जब माँ दोपहर में बाहर नहीं निकलने देती थी तो गिट्टे और नक्की बजाने का सिलसिला चलता । पड़ोस में मकान बनाने को आयी बजरी में से ढेर सारे अच्छे अच्छे पत्थर छाँटकर इकट्ठा करके उनमे से भी पाँच गोल गोल पत्थर छाँट लेते और उन से गिट्टे खेलते बाक़ी बचे पत्थर नक्की खेलने में काम आते ।इस तरह अपने अलग ही तरह के खिलौने और खेल बना लेते थे हम ।।तब आज की तरह गर्मियों की छुट्टियों में ढेर सा होमवर्क तो मिलता नहीं था ,और ना ही कोई समर केम्प आदि होते थे ।तब तो ये था कि जुलाई में स्कूल खुलेगा तो नयी क्लास की नयी किताबें मिलेगी । अभी से पढ़ाई का क्या सोचना अभी तो मज़े करने का समय है । ये थी हमारी ख़ुशनुमा ज़िंदगी की सोच उस समय ।
ऐसा नहीं कि छुट्टियों में हम बिल्कुल भी पढ़ते नहीं थे । अपनी कोर्स की किताबों के अलावा भी खूब किताबें पढ़ते थे ।उन दिनो में दस पैसे में एक हफ़्ते के लिए राकेश भैया की दुकान से किताब किराए पर लानी ,उस एक किताब को सबने बारी बारी पढ़ना और फिर दूसरी किताब ले आना ।
कितनी मज़ेदार मज़ेदार किताबें पढ़ी थी तब ,उस समय एक जलपरी की कहानी पढ़ी थी और उसने इतना प्रभावित किया कि आज तक दिलो दिमाग़ पर छाई है ।अभी कुछ दिनो पहले नेटफ़्लिक्स पर एक कार्यक्रम मिला मेको मरमेड ,जिसने जलपरियों की याद ताज़ा करा दी बस फिर क्या था सारी सीरिज़ देख डाली मैंने और छोटी ने बचपन की याद ताज़ा करने को । इस उम्र में भी हमारा विश्वास करने को मन किया कि जलपरी सच में होती है और इसी बहाने बचपन की मासूमियत को एक बार फिर जी लिया ।
इंसान हमेशा वर्तमान से भागकर बचपन तलाशने का बहाना खोज ही लेता है ।क्यूँकि वर्तमान तो ज़िम्मेदारी और रोज़मर्रा के तनाव से भरा है,भविष्य की चिंता अपने साथ लिए है ।कल क्या होगा ,इस फ़िक्र में हम वर्तमान को जी ही नही पाते और बचपन ! वो तो सुखद अहसास से भरा अतीत है ।ख़ासतौर पर जब उम्र के चढ़ाव का उतार सामने नज़र आ रहा हो तो और भी अधिक अतीत के कम्बल से लिपट कर यादों की गरमाहट पाने को जी चाहने लगता है ।
कभी कभी किताबें भी बचपन तलाशने का एक माध्यम बन ही जाती हैं। जब अपने नन्हे दुलारे को किताबें पढ़ कर सुनाती हूँ तब फिर से भूली बिसरी ना जाने कितनी कथाएँ ,ना जाने कितने क़िस्से याद आ जाते है ।और जब प्यार से अपनी तोतली सी आवाज़ में मुझसे कहता है ,माँ ! तानी सुनाओ ! सच कहूँ ,मन आह्लाद से भर जाता है ।बचपन की पढ़ी ऐसी ना जाने कितनी ही किताबें याद आ जाती है जिन्हें जीवन की भाग दौड़ में भुला सा दिया था ।
यूँ तो तब हमारे घर में हमारे लिए बाल पत्रिकाएँ चंदामामा ,नंदन और चम्पक भी आती थी ,पर उन्हें तो हम फ़टाक से पढ़ डालते थे ।उसके बाद क्या करें ? और किताबें चाहिए तो सूरनगरी में उसकी भी कमी नहीं थी ।और तब हमारा सबसे बड़ा सहारा बनते थे भटनागर चाचा जी ।
भटनागर चाचा जी के यहाँ कोई छोटा बच्चा नहीं था पर वो कॉमिक्स बहुत ख़रीदते थे ,बड़ा शौक़ था उन्हें कॉमिक्स पढ़ने का और फिर उन्हें मोटी गट्टे की जिल्द में बँधवा कर सहेज कर रखने का ।एक सख़्त ताकीद के साथ कि बिलकुल भी ख़राब नहीं करोगे ,वो कॉमिक्स भी जब हमें पढ़ने को मिल जाती तो लगता कोई लौटरी खुल गयी हमारी ।एक एक दृश्य याद हो गया था उन कोमिक्स का ।उसमें एक चरित्र का घर पेड़ पर था ,तब से मन में ट्री हाउस की ऐसी कल्पना जगी कि अब जाकर पूरी हुई जब अपने दुलारे के लिए ट्री हाउस बनवाया ।उसके माध्यम से बचपन की उस कल्पना को सार्थक कर एक जीवन जी लिया ।
बस तभी से किताबें पढ़ने का ऐसा शौक़ जागा कि हमारे घर में एक अच्छी ख़ासी लाइब्रेरी बन गयी हमारे बड़े होने तक ।क्यूँकि पढ़ने का शौक़ माँ और पापा दोनो को था और वो किताबें ख़रीदने के साथ साथ हमें पढ़ने को प्रेरित भी करते थे । पापा तो सिंदबाद की कहानी इतना रस लेकर सुनाते कि हमारे चारों ओर मानो एक जादुई वातावरण सा बन जाता और हम कल्पना में डूब जाते ।पापा कहानी सुनाते और बाक़ी अग़ले दिन के लिए अधूरी छोड़ देते और हम इस उत्सुकता में डूब जाते कि आगे क्या हुआ होगा? ।कल्पना के घोड़े दौड़ने लगते और तरह तरह की परिस्थितियाँ ढूँढने की कोशिश करते की शायद ऐसा हुआ होगा या वैसा हुआ होगा ? हो सकता है तभी से मन में कहानीकार बनने की चाहत जागी होगी और अध्यापन में रुचि भी ,इसीलिए शायद हम तीनो बहनो ने बड़े होकर अध्यापन ही किया ।
अध्यापन का अभ्यास भी बचपन से ही आरम्भ कर दिया था ।वो भी मज़ेदार तरीक़े से ,अपने से छोटे सभी बच्चों की क्लास लगाकर ।
पढ़ाने का तो हमेशा से ऐसा शौक़ था कि तब तो हम बाक़ायदा अपनी पिछली लेन में कक्षा लगाया करते थे ।सब छोटे बच्चे हमारे विद्यार्थी और हम बड़े बच्चे बन जाते अध्यापक ।इँटो की कुर्सियाँ बनाकर उन पर विद्यार्थी बैठाए जाते और हम टीचर बन कर उन्हें पढ़ाने का अभिनय करते ।छोटे बच्चे थोड़ी देर तो हमारे चक्कर में आकर बैठे रहते फिर पानी पीने का बहाना बना कर क्लास से भाग जाते और लौट कर ही ना आते ।अग़ले दिन फिर बड़ी मुश्किल से कोई लालच दे कर उन्हें क्लास में बैठाया जाता । ये खेल खेलकर हमें ऐसा लगता था कि हमने बहुत बड़ा काम कर लिया ।
आज भी नयी किताब के कोरे काग़ज़ की गंध का ऐसा आकर्षण है जो मुझे किशोरावस्था में धकेल देता है ,और गर्मियों की छुट्टियों की रातें याद आ जाती हैं जहाँ निश्चिंत होकर ना जाने किताबें पढ़ी और फिर अग़ले दिन सहेलियों को इकट्ठा करके सुनाई भी ।
एक शाम तो सब बाहर खड़े गप्पें मार रहे थे ,मैं शायद आठवीं या नौंवी कक्षा में रही होंगी ।तब तक अंग्रेज़ी नॉवल पढ़ने का चस्का लग चुका था और घर में पापा की अंग्रेज़ी और माँ की हिंदी किताबों की अलमारियाँ भरी थी । हमने अपने घर के नॉवल काफ़ी पढ़ लिए थे और कुछ नया पढ़ने की चाह थी तभी एक दिन सामने के सरदार अंकल के यहाँ से बड़ी भाभी ने गोर्की का उपन्यास मदर पढ़ने को दिया । मुझे फिर बातों में कहाँ आनंद आने वाला था ,नॉवल लेकर मैं अपने घर के अंदर खिसक गयी ।ये सोचकर कि अभी सब बाहर है इत्मीनान से शांति से पढ़ूँगी ।
आँगन में एक छोटा बल्ब लगा था पर ज़्यादा रोशनी की कभी कभी ज़रूरत होती थी तो एक और बड़ा बल्ब बाहर की तरफ़ एक लम्बी तार से लटकाया हुआ था ,और मज़े की बात ये कि उसने प्लग भी नही था ।मै तो बिजली से सम्बंधित ऐसे कामों में चतुर थी ही या शायद तब ख़ुद को समझती थी ।बस एक हाथ में किताब पकड़े दूसरे हाथ से तार का सिरा सोकेट में घुसाने लगी कि मुझे ज़ोर का करंट लगा और मै दूर जाकर गिरी ।कमर में चोट आयी और हाथ पैर भी छिल गए ,क़िस्मत से बच गयी वरना उस दिन तो काम तमाम ही हो गया था और बाद में डाँट पड़ी सो अलग । सारी ज़िंदगी उस शाम का किताब पढ़ना नही भूलेगा ।
मैं घर में अपने छोटे भाई को गणित पढ़ाती थी ,तब ग़ुस्सा भी बहुत करती थी यदि वो सवाल ना समझे तो ।आज भी वो मुझसे मज़ाक़ करता है कि तुम कितनी पीढ़ियों को पढ़ाते हुए ग़ुस्सा करोगी ?मुझे ,अपने बच्चों को तो पढ़ाते समय बहुत ग़ुस्सा कर लिया अब तो शायद अगली पीढ़ी का नम्बर लगेगा । पर उम्र के साथ कितना परिवर्तन आ ही जाता है आदतों में ,धैर्य में ।अब वो तेज़ी ,वो अधैर्य ,वो ग़ुस्सा कहीं ख़त्म सा हो गया ।बस किताबें पढ़ने की आदत अभी भी वही है पर पढ़ाने में धैर्य आ गया ।सच में बड़े इत्मीनान से नयी नयी कहानियाँ गढ़ कर सुनाती हूँ अपने लाड़ले को ।
एक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में मेरी कहानी ,छपी पत्रिका हाथ में आते ही बचपन की पत्रिकाओं की याद आ गयी ।जब मै किशोरावस्था में प्रवेश कर रही थी तब बड़ों की पत्रिकाएँ पढ़ने का शौक़ होने लगा तो माँ की पत्रिकाएँ धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान पढ़ने का इच्छा भी होने लगी और जब पढ़ी तो लगा एक नयी दुनिया के द्वार ही खुल गए ।
फिर तो हम दो बहनो में होड़ लग गयी कि पत्रिका कौन पहले पढ़ेगा ? जिस दिन पत्रिका आने का समय होता था मैं जान बूझकर सुबह से ही बाहर लॉन की सफ़ाई करने लगती कि जैसे ही अख़बार वाला पत्रिका लेकर आएगा मैं लेकर छुपा दूँगी और फिर स्कूल से आकर सबसे पहले मज़े लेकर पढ़ूँगी ।उस नयी पत्रिका के कोरे काग़ज़ की सौंधी सी महक आज भी मुझे याद है । आज भी कोई नयी किताब हाथ में लेती हूँ तो उस वक्त की याद आ जाती है ।भटनागर चाचा जी का तो इसमें बड़ा हाथ है ही ,वो बुलाकर पढ़ने को कॉमिक्स जो देते थे ।वेताल और जादूगर मेंडरेक्स के मज़ेदार क़िस्सों के कॉमिक्स जिनकी याद आज तक है ।
उनके ही घर हर पूर्णिमा को सत्य नारायण की कथा होती थी जिसमें हमें जाना पड़ता था ।माँ शाम के समय व्यस्त होती तो हमें भेज देती । पंडित जी कथा बाँचते रहते और बीच बीच में हमारे आपस में बात करने पर डाँट भी लगाते रहते ।और हम अधीरता से प्रसाद के कसार को ताकते कि कब कथा ख़त्म हो और प्रसाद मिले । केले डाला हुआ भुने आटे का कसार वो भी काग़ज़ के टुकड़े पर रखा हुआ ,उसे खाने का जो मज़ा था वो आज महंगी चोक्लेट और डोनट खाने में भी नहीं ।
कितना स्वर्णिम समय था वो भी ,सीमित साधन ,सरलता कोई दिखावा नही ।हर किसी के पास गिने चुने खिलौने ,पर साथ खेलने को कितने ही संगी जो खिलौनों की ज़रूरत ही महसूस नही होने देते थे ।खिलौनों से तो तब खेलते जब अकेले होते ,यहाँ तो अवसर मिला नही कि बाहर धमाचौकड़ी शुरू ।
आज हमारे नन्हे दुलारे के पास अनगिनत खिलौने है पर साथ खेलने को हमारी तरह अनगिनत दोस्त नहीं है । हम जो बड़े से आँगन में दो पलंग खड़े करके ऊपर से दरी डालकर घर बनाते थे और तपती दोपहर में उसने दोस्तों के साथ बैठकर जो मज़ा करते थे ,वो सुख आज की पीढ़ी को कहाँ मिलेगा ।उनके लिए तो शायद इसकी कल्पना करना भी सम्भव नही होगा । अब हमारे दुलारे को ही लो हमने भी उनके लिए बाज़ार से सुंदर सा बना बनाया टेंट ला कर उसके कमरे में खड़ा कर दिया ।कभी कभी उसके साथ उसमें बैठकर खेलना भी पड़ता है तब गर्मी की दोपहर को अपना बनाया वो घर याद आ जाता है ।अब हमारे दुलारे को क्या पता कि हमारा अपने आप बनाया वो प्यारा सा घर कितना मज़ेदार होता था ।
हमने बचपन के केवल कुछ वर्ष नही जिए बल्कि एक भरपूर ज़िंदगी जी है ।उस उम्र में हमारे लिए तो हर दिन एक त्योहार जैसा होता था और हर मौसम का अपना एक अलग मज़ा होता था । बरसात आयी नहीं कि अलग ही मज़ा शुरू ।बारिश में भागते हुए पानी में छपाके लगाते पूरे मोहल्ले का चक्कर हम बच्चों की टोली लगाती । किसी के भी माँ बाप ऐसा करने से नहीं रोकते थे बल्कि हमारे पापा तो ख़ुद हमें भीगने ले जाते थे ।
हमारे समय में तो ज़ोर से बारिश हुई नहीं की स्कूल बंद और रेनी डे घोषित हो जाता था ।या तो उस दिन स्कूल जाएँगे ही नहीं और अगर चले भी गए तो खूब भीगते वापस आएँगे , वो जो अपने शहर की बारिश में नहाने का मज़ा था वो मज़ा अब अमेरिका की बरसात में ढूँढे भी नहीं मिलता ।हालाँकि अब भी कभी कभी बचपन की स्मृति ताज़ा करने को भीगने का अवसर ढूँढती ज़रूर हूँ ।
और संजू ! वो तो तो कितना पागल था ,बारिश होती तो ज़मीन से केंचुए निकलने लगते । वो जनाब इधर उधर भागते उन केंचुओं को पकड़कर एक कैंची लेकर बैठ जाते और केंचुए काट काट कर ढेर लगा देते थे । और सारे बच्चे मज़े से देखते क्योंकि केंचुए काटने पर भी इधर उधर चलते रहते थे ।और सारे दोस्त हैरान भी होते कि कितनी हिम्मत है संजू में, संजू अपनी दिलेरी दिखा दिखा कर खुश होता रहता पर क्या मजाल बड़ों को पता तो चल जाए उसकी इस हरकत का ।वैसे हो सकता है इस बात पर घर में उसकी पिटाई भी होती हो पर बाक़ी बच्चों को हवा कभी नहीं लगती थी और सबके बीच में उसके निडर होने का दबदबा बना रहता था । क्योंकि एक वही तो था हम सबमें जो ऐसी हरकत कर सकता था ।
आज के संदर्भ में देखें तो माता पिता अपने बच्चों को बारिश में भीगने तक ना जाने दे ,केंचुए काटना तो बहुत दूर की बात ।और मेरा दावा है कि आज संजू ख़ुद भी अपने पोते को ऐसा नहीं करने दे सकता ।
वो वक्त ही शायद कुछ और था । तब तो बच्चे आपस में कोई शरारत कर ले , लड़ भी लें तो क्या मजाल बड़ों तक बात पहुँचे । सब वहीं आपस में निपटा लेते थे ।एक बार किसी बात पर संजू ने मेरे छोटे भाई से शर्त लगाकर उसे इंक ही पिला दी थी ।पर इस बात का पता तक भी बड़ों को नहीं चला । यही तो ख़ासियत थी हमारी सूरनगरी की कि यहाँ एकता और भाईचारा बहुत था ,चाहे वो बच्चों में हो चाहे बड़ों में ।रश्क करते थे आस पास के लेन के लोग ।
उन दिनो जब चुनाव का मौसम आता तो हम बच्चे उसका भी एक अलग ही मज़ा लेते थे ।राजनीति से हमें कोई सरोकार नही था ना ही कुछ जानते थे पर आनंद बड़ा आता था चुनाव के समय ।वो यूँ कि हमारे वर्मा चाचा जी ठहरे कोंग्रेस के भक्त और एक कर्मठ कार्यकर्ता ।वो शाम को सारे बच्चों को इकट्ठा करते और हाथों में छोटे छोटे झंडे देकर बोलते कि नारे लगाकर आओ तो सबको एक एक बिल्ला मिलेगा । बस फिर क्या था बिल्ले के लालच में गला फाड़ फाड़ कर नारे लगा कर आती हमारी वानर टोली ।तब वो दो बैलों की जोड़ी बना बिल्ला हमारे लिए बड़े मायने रखता था और अपनी फ़्रॉक और क़मीज़ पर लगाकर हम बच्चे ख़ुद को बहुत बड़ा समझने लगते थे ।अब भी जब चुनाव के समय पोस्टर आदि लगे देखती हूँ तो वो समय याद आ ही जाता है ।शायद उस समय की प्रेरणा हमारी एक साथी को ऐसी मिली कि वो बड़ी होकर सच में ही एक राजनीतिक पार्टी की कार्यकर्ता बन गयी और चुनाव में खड़ी भी हो गयी ।
तभी कहते है कि बचपन में ही आपकी आगामी ज़िंदगी की सोच कहीं ना कही परिलक्षित होने लगती है ।और वो भावना हमारे साथ साथ चलती है ,अवसर पाते ही कभी ना कभी प्रस्फुटित भी हो ही जाती है ।आज जब पलट कर उन दिनो पर दृष्टि डालती हूँ तो फ़िल्म की तरह सम्पूर्ण बचपन आँखो में जैसे तैर सा जाता है ।
आज के समय में तो लगता है बच्चों का बचपन जैसे छिन सा गया है ,स्कूल में पढ़ाई का दबाव ,माता पिता की तरफ़ से अपेक्षाएँ बढ़ती सी जा रही है ।ऐसा लगता है बेचारे जानते ही नही कि छुट्टियाँ क्या होती है ? क्यूँकि छुट्टियों के लिए भी उनके पास पहले से कई प्रोजेक्ट तैयार रहते है ।
हमारे वक्त में तो स्कूलो में छुट्टियाँ भी बहुत होती थी । दशहरे की दस दिन की छुट्टियों का अलग ही मज़ा था । शहर भर में रामलीला हो रही हो और बच्चों की रामलीला ना हो ये तो हो ही नहीं सकता ।और इनमे अगुआ होता फिर से संजू , पूरी रामलीला का आयोजन उसके कंधो पर ।किसे कौन सा पात्र मिलेगा ,स्टेज कहाँ और कैसे बनेगा ,ये सब वो ही था करता । उसके घर के आँगन में ही बच्चों की रामलीला होती थी । मेले से लाए तीर कमान, तलवार ,गदा सबका भरपूर उपयोग किया जाता । और रामलीला की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका भी ख़ुद ही लेता था राम बनकर । ऐसे में तो वो अपने थोड़े से बड़े भाई रंजू का भी सगा नहीं था। कोई कितना भी कहे पर राम तो संजू ही बनेगा , ऐसे भी ऐक्टिंग करने में वो सबसे अधिक माहिर भी था ,और गला अच्छा पाया था तो सोने में सुहागा हो जाता था ।बेचारे रंजू को हमेशा रावण की भूमिका में ही संतोष करना पड़ता ।बाक़ी बच्चों को संजू छोटी मोटी भूमिका दे कर खुश कर देता था ।हर साल यही होता रहा जब तक हम थोड़े बड़े नहीं हो गए ।
और हमें तो लगता है कि ऐक्टिंग का गुर शायद वो बचपन में यहीं से सीख सीख कर आज बालीवुड तक पहुँच गया ।फ़िल्मों के पोस्टर बनाना और सारे बच्चों को घेरकर फ़िल्मों की कहानियाँ सुनाना उसका ज़बरदस्त शौक़ था बचपन में । उसके इसी शौक़ ने उसे मुंबई की मायानगरी में उलझा दिया पर सुरनगरी के आकर्षण को वो भी नहीं भूल पाया कभी । उस आकर्षण को तो हम सबमें से कोई नहीं भूल पाया ।
अपनी मनमोहक आवाज़ से उसने सबके दिलों को जीत रखा था ।लवी और संजू का शर्मीलापन और विनम्रता उन्हें सारे बच्चों में सबसे अलग कर देती थी सबका दुलारा बना देती थी ।रंजू हम सबका बड़े भाई की तरह ख़याल रखता था ।कभी हम सबने झगड़ा किया हो याद ही नहीं पड़ता । वक्त के थपेड़ों और क़िस्मत ने चाहे हम सबको ना जाने कहाँ कहाँ पटक दिया पर दिल में तो आज भी सुरनगरी ही बसा है ।कितने ही दोस्त बनाए पर वो रिश्ता तो किसी से नहीं बना जो हम सबके बीच था ।
इस उम्र में ये दोहराना सरल नहीं मेरे लिए ,मन बार बार विचलित सा होने लगता है ,पर ये यादें स्मृति पटल पर ऐसी अंकित है कि लगता है फिर से वही ज़िंदगी जी रही हूँ । यादों के भँवर से बाहर निकलने की इच्छा ही नही होती ।फिर एक बार सब दोस्त आकर मेरे आस पास बैठ गए है और धीरे धीरे मन की परतों में दबी यादें बाहर आ रही हैं ,कितने ही क़िस्से शब्दरूप लेने को आतुर से हो रहे है ।
दशहरे पर हमारे शहर में भी जगह जगह रामलीला होती थी ।अब रात में बच्चों को रामलीला दिखाकर लाने की ज़िम्मेदारी भी बड़ों की थी । इस मामले में वर्मा चाचा जी से बढ़कर और कौन हो सकता था ,वो बड़ी ख़ुशी से ज़िम्मेदारी लेते सारे बच्चों की ले लेते राम विवाह दिखाने की ।हम सब एकत्रित होकर पहुँच जाते अपने शहर के सब्ज़िमंडी के चौराहे पर जहाँ कोने पर बने संगम स्टूडीओ की बाल्कनी में सीता जी सज धज कर बैठती अपनी सहेलियों के साथ । लम्बी प्रतीक्षा के बाद बैंड बाजे के साथ राम जी बारात लेकर आते और हाथी पर खड़े हो कर बाल्कनी से सीता जी से जयमाला डलवाते और भारी भीड़ ये दृश्य देखकर गदगद हो जाती थी ,तब
ये दृश्य देखना हमारे लिए तो एक अदभुत स्वप्न जैसा होता था ।
अब भारी भीड़ और हम ठहरे छोटे छोटे बच्चे ,कुछ दिखायी नही देगा तो उसका इंतज़ाम भी वर्मा चाचाजी ही कर देते । अपनी दुकान से बड़ी बड़ी लकड़ी की पेटियाँ बाहर निकल कर रखते और हमें उन पर खड़ा कर देते ।हम अपने को ऊँचे क़द का महसूस करके खुश होते । जयमाला देखने से ज़्यादा आनंद तो उन पेटियों पर खड़ा होने में आता था ।और फिर सब एक दूसरे का हाथ पकड़ कर वापस घर आते और उस मूँगफली का आनंद लेते जो लौटते हुए हमें मिला करती थी । हर साल उस दिन की हमें बेताबी से प्रतीक्षा रहती थी ।
बहुत वर्षों के बाद जब मेरे बेटे की बारात हाथी पर निकली और एक क़िले के ऊँचे झरोखे में बैठी मेरी बहू ने हाथी पर खड़े मेरे बेटे के गले में वरमाला डाली तो मुझे अपने बचपन की रामलीला का वो दृश्य बरबस ही याद आ गया ।
और फिर दशहरे के दिन स्टेडीयम के पास जो मेला लगता था वहाँ से सब बच्चे तलवार, तीर ,कमान ,गदा ,पीपी और जाने क्या क्या लाते । फिर उन सबको सहेजकर रखा जाता । थोड़ा थोड़ा करके शाम को खेलने में निकाले जाते । धनुष से बाण चलाने के अभ्यास में हम ख़ुद को बड़े धुनर्धर योद्धा समझने लगते ।तब कुछ दिन वो खिलौने हमारी ज़िंदगी बन जाते थे ।
आज जब हमारे दुलारे बिना माँगे अनगिनत चीजें पाते है तो लगता है इन्हें बड़े होकर क्या इन खिलौनो की याद भी रहेगी ? क्यूँकि उन्हें तो बिना प्रतीक्षा किए बिना माँगे मिलते है । जबकि हमें लम्बे इंतज़ार के बाद मिलते थे और वो भी गिने चुने और ख़ास अवसरों पर ही।तभी तो हमें अपने बचपन के खिलौने ही नही उनका स्पर्श और उनकी शक्ल सूरत तक याद है ।
दशहरा बीता नहीं कि दीवाली का इंतज़ार शुरू । हम छोटी छोटी ख़ुशियों का इंतज़ार करते थे और उनका आनंद उठाते थे । दीवाली के पटाखे कई दिन पहले बाज़ार से लाए जाते फिर उन्हें धूप में सुखाया जाता ताकि सीलन ना आ जाए और समय पर पटाखे धड़ाम से फूटे ।नए कपड़े पहने दीवाली की पूजा ख़त्म होने का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करते कि कब आरती खतम हो और बाहर लेन में पटाखे चलाने को मिले ।यहाँ भी सबके पटाखे रखे है बाहर जिसका जो मन करे चला लो बस बड़ों की देखरेख में ।
पटाखे ही पटाखे ! हाथ से ज़मीन पर पटक कर चलाने वाले पटाखे , ज़मीन पर टिकिया को जलाकर साँपबनाना ,फुलझड़ी ,चकरी ! उफ़्फ़ कितना मज़ा आता था । फिर जलते हुए अनार और आसमान में जाते रॉकट को दूर से देखना और सोचना हम कब बड़े होंगे और ख़ुद चलाएँगे ऐसे पटाखे ?
फिर अगले दिन सुबह को मिठाई का आदान प्रदान शुरू ।स्टील की प्लेट में खील बताशे,फ़ल और मिठाई रखकर माँ क्रोशिये के रूमाल से ढक देतीं और हम बड़े गर्व से सबके घर देकर आते ।ऐसे ही सबके घरों से हमारे यहाँ मिठाई आती थी ।कितनी सरलता थी तब ,ना कोई महंगे गिफ़्ट ना महंगी मिठाई ।बस घर का बना हुआ और बेहद प्यार से भेजा हुआ उपहार होता था वो ।
दीपा के पापा कई वर्ष बनारस रहे वहाँ से दीवाली पर घर आते हुए वे मूँग दाल के हरे हरे लड्डू काग़ज़ में सलीके से लिपटे हुए लाते थे ।उन लडुओं का स्वाद बचपन से ऐसा मन बसा कि आज तक हर दीवाली पर वो लड्डू बनाती हूँ और बचपन को याद करती हूँ । माँ भी घर में बेसन के मज़ेदार लड्डू , नारियल और खोए की बर्फ़ी बनाती थी तो मैंने भी वो परम्परा नही छोड़ी । कितना भी काम हो दीवाली के समय पर मिठाई घर में ही बनाती हूँ ।
हमारे बचपन में साल में तीन बार वो बेसन के लड्डू ज़रूर बनते थे , होली दीवाली और हमारी परीक्षा के समय मार्च में , क्यूँकि तब हमें पढ़ते हुए भूख बहुत लगती थी । कभी कभी माँ बेहद स्वाद चूरमा के लड्डू भी बनाती थी । यही कारण है कि हम बहनो को आज भी घर में मिठाई बनाना बेहद पसंद है ।
सबके घरों से हमने कुछ ना कुछ सीखा अवश्य चाहे वो अलग अलग प्रकार के खाने हो या घर का कोई काम ,ये हमारा बड़ा सा परिवार हमारे लिए शिक्षा के मंदिर जैसा था ।