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फ़ैसला - उपन्यास
Rajesh Shukla
द्वारा
हिंदी महिला विशेष
जून का महीना। उफ! ऊपर से ये गरमी। रात हो या दिन दोनों में उमस जो कम होने का नाम नहीं ले रही थी। दिन की चिलचिलाती धूप की तपिस से रात को घर की दीवारें चूल्हें पर रखे हुए तवे की तरह मानों अपनी गरमी उगल रही हों। ऐसे में रात को 12 बजे भी नींद आने का नाम नहीं ले रही थी। पंखे ओर कूलर तो जैसे हवा की जगह आग उगल रहे हों। ऐसे में आंखों में नींद आने का नाम नहीं ले रही थी। उसने अपनी टेबल लैम्प का स्विच ऑफ किया और चेयर को पीछे को धकेल कर बालकनी पर आकर चहल-कदमी करने लगा।
जून का महीना। उफ! ऊपर से ये गरमी। रात हो या दिन दोनों में उमस जो कम होने का नाम नहीं ले रही थी। दिन की चिलचिलाती धूप की तपिस से रात को घर की दीवारें चूल्हें पर रखे ...और पढ़ेतवे की तरह मानों अपनी गरमी उगल रही हों। ऐसे में रात को 12 बजे भी नींद आने का नाम नहीं ले रही थी। पंखे ओर कूलर तो जैसे हवा की जगह आग उगल रहे हों। ऐसे में आंखों में नींद आने का नाम नहीं ले रही थी। उसने अपनी टेबल लैम्प का स्विच ऑफ किया और चेयर को पीछे को धकेल कर बालकनी पर आकर चहल-कदमी करने लगा।
डाक्टर साहब के नौकर ने दौड़कर गेट खोला और कार ने उनके घर में प्रवेश किया। कार का दरवाजा खोलकर सिद्धेश ने नीचे उतरते ही नौकर से पूछने लगा।
अरे! डाक्टर साहब अन्दर हैं।
हां साहब। साहब अन्दर ही है। ऐसा ...और पढ़ेने जवाब दिया।
फिर क्या था वह हमेशा की तरह धड़धड़ाते हुए ड्राइंग रूप में दाखि हो गया। बैग सोफे के सामने रखी मेज पर रख कर खुद सोफे पर बैठ गया। तभी कुछ देर में पानी का गिलास ट्रे में लिए नौकर आया। उसने वह ट्रे मेज पर रख दी और किचन की ओर चला गया। उसी समय अन्दर कमरे से डाक्टर केडी अपने बालों को तौलिए से सुखाते हुए ड्रांइग रूम में आ गये। वे अभी कुछ देर पहले ही स्नान कर चुके थे। अन्दर आते ही डाक्टर केडी मज़ाक के अंदाज में बोले -
उसके बाद तो उन घर की चाभियों ने तो मेरी जिन्दगी ही बदल दी। अब मैं बेटी से बहू बनने के इस दौर से गुजर रही थी। जहां पर स्त्री को मानसिक और शारीरिक अनेकों झंझावतों का सामना करना ...और पढ़ेहै। लेकिन इन सबके बाद भी अपने परिवार और कुल की परम्पराओं और जिम्मेदारियों को पूरी ईमानदारी के साथ निभाना पड़ता है। फिर तो शादी के बाद मैं मात्र एकबार अपने अम्मा-पिताजी के घर गांव जा पायी। अम्मा भी मेरी जिम्मेदारियों को समझते हुए मुझे गावं बुलाने की जिद नहीं करती थीं। उनको पता था कि मेरी बेटी ससुराल में अकेली है इस लिए उसका रहना वहां अधिक जरूरी है। अगर सास या ननद होती तो बात ही और होती। जिम्मेदारियां थोड़ी-बहुत तो बंट ही जातीं। यही सब सोचकर मां ने भी समय से समझौता कर लिया था। मेरी क्या? मैं तो अब ससुराल की होकर रह गयी। लेकिन मेरा मन अब पति और ससुरजी की सेवा तथा घर के कामकाज में रमने लगा था। मेरी तो बस ससुराल ही दुनिया थी।
आज अभय ने मेरी बात को घुमाया नहीं बल्कि सच बताने की कोशिश कर रहा था। क्योंकि इस समय वह शराब के नशे में था और जहां तक मैंने सुना कि आदमी शराब के नशे में सच बोलता है। ...और पढ़ेबताया कि कुछ महीने पहले एक आदमी से मेरी मुलाकात हुई, यह छोटी सी मुलाकात धीरे-धीरे मित्रता में दबल गयी। वह बहुत बड़ा आदमी है उसके दो-दो गैराज चजते हैं। उसका नाम मयंक सिंह है। उसका एक गैराज तो सीतापुर रोड पर ही है। धीरे-धीरे मेरी दुकान से आटो पार्ट मंगाना शुरू किया और आज उसी के कारण रोज अच्छी खासी बिक्री हो जाती है, उसी के द्वारा और कई गैराजों में आटो पार्ट की सप्लाई मैंने शुरू कर दी है तभी तो मैं अपनी दूसरी दुकान भी खोलने जा रहा हूँ। वह अक्सर शाम को मेरी दुकान पर आ जाता है। वहीं दुकान के बाहर बैठक भी जम जाती है, फिर पीने -पिलाने का दौर शुरू होता है।
सुगन्धा ने अपने का सिद्धेश की बांहों से छुड़ाते हुए कहा कि इस तरह का जीवन जीते हुए लगभग मुझे दो महीने बीत ही रहे थी कि एक दिन उसी अभय ने निर्लज्जता और नीचता की सारी हदें पर ...और पढ़ेदीं। वह शाम को लगभग 8 बजे अपने उसी दोस्त मयंक के साथ शराब की बोतलें लिए हुए घर आया। उन दोनों के साथ में एक लड़की भी थी। वह सभी आकर बरामदे में रखी चेयरों पर बैठ गये। फिर क्या था! अभय ने मुझ पर आर्डर जमाना शुरू किया। मैं भी पानी, गिलास और प्लेंटे किचन से उठाकार उन लोगों के सामने रखी मेज पर रख दिया।