9: पहचानो खुद को
अर्जुन ने जिज्ञासा प्रकट की, "तो प्रभु इसका अर्थ यह है कि संसार में कर्ता केवल आप हैं, सांसारिक मनुष्य नहीं। "
श्री कृष्ण ने कहा, "मैं सृष्टि रचना के कार्य का कर्ता हूं और मैंने मनुष्यों के गुणों और कर्मों(न कि जन्म)के आधार पर कार्य करने वालों की चार श्रेणियां(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र)भी बनाई हैं, फिर भी तुम मुझे अकर्ता ही मानो। "
अर्जुन, "ऐसा क्यों प्रभु?"
श्री कृष्ण, "ताकि मनुष्य कर्म करें और सब पर मेरी समान कृपा के बाद भी उस कृपा का अधिक से अधिक उपयोग कल्याण के लिए करे और अपने कार्यों के बिगड़ने पर मुझे दोष न देकर स्वयं का उत्तरदायित्व समझे। मैं अगर अकर्तापन से कार्य करने के लिए कहता हूं, तो इसका अर्थ उत्तरदायित्व का त्याग नहीं है, उन कर्मों के फल में आसक्ति का त्याग है अर्जुन!"
अर्जुन ने पूछा, "क्या कर्म केवल सकारात्मक होते हैं? अनुचित कार्यों को हम क्या कह सकते हैं?"
श्री कृष्ण समझाया, "अगर लक्ष्य और फल केंद्रित कार्य किया जाए तो वह कर्म है। अगर कर्मों में आसक्ति का त्याग और कल्याण भाव आ जाए तो वह अकर्म है। चोरी, हिंसा, अत्याचार आदि विकर्म हैं। "
अर्जुन ने पूछा "आपने यज्ञ संपादन के लिए कर्म करने की बात कही है। इसका अर्थ है कि हम अपने कर्मों को यज्ञमय बनाएं। ऐसा हम किन तरीकों से कर सकते हैं प्रभु?"
श्री कृष्ण ने कहा, " एक यज्ञ में कर्ता से लेकर हवन किए जाने योग्य द्रव्य, आहुति की क्रिया सभी ब्रह्ममय है। एक, देवताओं के पूजन का यज्ञ है, जिसमें ज्ञान रूपी यज्ञ के द्वारा अपनी आत्मा को परमात्मा में समर्पित करते हैं। एक यज्ञ संयम रूपी अग्नि में इंद्रियों के विषय का हवन है। एक इंद्रियों का विषय रुपी अग्नि में हवन है। एक, इंद्रियों की संपूर्ण क्रियाओं को आत्मसंयम योग रूपी अग्नि में हवन है। कुछ योगी अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते हैं तो कुछ योगीजन प्राण वायु में अपान वायु को हवन करते हैं। "
अर्जुन स्वयं भी योग साधक हैं। वे योग साधना की पांच प्रकार की वायु से परिचित हैं। प्राणवायु शरीर में श्वासों के रूप में उपलब्ध स्वच्छ हवा है जो नाक से लेकर हृदय क्षेत्र तक विशेष रूप से सक्रिय रहती है। अपान वायु शरीर के दूषित पदार्थो को निकालने का कार्य करती है और नाभि से पैर के तलवों तक सक्रिय रहती है। अर्जुन स्वयं प्राणवायु की सक्रियता के लिए भस्त्रिका तथा अनुलोम विलोम प्राणायाम और अपान वायु के लिए अश्विनी मुद्रा और मूलबंध का अभ्यास करते हैं।
श्री कृष्ण की बातों पर विचार करते हुए अर्जुन ने कहा, " हे प्रभु यह स्पष्ट है कि द्रव्यमान यज्ञ के अपेक्षा ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है क्योंकि हमारे सारे कर्मों को उचित रीति से करने से वह ज्ञान की ओर ही विस्तृत होता है। "
श्री कृष्ण, "हां अर्जुन और ज्ञान के लिए वैयक्तिक साधना के साथ-साथ ज्ञानियों की संगति, सेवा और गुरु की कृपा का विशेष महत्व है। इस ज्ञान नौका में तो संसार के पाप समुद्र को भी पार कराने की क्षमता है। "
अर्जुन, "हे प्रभु आपने कर्म योग पर भी प्रकाश डाला और कर्म संन्यास पर भी। आपने यह भी बताया कि कर्म का मार्ग भी संतुलन अवस्था का पालन करते हुए अपनी चरम सीमा में ज्ञान क्षेत्र अर्थात परम तत्व की प्राप्ति की ओर ही जाता है। ऐसे में इन दोनों में से कौन सा मार्ग मैं मुख्य रूप से अपनाऊं और कौन सा सहायक के रूप में?"
श्री कृष्ण ने अपना अभिमत प्रकट करते हुए कहा, "कर्म संन्यास की तुलना में कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है। मैंने पहले भी कहा है कि यह संसार एक विस्तृत कर्मक्षेत्र है जिसमें उतरकर ही कर्मों में कर्तापन के अभाव और आसक्ति के त्याग के साथ कर्म किया जा सकता है। जो मनुष्य सभी कर्मों को परमात्मा में अर्पित करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है वह जल से कमल के पत्ते की भांति कर्मों के फल और संभाव्य पाप से लिप्त नहीं होता। बस आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य स्वयं को पहचाने और अपनी शक्तियों को जाग्रत करे। "
अर्जुन, "तो क्या ऐसे व्यक्ति का कार्य भी यज्ञमय है प्रभु?"
श्री कृष्ण, "हां, ऐसे व्यक्ति का कर्म यज्ञरूप लिए होता है और वह अपने अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करता है। यह भी एक महान साधना है। ऐसा व्यक्ति कर्मों के पथ पर चलता हुआ भी सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो जाता है। "