कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 24 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 24

24.मेरे जैसे ही तुम

मुझमें एकीभाव से स्थित हुआ जो योगी सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित मेरा ध्यान और स्मरण करता है, वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मुझ में ही बर्ताव कर रहा होता है। 

भगवान कृष्ण के ये वचन अर्जुन के लिए अमूल्य हैं। एक तरफ श्री कृष्ण शांति दूत बनकर हस्तिनापुर जाते हैं और युद्ध रोकने का प्रयास आखिरी क्षण तक भी करते हैं तो दूसरी ओर युद्ध के अंतिम रूप से निर्धारित हो जाने के बाद उसमें विजय के लिए पांडवों की ओर से निहत्थे शामिल हो जाने वाले कृष्ण हैं, जिनका पूरा समर्थन और आशीर्वाद युधिष्ठिर और उनकी सेना के लिए है। कुछ देर पूर्व श्रीकृष्ण ने मनुष्य को ईश्वर तत्व से जोड़ते हुए एक व्यापक विश्व अवधारणा का संकेत किया है। 

अर्जुन ने पूछा : हे प्रभु! ऐसा व्यापक दृष्टिकोण विकसित करने में व्यक्तिगत स्तर पर मनुष्य की सहभागिता के विचार को और स्पष्ट कीजिए। 

श्री कृष्ण ने कहा: -विश्व के सभी प्राणियों और चराचर में समान दृष्टिकोण रखना वैयक्तिक स्तर पर समाज के प्रति एक निर्णायक सोच है। मनुष्य दूसरे व्यक्ति के दुख को अपना दुख समझे। दूसरे व्यक्ति के सुख में आनंदित हो। किसी को पीड़ा में देखकर यथासंभव सहायता को उद्यत हो उठे, यही परम श्रेष्ठ योगी की पहचान है। मनुष्यता की यही कसौटी है। 

अर्जुन: हे केशव! पूर्व में भी आपने इस बात को समझाया है कि सभी मनुष्यों से समान व्यवहार करने का प्रयत्न करना चाहिए लेकिन यह सामने वाले व्यक्ति के आचरण पर निर्भर करता है तथापि मनुष्य का व्यवहार प्रतिकूल प्रतिक्रिया के बाद भी संतुलित होना चाहिए। 

श्री कृष्ण:हां अर्जुन! मैंने तुम्हें यही समझाने की कोशिश की है कि हमारे व्यवहार में, लोगों से क्रिया और प्रतिक्रिया में भी संतुलन होना चाहिए। पूर्व धारणा बनाकर हम अतिरेक स्नेह और घृणा का व्यवहार करें तो यह हमारे संतुलित कर्मों पर बुरा प्रभाव डालता है। 

अर्जुन :पूर्वधारणाएं भी लोगों के व्यवहार के कारण ही बनती है प्रभु!एक अच्छे व्यक्ति का व्यवहार लोगों से भी अच्छा रहता है और बुरा व्यक्ति हर जगह दूसरों की हानि का ही प्रयास करता है। इसके बाद भी आप समानुभूति की बात कर रहे हैं, इसे मेरे लिए और स्पष्ट कीजिए। 

श्री कृष्ण: कोई व्यक्ति दुख में है तो उसका दुख मनुष्य को तभी सही अनुभव होगा जब हम उस व्यक्ति की तरह उस स्थिति में स्वयं को रख कर देखेंगे। यही समानुभूति है। समानुभूति का यह अर्थ नहीं है कि यदि कोई व्यक्ति किसी का नुकसान करने की सोच रहा है तो हम उसकी तरह सोचें और तब भी उसकी सहायता करें। समानुभूति किसी व्यक्ति की स्थिति को सही-सही समझना और इसके आधार पर उचित आचरण करना है। यही कारण है कि सभी व्यक्तियों को समान समझने के बाद भी हम दुष्टों की दुष्टता में सहायक नहीं होते बल्कि उसे रोकने का प्रयास करते हैं। 

भगवान कृष्ण ने समभाव की चर्चा की। अर्जुन इसके विषय में और अधिक जानने को उत्सुक थे। इस उद्देश्य से अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा। 

अर्जुन: हे मधुसूदन आपने योग की चर्चा की। आपने इसके लिए समभाव को उपयोगी बताया है। मन का स्वभाव चंचल है। चंचल मन के इस स्वभाव के होते हुए समभाव वाली स्थिति कहां संभव है प्रभु?

मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने कहा। 

श्री कृष्ण: मैं सहमत हूं अर्जुन। युद्ध भूमि में श्रेष्ठ योद्धाओं को पराजित करने वाले महाबाहु अर्जुन अगर चंचल मन को वश में रखने का प्रश्न पूछ रहे हैं तो यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। 

अर्जुन मुस्कुरा उठे। श्रीकृष्ण की ओर देखते हुए उन्होंने कहा। 

अर्जुन: हां श्री कृष्ण! यह मन न सिर्फ चंचल है बल्कि मनुष्य को विचारों के गहरे मंथन में डाल देता है। भ्रमित कर देता है। यह यहां वहां दौड़ता है। दृढ़ और बलवान है। हे केशव!जिस तरह से वायु को रोकना मुश्किल है, उसी तरह से इस चंचल मन को वश में करना भी अत्यंत दुष्कर कार्य है। 

श्री कृष्ण ने अर्जुन की इस जिज्ञासा का समाधान करने के लिए कहा।