कुरुक्षेत्र की पहली सुबह

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(महाभारत युद्ध के प्रथम दिवस के युद्ध पूर्व की घटनाओं का चित्रण और भगवान श्री कृष्ण तथा अर्जुन के बीच गीता के उपदेश का कथा रूप में रूपांतरण) (भगवान कृष्ण, भगवान विष्णु के पूर्ण अवतार हैं। वे महामानव भी हैं। प्रस्तुत कथा भारतीय इतिहास के महाभारत काल की है, जब कौरवों और पांडवों की विशाल सेना के बीच कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध शुरु होने वाला था। इससे ठीक पूर्व युद्ध की तैयारी के कुछ घंटों की घटनाओं को मेरी कल्पना दृष्टि से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। इसके बाद भगवान श्री कृष्ण और वीर अर्जुन के मध्य संवाद प्रारंभ होता है। महायोद्धा अर्जुन के निवेदन पर भगवान श्री कृष्ण रथ को दोनों सेनाओं के मध्य भाग में खड़ा करते हैं। इस अवसर पर भगवान भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश श्रीमद्भागवतगीता में संकलित है। इसमें भगवान श्री कृष्ण की वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवनपथ पर अर्जुन के मोह और उनके मन में उठने वाली शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया। श्री कृष्ण की वाणी केवल कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में ही नहीं बल्कि आज के युग मे मनुष्यों के सम्मुख जीवन पथ में उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में पूर्णतया सक्षम है। श्री कृष्ण की वाणी के पूर्ण होते ही महायोद्धा अर्जुन ने अपना गांडीव धनुष फिर से उठा लिया और युद्ध के लिए प्रस्तुत हो गए। यह धारावाहिक कथा अपने आराध्य श्री कृष्ण के प्रेरक व्यक्तित्व और उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का कल्पना और भावों से युक्त एक लेखकीय प्रयत्नमात्र है, इसे पढ़िएगा अवश्य...)

Full Novel

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 1

(50 भागों में) (महाभारत युद्ध के प्रथम दिवस के युद्ध पूर्व की घटनाओं का चित्रण और भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के बीच गीता के उपदेश का कथा रूप में रूपांतरण) (भगवान कृष्ण, भगवान विष्णु के पूर्ण अवतार हैं। वे महामानव भी हैं। प्रस्तुत कथा भारतीय इतिहास के महाभारत काल की है, जब कौरवों और पांडवों की विशाल सेना के बीच कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध शुरु होने वाला था। इससे ठीक पूर्व युद्ध की तैयारी के कुछ घंटों की घटनाओं को मेरी कल्पना दृष्टि से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। इसके बाद भगवान श्री कृष्ण और वीर ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 2

(2) मन की दुविधा भगवान कृष्ण तीव्र गति से रथ को चलाते हुए उसे मुख्य युद्ध क्षेत्र की ओर बढ़ाते हैं। कौरव सेना का नेतृत्व इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त पितामह भीष्म कर रहे थे। भीमसेन के नेतृत्व में पहला दल पहले ही रवाना हो चुका है जिसमें द्रोपदी के पुत्र, साथ ही अभिमन्यु, नकुल, सहदेव और अन्य वीर हैं। मध्य वाले दल में पांडव सेनापति धृष्टद्युम्न, महाराज विराट, जयत्सेन, पांचाल राजकुमार युधामन्यु और उत्तमौजा थे। इसके ठीक पीछे मध्य भाग में ही श्री कृष्ण और अर्जुन का रथ था। अपार सैन्य समुद्र के बीच में स्वयं राजा युधिष्ठिर ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 3

(3) आनंद है वर्तमान समय जैसे ठहर सा गया है। श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन से वार्तालाप शुरू होते ही और पांडवों की विशाल सेना योग निद्रा के अधीन हो गई। सभी अचंभित और जड़वत हैं। अपनी दूरदृष्टि से महाराज धृतराष्ट्र को यह गाथा सुनाते हुए संजय भी कुछ देर के लिए ठिठक जाते हैं। थोड़ी ही देर बाद वे कुरुक्षेत्र के मैदान में घट रही घटनाओं का पुनः सजीव वर्णन प्रस्तुत करते हैं। अर्जुन सोचने लगे कि वासुदेव ठीक कहते हैं। अगर मैं स्वरूप का पूर्ण ज्ञान नहीं रखने के कारण आत्मा को मरा हुआ मानता हूं, तब भी ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 4

(4) रे मन तू काहे न धीर धरे श्री कृष्ण:विजय रूपी फल में तुम्हारा अधिकार नहीं है। तुम्हारा लक्ष्य में सर्वश्रेष्ठ प्रयत्न होना चाहिए, विजय नहीं। इसलिए तुम फल के लक्ष्य को ध्यान में रखकर यह युद्ध मत लड़ो और फल नहीं चाहिए यह सोचकर युद्ध से हटने की सोचो मत। श्री कृष्ण ने घोषित कर दिया कि अर्जुन का अधिकार केवल कर्म में है। फल में नहीं। अर्जुन ने शंका जाहिर की, "कर्म करते समय लक्ष्य का तो ध्यान रहे, लेकिन फल की आशा न रखें। हमें उस कर्म से भी लगाव न हो जाए, जो हम करने ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 5

(5) रमता मन अपनी मंत्रमुग्ध कर देने वाली वाणी में श्री कृष्ण स्थिर बुद्धि के लक्षण को स्पष्ट करते आगे एक उदाहरण दे रहे हैं:- "जिस तरह कछुआ सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है उसी तरह से स्थिर बुद्धि मनुष्य भी इंद्रियों के विषयों से अपने मन को सभी प्रकार से हटा लेता है। " अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा, "ऐसा करने का मुझे अभ्यास है भगवन! लेकिन मन है कि विषयों से ध्यान हटा लेने के बाद भी कभी-कभी उन्हीं विषयों का चिंतन करने लगता है। " श्री कृष्ण, "ऐसा स्वाभाविक ही है अर्जुन! ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 7

(7) सारा संसार घर मेरा यज्ञ के स्वरूप की अवधारणा स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण यज्ञ की गतिविधियों पूरी समष्टि से जोड़ रहे थे। आखिर पृथ्वी पर मनुष्य एक दूसरे से संबंधित हैं और कोई एक मनुष्य पृथक तथा एकाकी नहीं रह सकता है। श्री कृष्ण ने कहा, "अर्जुन!मनुष्य यज्ञों द्वारा देवताओं को उन्नत करें और वे देवतागण मनुष्यों की उन्नति करें। " अर्जुन सोचने लगे। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश पंचमहाभूत हैं। सूर्य और चंद्र भी सृष्टि के जीवंत देव हैं। धरती के लिए वर्षा और शीत आवश्यक है तो धूप भी उतनी ही जरूरी है। ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 6

(6) जीने का आनंद अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा, "आपके द्वारा बताए गए इस मार्ग में समत्वरूप और निश्चयात्मक की प्रधानता है और अगर यही आवश्यक है तो आपने मुझे प्रारंभ में कर्म की महत्ता बताकर कर्म करने के लिए प्रेरित क्यों किया था? कृपया एक निश्चित बात कहिए जिससे मेरा कल्याण हो। " भगवान श्रीकृष्ण ने समझाया, "कोई एक मार्ग सत्य नहीं है अर्जुन। एक मार्ग पर चलते हुए भी हम अन्य विधियों का सायास या अनायास उपयोग करते जाते हैं। अपने पवित्र लक्ष्य को बनाए रखते हुए परिस्थिति के अनुसार एक से अधिक मार्गों को भी अपनाना ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 8

(8)स्पंदन जीवन का श्री कृष्ण ने काम के आवरण को विवेक बुद्धि के हर लेने का प्रमुख कारण बताया। पर अर्जुन ने पूछा: - अर्जुन: इसका समाधान क्या है प्रभु? श्री कृष्ण: "मन में संतोष स्वभाव और बुद्धि के द्वारा काम के आवरण को छिन्न-भिन्न करते हुए मन को अपने नियंत्रण में रखना। " आगे श्री कृष्ण की इस बात पर अर्जुन आश्चर्य से भर उठे, जब उन्होंने कहा, " मैंने यह तत्वज्ञान रूपी योग सबसे पहले विवस्वान सूर्य(कश्यप ऋषि के पुत्र) से कहा था। विवस्वान सूर्य ने इसे अपने पुत्र मनु को बताया और मनु ने अपने पुत्र ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 9

9: पहचानो खुद को अर्जुन ने जिज्ञासा प्रकट की, "तो प्रभु इसका अर्थ यह है कि संसार में कर्ता आप हैं, सांसारिक मनुष्य नहीं। " श्री कृष्ण ने कहा, "मैं सृष्टि रचना के कार्य का कर्ता हूं और मैंने मनुष्यों के गुणों और कर्मों(न कि जन्म)के आधार पर कार्य करने वालों की चार श्रेणियां(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र)भी बनाई हैं, फिर भी तुम मुझे अकर्ता ही मानो। " अर्जुन, "ऐसा क्यों प्रभु?" श्री कृष्ण, "ताकि मनुष्य कर्म करें और सब पर मेरी समान कृपा के बाद भी उस कृपा का अधिक से अधिक उपयोग कल्याण के लिए करे और ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 10

(10) साधना का सम्मोहन भगवान श्री कृष्ण और जिज्ञासु अर्जुन की चर्चा जारी है। अर्जुन उनसे प्रश्न पूछते हैं, केशव!प्रत्येक कार्य मनुष्य के द्वारा संपन्न होते हैं और अपने- अपने विवेक से सभी लोग कार्य करते हैं। फिर परिणामों में अंतर कहां है? कुछ लोग अपनी इच्छा के अनुसार फल प्राप्त कर लेने के बाद भी संतुष्ट नहीं रहते हैं। " श्रीकृष्ण ने समझाया, " वास्तव में उनकी इच्छा सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करने को लेकर होती है, जो लगातार एक वस्तु को प्राप्त कर लेने के बाद बढ़ती ही रहती है। ऐसे में स्वयं पर नियंत्रण प्राप्त करना ...और पढ़े

11

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 11

11: साधना और प्रेम का संतुलन अर्जुन ने कहा, " जब सब कुछ योगमय है। तो अनेक योगी साधना पथ पर असफल क्यों दिखाई देते हैं?" श्री कृष्ण, "मैंने संसार से अध्यात्म के मार्ग पर चलने की बात की। उसी तरह अध्यात्म के पथ पर चल रहे व्यक्तियों के मन में अगर सिद्धियों की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य रह जाए तो यह भी एक खतरनाक स्थिति है। अगर ईश्वर से कामना रहित भक्ति न रखी जाए तो यह भी सांसारिक कामनाओं के समान ही दोष युक्त है। " अर्जुन, "मैं समझ गया प्रभु! एक संन्यासी में त्याग ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 12

12:आनंद का सूत्र अर्जुन के कानों में श्रीकृष्ण द्वारा कहे गए ये वाक्य अभी भी गूंज रहे हैं:"जो मनुष्य की स्थिति) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगी के लिए कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्य का शम (शान्ति) परमात्म की प्राप्ति में साधन बन जाता है। " अर्जुन ने जिज्ञासा प्रकट की, "साधक के लिए इस बात का निश्चय कैसे हो कि ठीक मार्ग सीधे योग का है या सांसारिक साधने में प्रवृत्त होते हुए किसी एक बिंदु पर आनंद अवस्था प्राप्त कर लेना है। साधना और व्यवहार का मार्ग इस तरह का ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 13

13: जग जीतें कि स्वयं को हस्तिनापुर की राजनीति सदैव से जटिल रही है जहां कौरव और पांडव हमेशा और शीत युद्ध की स्थिति में रहे हैं। एक ओर कौरवों के साथ सत्तारूढ़ महाराज धृतराष्ट्र और उनके प्रमुख सभासदों के रूप में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण हैं तो दूसरी ओर पांडव वन- वन भटकने वाले साधनहीन समूह के रूप में अपना कर्म कर रहे हैं। पांडवों ने स्वयं अपने जीने का मार्ग ढूंढा और कुरुक्षेत्र का युद्ध निर्धारित होने से पूर्व वासुदेव कृष्ण से उन्होंने सीधे सैन्य या भौतिक सहायता कभी नहीं ली। अर्जुन सोचने लगे। वास्तव में ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 14

14: अपनों से प्रेम अर्जुन के सामने भगवान श्री कृष्ण हैं। अखिल ब्रह्मांड महानायक। अर्जुन के आराध्य सखा सब भगवान कृष्ण अनेक तरह से अर्जुन को समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। अभी थोड़ी देर पहले श्री कृष्ण ने कहा था। सर्दी-गर्मी, सुख-दुख, मान- अपमान इन दोनों में भी हमारे अंतःकरण की वृत्ति को शांत होना चाहिए। अर्जुन ने सोचा। सर्दी और गर्मी अगर संतुलित मात्रा में हो तब तो ठीक है। अगर अत्यधिक सर्दी पड़े और भीषण लू के थपेड़े झेलने पड़े तो ऐसी स्थिति में अंतःकरण की वृत्ति कैसे शांत होगी? जब श्री कृष्ण ने कहा कि ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 15

15: प्रेम की साधना अर्जुन ने पूछा, "हे जनार्दन! हमारे प्रति अकारण द्वेष और शत्रुता भाव रखने वाले व्यक्ति प्रति भी समान भावना हमारे मन में कैसे आएगी? वह भी वही सम्मान भावना जो एक परोपकारी व्यक्ति को देख कर स्वतः ही हमारे मन में उमड़ पड़ती है। " श्री कृष्ण ने कहा, "समान भाव का तात्पर्य यह है कि हम अपना अहित करने वालों के प्रति मन में कोई घृणा या कड़वाहट की भावना न रखें बल्कि उसके कार्यों के गुण दोषों के आधार पर उससे वैसा ही व्यवहार करें। " आश्चर्य व्यक्त करते हुए अर्जुन ने पूछा, ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 16

16:पा लें सामर्थ्य योगी एकांत में अपनी आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाने का अभ्यास करता है। अर्जुन ने कृष्ण से योग और ध्यान के लिए आसन लगाने की पद्धति के बारे में पूछा। श्री कृष्ण: आसन शुद्ध भूमि में होना चाहिए। इसके ऊपर कुशा, मृगछाला और साफ वस्त्र बिछा होना चाहिए। अर्जुन: अवश्य भगवन! भूमि अस्वच्छ न हो बल्कि यह साफ हो; इससे लाभ यह होगा कि साधना के प्रारंभ होने के समय ध्यान लगाने में सुविधा होगी। अर्जुन सोचने लगे। कुशा या चटाई तापमान रोधक का कार्य करती है और योगासन के समय हमारे द्वारा प्राप्त की ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 17

17: आनंद का मापन श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, "अवश्य! यह शरीर ही तो वह साधन है जिसके माध्यम आत्म कल्याण के लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है….. यह योग उचित आहार-विहार करने वाले लोगों के लिए है…. यह योग संतुलित होकर कर्म करने वालों के लिए है….. इस योग में वह शक्ति है कि मनुष्य को दुखों से छुटकारा दिला दे। " पांडव राजकुमार होने के नाते अर्जुन ने हस्तिनापुर आने वाले अनेक ऋषियों से योग की शक्ति का अनुभव किया था। स्वयं गुरु द्रोणाचार्य से पांडवों का परिचय एक कुएं में पड़ी गेंद को अपनी धनुर्विद्या से ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 19

19.पाएं चिर आनंद आनंद की अनुभूति कभी-कभी ही होती है अर्जुन उसे स्थाई बनाने का उपाय पूछते हैं। श्री जिन उपायों और मार्गों पर प्रकाश डालते हैं, वे आनंद के उसी महास्रोत की ओर संकेत करते हैं। योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है। उस अवस्था में चित्त परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है। भगवान कृष्ण की दिव्य वाणी को सुनकर अर्जुन चमत्कृत हैं। ईश्वर तत्व को जानने और अनुभूत करने की अवस्था….. और यह अवस्था प्राप्त करने ...और पढ़े

19

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 18

18: आनंद का समंदर अर्जुन श्री कृष्ण की वाणी को समझने का प्रयत्न करने लगे। अर्जुन: इसका अर्थ यह कि साधना की उच्चतम अवस्था को प्राप्त करने के बाद भी लोग पतित हो सकते हैं, विचलित हो सकते हैं और अपने मार्ग से भटक सकते हैं। श्री कृष्ण: हां अर्जुन!वह ध्यान अवस्था मनुष्य के हृदय को परमात्मा की प्राप्ति का आनंद उपलब्ध करा देती है लेकिन अगर मनुष्य पुनः सांसारिक मोहमाया, प्रलोभनों और आसक्ति की ओर आकृष्ट हो गया तो वह "जैसे थे" की पूर्व अवस्था में भी पहुंच सकता है। ध्यान की इतनी बड़ी सफलता को प्राप्त करने ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 20

20.साथ तेरा जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य है, उस सुख का ध्यान योगी जिस अवस्था में अनुभव करता वह उस सुख में स्थित हुआ फिर कभी तत्त्व(बोध)से विचलित नहीं होता। भगवान श्री कृष्ण द्वारा महा आनंद के तत्व की विवेचना से अर्जुन का मन भावविभोर हो उठा। वे सोचने लगे, कितना अच्छा हो अगर मनुष्य हर घड़ी उस परमात्मा तत्व के आनंद में डूबा रहे। ध्यानमग्न रहे। श्री कृष्ण तो यह भी कहते हैं कि हमें अपना कर्म करते समय अर्थात अन्य कामकाज का संचालन करते हुए भी उस महा आनंद के बोध की अपने भीतर अनुभूति होती ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 21

21.दुखों को दूर ही रखने का उपाय जिस (परमात्मा तत्व के)लाभ की प्राप्ति होने पर उससे अधिक कोई दूसरा उसकी दृष्टि में नहीं आता और जिसमें स्थित होने पर वह बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं किया जा सकता है। भगवान कृष्ण के इस कथन के बाद अर्जुन सोचने लगे - जब ईश्वर सदा हमारे साथ हैं और उनसे अलग होने में ही सबसे बड़ी हानि है, तब अन्य चीजों की हानि को लेकर दुख क्यों? जब उस परम आनंद को प्राप्त कर लेने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं है अर्थात जब साथ कुछ है ही ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 22

22. तू हर जगह यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के माध्यम से संसार विचरता है, उस-उस विषय से रोककर अर्थात हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही लगाएँ। अर्जुन ने पूछा: हे प्रभु! आप बार-बार आत्मा और परमात्मा की बात करते हैं। क्या संसार में केवल अपनी आत्मा और परमात्मा का ही सीधा संबंध है?ऐसे में अन्य चराचर प्राणियों की क्या स्थिति है? भगवान श्री कृष्ण ने कहा: परमात्मा तत्व की यही तो सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है कि परमात्मा एक के जितने हैं, उतने ही दूसरे के भी हैं और उतने ही सबके हैं। ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 23

23.सबमें तू सब जगह अपने स्वरूपको देखने वाला योग से युक्त आत्मा वाला और ध्यान योगसे युक्त अन्तःकरण वाला अपने स्वरूप को सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है। साथ ही वह सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूप में देखता है। एक उदारवादी पांडव राजकुमार होने के बाद भी अर्जुन के मन में हमेशा यह बात रहती थी कि संसार के प्रत्येक प्राणी से एक समान व्यवहार नहीं किया जा सकता है। दुर्योधन के नेतृत्व में कौरव पक्ष से मिले गहरे घावों के कारण अर्जुन की यह मान्यता दृढ़ होती जाती थी। वही जब भगवान श्री कृष्ण ने परमात्मा तत्व की सर्वव्यापकता ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 24

24.मेरे जैसे ही तुम मुझमें एकीभाव से स्थित हुआ जो योगी सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित मेरा ध्यान और स्मरण है, वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मुझ में ही बर्ताव कर रहा होता है। भगवान कृष्ण के ये वचन अर्जुन के लिए अमूल्य हैं। एक तरफ श्री कृष्ण शांति दूत बनकर हस्तिनापुर जाते हैं और युद्ध रोकने का प्रयास आखिरी क्षण तक भी करते हैं तो दूसरी ओर युद्ध के अंतिम रूप से निर्धारित हो जाने के बाद उसमें विजय के लिए पांडवों की ओर से निहत्थे शामिल हो जाने वाले कृष्ण हैं, जिनका पूरा समर्थन और आशीर्वाद ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 25

25.अभ्यास का आनंद श्री कृष्ण: हे महाबाहु अर्जुन यह सच है कि मन बड़ा चंचल है और कठिनाई से वश में होने वाला है परंतु इसे नियंत्रण में करने का उपाय भी है। अर्जुन: वह क्या है प्रभु? श्री कृष्ण: यह मन अभ्यास और वैराग्यभाव से वश में होता है अर्जुन! मन को साधने का अभ्यास आवश्यक है जिस तरह तुमने धनुर्विद्या सीखी है। याद करो जब तुम ने पहली बार धनुष उठाया था तो एक बालक ही थे। अर्जुन:जी भगवान! श्री कृष्ण: क्या पहली बार में ही तुमने धनुष से अचूक बाण छोड़े थे अर्जुन? अर्जुन: नहीं प्रभु ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 26

26.सौदा लाभ का आत्म के उद्धार के लिए अर्थात भगवान की प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। अर्जुन ने फिर जिज्ञासा प्रकट की। अर्जुन: इसका यह अर्थ हुआ केशव कि योग मार्ग में आगे बढ़कर भ्रष्ट हो जाने वाले व्यक्ति की दुर्गति नहीं होती। क्या ऐसा व्यक्ति इस जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर ईश्वर की कृपा का अधिकारी बन जाता है? श्री कृष्ण: ऐसे व्यक्ति अपने पूर्व संचित अच्छे कर्मों के साथ आगे तो बढ़ते हैं लेकिन ईश्वर प्राप्ति की पात्रता से दूर होने के कारण वे या तो कुछ ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 27

27.आकर्षण प्रेम का उस जन्म के पूर्व पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि संयोग को अर्थात समबुद्धि रूप के संस्कारों को मनुष्य अनायास ही प्राप्त कर लेता है। मानव जन्म श्रेष्ठ और दुर्लभ है इसमें हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति का प्रयास कर सकते हैं और पूर्व संचित संस्कारों और पुण्य कार्यों के प्रभाव को इस जन्म में भी प्राप्त कर सकते हैं। पांडव कुमारों को श्रेष्ठ मानव मूल्यों पर चलने की शिक्षा मिली है। जनता के सुख- दुख में हमेशा उनके साथ खड़े रहने वाले पांडव कुमार इसीलिए लोकप्रिय भी हैं। भगवान कृष्ण ने वर्तमान मानव देह में ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 28

28.विशिष्ट व्यक्ति में होती है व्यग्रता हजारों मनुष्यों में कोई एक वास्तविक सिद्धि के लिए यत्न करता है और यत्न करने वाले साधकों में से कोई एक ही मुझे तत्त्व से जानता है। अर्जुन ने हाथ जोड़कर कहा- हे प्रभु!आप स्वयं सभी तरह की कलाओं, ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, साहित्य, मीमांसा, योग- वैराग्य, ज्ञान -भक्ति आदि सभी के स्रोत हैं। हम साधक लोग आप को जितना जान पाते हैं, वह इस धरती पर प्रकट होने वाली आपकी लीलाओं के माध्यम से ही है। वह भी आपकी प्रकृति का केवल एक ही अंश है केशव। मुझे आपके स्वरूप को संपूर्ण तत्व के ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 29

29.जल ही जीवन है श्री कृष्ण द्वारा ईश्वर के रूप में समस्त कारण कार्यों का मूल स्वयं को निरूपित के बाद अर्जुन ईश्वर के स्वरूप को विस्तार से जानना चाहते थे। इस मार्ग से अर्जुन सांसारिक आकर्षणों से विरत होकर उस महा आनंद में डूब सकते थे, जो ईश्वर के अभिमुख होने पर ही प्राप्त होता है। उन्होंने श्रीकृष्ण से ईश्वर की विशेषताओं का वर्णन करने की प्रार्थना की। जब एक रेखा अर्थात आकर्षण की रेखा को महत्वहीन करना है तो उससे कहीं बड़ी रेखा अर्थात ईश्वर के मार्ग की रेखा खींचनी होगी, इसलिए उस बड़ी रेखा के संपूर्ण ...और पढ़े

30

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 30

30: शब्दों का सर्जना लोक भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा, "मैं चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूं तथा वेदों में ओंकार हूं। " अर्जुन ने कहा, "आप स्वयं प्रकाश हैं प्रभु! अगर सूर्य सौरमंडल के आकाशीय पिंडों को प्रकाश प्रदान करता है तो सूर्य के भीतर जो प्रकाश का अक्षय, अनंत स्रोत है, वह आप ही हैं। ब्रह्मांड से पंचमहाभूत की उत्पत्ति आप सर्वशक्तिमान ईश्वर की चेतना का ही विस्तार है। " अर्जुन ओम के महत्व से परिचित हैं। गुरु आश्रम में गुरुदेव ने राजकुमारों को ओम के महत्व के बारे में जानकारी दी थी। अगर ब्रह्मांड की ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 31

31.आप मुझमें, जैसे देह में प्राण श्री कृष्ण कह रहे हैं, "मैं पृथ्वी में गंध हूं। " अर्जुन विचार लगे। वासुदेव कृष्ण पंच तन्मात्राओं में से एक गंध और संबंधित पंचतत्व भूमि की चर्चा कर रहे हैं। धरती स्वयं में औषधि तुल्य है। धरती माता है। यह मनुष्य का पालन पोषण करती है। बचपन में आचार्य हस्तिनापुर के राजकुमारों को भूमि की विशेषताओं के बारे में बताया करते थे। आचार्य: माता भूमि है और हम इसकी संतान हैं। अर्जुन: ऐसा कैसे संभव है आचार्य क्योंकि हम राजकुमारों ने तो अपनी माताओं से जन्म लिया है। माता हमें गोद में ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 32

32.सामर्थ्य की लक्ष्मण रेखा अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा, इस महाभारत के युद्ध में एक से बढ़कर एक योद्धागण एकत्र हुए हैं। हे प्रभु आप इन बलवानों में किस रूप में विद्यमान हैं? श्री कृष्ण ने अर्जुन के रथ की ध्वजा की ओर संकेत करते हुए कहा, "मैं बलवानों का सामर्थ्य हूं अर्जुन! सामर्थ्य भी ऐसा जिसमें किसी वस्तु को लेकर आसक्ति न हो और जो कामनाओं से रहित हो। अपने रथ की ध्वजा देख रहे हो अर्जुन! राम भक्त हनुमान स्वयं तुम्हारे रथ की ध्वजा पर विराजमान हैं। जहां राम वहां राम भक्त हनुमान। हनुमान सामर्थ्य के ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 33

33.आनंद से भी परे है वह महाआनंद श्री कृष्ण ने अर्जुन को कामनाओं पर नियंत्रण का उपाय बताया है, में संतोष स्वभाव और बुद्धि के द्वारा काम के आवरण को छिन्न-भिन्न करते हुए मन को अपने नियंत्रण में रखना आवश्यक है अर्जुन। " अर्जुन विचार करने लगे कि अनेक बार वे अकारण उद्विग्न हो उठते हैं। श्री कृष्ण बार-बार प्रकृति के तीन गुणों और मानव के इनसे प्रभावित होने की चर्चा कर रहे हैं। प्रकृति में तीन गुण सत्व, रजस और तमस हैं। श्री कृष्ण ने मनुष्य के संपूर्ण कार्यों को इन तीनों गुणों से प्रभावित बताया है। सृष्टि ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 34

34.ज्ञानी होता है ईश्वर का रूप प्रकृति के 3 गुणों की विवेचना के बाद भगवान श्री कृष्ण ने भक्तों भी चार श्रेणियां बताई। पहली श्रेणी में वे लोग हैं जो धर्म और सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करने के लिए ईश्वर की आराधना करते हैं। दूसरे लोग वे हैं जो भगवान को केवल संकट के समय याद करते हैं और पुकारते हैं। तीसरे ईश्वर के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा और कौतूहल के कारण ईश्वर की आराधना करते हैं। चौथी श्रेणी के वे भक्त हैं जो ज्ञानी हैं। इस श्रेणी के भक्त मुझे अत्यंत प्रिय हैं। ऐसा ज्ञानी व्यक्ति साक्षात ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 35

35.तुमसे है ये सब यह मथुरा नरेश कंस और हस्तिनापुर के युवराज दुर्योधन दोनों का दुर्भाग्य था कि वे श्री कृष्ण को साधारण मनुष्य ही समझते रहे। श्री कृष्ण की बाल लीलाओं से लेकर गोवर्धन पर्वत उठाने तक की गाथाएं जनमानस में प्रचलित हो चुकी थीं, फिर भी दुर्योधन श्री कृष्ण को साधारण मनुष्य और अधिक से अधिक मायावी ही समझता रहा। कंस भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं था कि उसकी मृत्यु श्रीकृष्ण के रूप में जन्म ले चुकी है। अर्जुन सोचने लग गए, यही मूर्ख मनुष्यों का हठवाद है जो साक्षात ईश्वर के सम्मुख होने पर ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 36

36.तैयारी महायात्रा की अर्जुन हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र की मनोदशा पर विचारकर क्षुब्ध हो उठते हैं। समाज की आश्रम के अनुसार वे अपने जीवन के चतुर्थ चरण में हैं अर्थात उन्हें संन्यास की तैयारी शुरू करना चाहिए, लेकिन वे हैं कि मोह माया से चिपके हुए हैं। वे महाराज युधिष्ठिर को उनका वास्तविक अधिकार देने के स्थान पर उन्हें वन- वन भटकने को मजबूर कर रहे हैं। वनवास और अज्ञातवास को अवधि पूरी होने के बाद भी महाराज धृतराष्ट्र ने पुत्र मोह के आगे समर्पण करते हुए पांडवों को उनका राज्य लौटाने से मना कर दिया। स्वयं श्रीकृष्ण शांतिदूत ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 37

37.जो चाहा वो पाया श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि जो व्यक्ति जीवन की समापन बेला के समय का स्मरण रख पाता है, वह मुझे प्राप्त हो जाता है। इस कथन पर विचार करते हुए अर्जुन ने सोचा कि श्री कृष्ण का यह अपने भक्तों को कितना बड़ा आश्वासन है। मनुष्य के लिए माया मोह से युक्त संसार में विशेष रुप से जीवन की पूर्णता के समय में ईश्वर का स्मरण रख पाना एक लंबे अभ्यास के बाद ही संभव है। वृद्धावस्था में आने के बाद नेतृत्व कर रहे व्यक्ति को इसकी बागडोर युवा हाथों में सौंपना चाहिए ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 38

38.ईश्वर से ही पूर्ण है यह संसार जीवन की पूर्णता के अवसर पर मनुष्य द्वारा ईश्वर का स्मरण रखने विशेषताओं का वर्णन करते हुए श्री कृष्ण कहते हैं, "वह भक्त अंत काल में भी अपने योग बल से भृकुटी के मध्य में अपने प्राण को अच्छी तरह स्थापित करता है और फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस परम पिता परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है। "(8/10)अर्जुन ने सोचा कि श्रीकृष्ण ने भक्त शब्द का प्रयोग किया है। जीवन के समापन के समय इतनी उच्च कोटि की साधना अंततः कितने लोग कर पाते होंगे? अर्जुन श्री कृष्ण ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 39

39.तुमने संवारा जीवन श्री कृष्ण अभी परमात्मा स्वरूप में हैं। अर्जुन उनके मित्र तो है लेकिन मित्र के साथ उनके भक्त भी हैं। वह अनुभव कर रहे हैं कि श्री कृष्ण के मुख मंडल पर आज एक ऐसा तेज है, जो आज से पहले उन्होंने कभी नहीं देखा है। आज श्री कृष्ण जैसे संपूर्ण ज्ञान उन्हें प्रदान कर देना चाहते हों, ताकि उनके जीवन में कभी संशय और भ्रम की स्थिति निर्मित न हो। श्री कृष्ण आगे कह रहे हैं मैं इस संपूर्ण संसार को धारण करने वाला हूं। सभी कर्मों के फल को देने वाला हूं। (9/17) यूं ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 40

40.कारज बारंबार श्री कृष्ण अर्जुन से अपने ईश्वरीय स्वरूप और कार्यों का वर्णन कर रहे हैं। श्री कृष्ण: हे आकाश में जिस प्रखर सूर्य को तुम देखते हो न?उसे ताप मैं प्रदान करता हूं। वर्षा के लिए जल का आकर्षण मैं करता हूं और मेघों से जल बरसाता हूं। हे अर्जुन मैं ही अमृत हूं और मृत्यु भी हूं। सत् और असत् भी मैं ही हूं। (9/19) अर्जुन इस बात पर प्रसन्न हैं कि जिन घटनाओं को वह विशुद्ध रूप से प्राकृतिक कारणों का ही परिणाम मानते थे, उसके पीछे ईश्वर की भी प्रमुख शक्ति है। ब्रह्मांड की वह ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 41

41.मैं हूं तेरे साथ खड़ा अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा, क्या आप भक्तों के लिए स्वयं भी उतने ही रहते हैं जितना कि भक्तों आपके लिए? श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, "अवश्य अर्जुन!ईश्वर को भी सुपात्र की तलाश होती है। भक्तों की तलाश होती है, जो कृपा के अधिकारी हैं। जो भक्तजन मुझ ईश्वर को निरंतर बिना किसी कामना के आनंद पूर्वक भजते हैं और मुझे प्राप्त करना चाहते हैं , मैं ऐसे निरंतर चिंतन करने वालों को भगवत प्राप्ति की उपलब्धि कराने में स्वयं योग करता हूं और उनके समस्त साधनों की रक्षा का उत्तर दायित्व भी मैं ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 42

42.तेरा विस्तार अर्जुन ने श्री कृष्ण का मानव रूप देखा हुआ है। जब से श्री कृष्ण ने उन्हें ब्रह्मांड उत्पत्ति और ईश्वर की भूमिका के संबंध में विस्तार से जानकारी दी है, अर्जुन ईश्वर के संपूर्ण स्वरूप को जानने के लिए उत्सुक हैं। अभी कुछ देर पहले श्री कृष्ण ने अपनी विभूतियों की चर्चा की। अब अर्जुन जानना चाहते थे कि श्री कृष्ण सृष्टि में किन विभूतियों को श्रेष्ठ मानते हैं। अर्जुन: हे श्री कृष्ण!आप सर्वशक्तिमान हैं लेकिन आप अपने इस सर्वश्रेष्ठ मानव रूप के अतिरिक्त और किन-किन रूपों में सर्वाधिक तेज युक्त हैं? मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 43

43.तुम्हें देखने चाहिए दिव्य आंखें अर्जुन के हाथ प्रणाम मुद्रा में हैं। श्री कृष्ण कालों के काल महाकाल हैं। विराट स्वरूप है। वे विश्व का भरण पोषण करते हैं । वे मृत्यु हैं तो जन्म और उत्पत्ति के आधार भी हैं। वे सृष्टि में अति महत्वपूर्ण श्री, वाक, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा नामक 7 स्त्री वाचकगुण भी हैं। वे गेय श्रुतियों में बृहत्साम, छंदों में गायत्री छंद, महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत हैं। वे जीतने वालों में विजय, दृढ़ संकल्प करने वालों के निश्चय हैं और सज्जन मनुष्यों के सात्विक भाव हैं। वे वृष्णिवंशियों में स्वयं ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 44

44.यह तो होना ही है इस विश्वरूप के एक भाग में जब अर्जुन ने बड़े गौर से देखा तो उन्हें दुर्योधन समेत धृतराष्ट्र के पुत्र, युद्ध लड़ने के उपस्थित अनेक राजा, स्वयं पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और कर्ण और अनेक कौरव योद्धा इस विश्वरूप के विकराल भयानक मुखों में बड़े वेग से दौड़ते हुए प्रवेश करते दिखाई दिए। अर्जुन चिल्ला उठे:अरे! ये सब तो स्वयं काल के मुख में जा रहे हैं। यह श्री कृष्ण के विश्वरूप में इस तरह प्रवेश कर रहे हैं जैसे समुद्र में उफनती वेगवान नदियां भी शांत होकर प्रवेश कर जाती हैं। अर्जुन रोमांचित ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 45

45.मैं तुम हो और तुम मैं हूं चतुर्भुजी विष्णु रूप के बाद श्री कृष्ण अपने मनोहरी मानव रूप में गए, जिसे देखकर अर्जुन का चित्त स्थिर हो गया और वे स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गए। अर्जुन ने श्री कृष्ण का विराट ईश्वरीय स्वरूप भी देख लिया, मानव रूप भी और चतुर्भुजी विष्णु रूप भी देख लिया। उन्होंने श्री कृष्ण से आगे पूछा। अर्जुन:हे प्रभु! आपकी सगुण रूप में आराधना करना श्रेष्ठ है या निराकार ब्रह्म के रूप में आपको प्राप्त करना उत्तम है? कृपया मेरा मार्गदर्शन करिए। हंसते हुए श्री कृष्ण ने कहा, " दोनों ही उपाय अपने ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 46

46.जीत स्वयं पर स्वयं अर्जुन कृष्ण के बिना अपूर्ण है। श्री कृष्ण उनके प्रेरक और मार्गदर्शक हैं। वे सोचने कुरुक्षेत्र के युद्ध में केशव सदैव मेरे साथ रहेंगे लेकिन इस युद्ध के बाद क्या?वे तो वापस द्वारका लौट जाएंगे और अगर विजय मिली तो हम लोग हस्तिनापुर चले जाएंगे। तब ऐसे में मैं किस तरह श्रीकृष्ण से आगे मार्गदर्शन प्राप्त कर पाऊंगा? श्री कृष्ण ने अर्जुन के मन की बात ताड़ ली। उन्होंने आगे कहा:- श्री कृष्ण: तुम्हारे शरीर में स्थित आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। मैं तुम्हारे भीतर ही हूं अर्जुन! तुम्हारी वही आत्मा साक्षी होने से ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 47

47.तप है जीवन अर्जुन का जीवन एक तरह से श्रीकृष्ण के सानिध्य में ही बीता है। द्वारका आने के श्री कृष्ण का हस्तिनापुर की राजनीति पर गहरा प्रभाव रहा है और पांडव अनेक प्रश्नों तथा समस्याओं पर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करते रहे हैं। स्वयं श्रीकृष्ण का जीवन एक तप है। जन्म होते ही मथुरा के घर से गोकुल विस्थापित हो जाना, दोबारा मथुरा में घर प्राप्त होने पर उस नगर का ही विस्थापित हो जाना और द्वारिका में रहते हुए भी सदा जनकल्याण और पूरे भारतवर्ष में एक सुदृढ़ शासन व्यवस्था की स्थापना के किए जा रहे भ्रमणशील कर्मयोगी ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 48

48.पा लो सारे सुख अर्जुन ने श्री कृष्ण से वास्तविक सुख की परिभाषा पूछी। अर्जुन: सुख क्या है प्रभु?जो हम चाहते हैं, वे हमें मिल जाए तो यह तो सुख ही हुआ न? श्री कृष्ण: यह इस बात पर निर्भर है कि हम चाहते क्या हैं? उदाहरण के लिए हमने सांसारिक सुखों और भोगों की इच्छा रखी है तो यह सुख अवश्य है लेकिन अपने वास्तविक स्वरूप में यह भारी दुख है। इसे समझने की आवश्यकता है। अर्जुन: वह कैसे? श्री कृष्ण: सुख तीन प्रकार के हैं। पहला सुख वह है जो भगवान का स्मरण, उनके स्वरूप का ज्ञान, ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 49

49. वापस मिल गया खोया मन अर्जुन के मन में संदेह के मेघ छंटने लगे थे और ज्ञान के का उदय हो रहा था। आज तक उनसे किसी भी व्यक्ति ने इतनी आत्मीयता से उनके मन में उमड़ घुमड़ रहे प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया था और फिर अगले ही क्षण श्रीकृष्ण ने उन्हें सबसे बड़ा आश्वासन दे दिया। श्री कृष्ण: हे अर्जुन!तुम सभी कर्तव्य कर्मों को अपने निजपन द्वारा किए जाने की भावना का त्याग करते हुए उन्हें मुझ सर्वशक्तिमान ईश्वर के अभिमुख कर मेरी शरण में आ जाओ। अर्जुन, विजय और पराजय से बढ़कर अपना स्वधर्म निभाने ...और पढ़े

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 50 - अंतिम भाग

50.आनंद समाधि पांडवों का प्रस्ताव रखने पर महाराज धृतराष्ट्र ने पूछा। महाराज धृतराष्ट्र: हे श्री कृष्ण! पांडव क्या चाहते श्री कृष्ण:पांडवों का संदेश यह है कि उन्हें अब उनके राज्य का भाग मिल जाना चाहिए। हे राजा!मेरी भी यही सम्मति है और दोनों पक्षों में संधि होने से स्वयं आप समस्त लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित करेंगे तथा आपकी शक्ति इस पूरे भारतवर्ष में अजेय हो जाएगी। भगवान श्री कृष्ण की बातें सुनकर दुर्योधन मन ही मन नाराज होने लगा। उसे ऐसा लगा जैसे श्री कृष्ण उनका अपमान करने के लिए हस्तिनापुर आए हैं। महर्षि कण्व ने भी उसे ...और पढ़े

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