ा ही कुछ और था ।

आज अपने हाथ में इतने पैसे होते हुए भी मन ही नहीं करता कि कुछ ऐसा कुछ ख़ुद के खाने के लिए लें।तब लगता था ,काश ! थोड़े और पैसे होते तो आज ही ना जाने क्या क्या ख़रीद लेते ! और सबसे हास्यास्पद बात ये कि रेज़गारी के ढेर की कल्पना करते थे नोटों का तो कभी ख़याल ही नहीं आया ।तब जो थोड़ी सी रेज़गारी में भी कितना कुछ आ जाता था वही अब ढेरों रुपए खर्च करके मिलता है ।इसलिए शायद हमारी बाल मन की कल्पना रेज़गारी तक ही सीमित थी ।

जेबखर्च की मिली एक निश्चित राशि को सोच समझकर खर्च करने से भी कितना कुछ सीखा ,अनावश्यक लालसा को रोकना सीखा ।घर कैसे चलाया जाता है ?बचत कैसे की जाती है ? इन सबकी नींव भी शायद तभी से पड़ी ।

ऐसे तो हमारे यहाँ काफ़ी ज़मीने थी ,पापा की मिलिटेरी की उच्च पड़ की नौकरी भी थी पर हमें बहुत सीमित पैसा खर्च करने को मिला करता था ।अपने पापा की एक बात मुझे अब तक याद है ।वो हमेशा कहते थे ,कितना भी पैसा पास क्यूँ ना हो बच्चों को खर्च के लिए हमेशा सोच समझ कर दो ,तभी उन्हें पैसे की क़ीमत पता चलती है ।इसलिए हमारे लिए आज भी अपनी मेहनत से कमाए हर एक पैसे की एक अलग क़ीमत है ।

ये संस्कार हमारे सभी संगी साथियों को उस उम्र में मिले और इन्ही संस्कारों के कारण सूरनगरी के सभी बच्चों ने अपनी अपनी जगह ज़िंदगी में बहुत बहुत अच्छा किया ,चाहे वो नौकरी हो या व्यापार ।ऐसा कि सबके माता पिता उन पर गर्व कर सकें।इन संस्कारों की जड़ें इतनी गहरी थी कि कोई भी कभी भी सुरनगरी के किसी बच्चे पर उँगली नही उठा सका ।इतनी ज़िम्मेदारी की भावना सबने बचपन से ही आ गयी थी ।सामने वाले घर सरीन चाचा के बेटे ने अपने पापा के कंधे से कंधा मिलकर उन्हें उस वक्त आए आर्थिक संकट से निकलने में कितनी मदद की और जब तक अपने छोटे भाइयों को नही सम्भाल लिया उसे चैन नही पड़ी ।तो ये थी संस्कारो की नीव जो बचपन में ही पड़ गयी थी सबमें ।

हम सबने साथ मिलकर खूब खेला और खेल के साथ साथ जम कर पढ़ाई भी की ,इसीलिए तो गर्मियों की छुट्टियाँ आयी नहीं कि पूरी शाम जमकर खेलना शुरू और फिर रात को खाने के बाद सब घरों से बाहर निकल आते और क़िस्से कहानियों और गानो की महफ़िल जमने लगती ।देर रात तक ये सिलसिला चलता क्योंकि सुबह किसी को भी जल्दी उठकर स्कूल जाने की जल्दी नही होती थी ।तब लगता था काश ! गर्मियों की छुट्टियाँ कभी खतम ही ना हो ।

ऐसे तो गर्मी की दोपहर में हम घर से बाहर नही जा सकते थे पर कभी कभी तो दोपहर को भी मौक़ा लग जाता था बाहर निकलने का।मोहन चाचा जी के पिता यानी लवी और बबलू के दादाजी जब उनके यहाँ मिलने आते थे तो वो भी कई बार दोपहर में बाहर आ जाते थे । उनका व्यक्तित्व बड़ा ही प्रभावशाली था ।वो कुर्ता और सलवार पहनकर अपने सिर पर बड़ा सा साफ़ा बांधते थे और उनके हाथ में एक छड़ी होती थी जिसका अगला सिरा गोल मुड़ा हुआ था ।वो हम सभी बच्चों से खूब बात करते थे । हालाँकि उनकी गूढ़ पंजाबी भाषा हमारे पल्ले नही पड़ती थी परंतु फिर भी उनके साथ हमें बहुत अच्छा लगता था ।कभी कभी उस छड़ी के गोल सिरे को हमारी गरदन में उलझा कर जब अपने पास खींचते तो हमें बड़ा मज़ा आता और हम खूब हंसते । लवी बड़ा था और बेहद शांत सौम्य ,पर बबलू एकदम मस्त और शरारती नम्बर एक ।वो दोनो भी हमारे खेल में बराबर साथ होते थे ,उनसे छोटा रोमी बड़ा ही प्यारा और सबका दुलारा था ।उनके परिवार के साथ भी हमारा बड़ा गहरा नाता रहा ।

कभी कभी गाँव से चाचा जी अपना ट्रैक्टर लेकर शहर आते थे किसी काम से ,सुरनगरी के बच्चों के लिए वो दिन कुछ ज़्यादा ही उल्लास से भर जाता था ।क्यूँकि सब को उस ट्रैक्टर पर लद कर सवारी जो करनी होती थी । यहाँ अमेरिका में बच्चों को कार में भी बिना सीट बेल्ट के नही बैठा सकते ,ये क़ानूनन जुर्म है क्यूँकि बच्चों की सुरक्षा यह सर्वोपरि है ।तब याद आती है वो ट्रैक्टर की सवारी ,जितने लद सको लद जाओ ,बोनट हो या बम्पर जहाँ जगह मिले बैठ जाओ ।और फिर उछलते उछलते हुए सड़क का चक्कर लगा कर आने में जो आनंद मिलता था उसके क्या कहने ? इसमें लड़कियों को कम लड़कों को ज़्यादा मज़ा आता था ।

बचपन की यही स्वच्छंदता और उल्लास उम्र के आख़री पड़ाव तक स्मृतियों में ताजे रहते है ।तब ना तो समाज की फ़िक्र होती ना कोई भय बस जो मन ने कहा कर लिया ।और बाद में ना जाने कितनी बंदिशों ना जाने कितने अदृश्य घेरों में क़ैद हो जाती है ज़िंदगी ।अपने मन का करने ,अपने लिए जीने की सोचने से पहले हज़ार बार सोचते हैं ।ज़िंदगी इसी फ़िक्र में निकल जाती है कि लोग क्या कहेंगे ?

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