(10) साधना का सम्मोहन
भगवान श्री कृष्ण और जिज्ञासु अर्जुन की चर्चा जारी है।
अर्जुन उनसे प्रश्न पूछते हैं, "हे केशव!प्रत्येक कार्य मनुष्य के द्वारा संपन्न होते हैं और अपने- अपने विवेक से सभी लोग कार्य करते हैं। फिर परिणामों में अंतर कहां है? कुछ लोग अपनी इच्छा के अनुसार फल प्राप्त कर लेने के बाद भी संतुष्ट नहीं रहते हैं। "
श्रीकृष्ण ने समझाया, " वास्तव में उनकी इच्छा सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करने को लेकर होती है, जो लगातार एक वस्तु को प्राप्त कर लेने के बाद बढ़ती ही रहती है। ऐसे में स्वयं पर नियंत्रण प्राप्त करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ है स्वयं को पा लेना। "
अर्जुन, "समझ गया प्रभु!अगर यह कार्य हो गया तो बिना सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त किए बिना ही मनुष्य प्रसन्नचित रहता है। उसके चेहरे पर मुस्कुराहट और उसकी हंसी केवल सुख साधनों को प्राप्त करने वाले व्यक्ति की तुलना में कहीं अधिक स्वाभाविक होती है। "
ईश्वर को प्राप्त करने के मार्ग में दिखावा और आडंबर नहीं होना चाहिए। इसे स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं:-
" जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है । केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है। "
अर्जुन इस कथन का अर्थ समझने का पेट करने लगे। संन्यास का सामान्य प्रचलित अर्थ गृहस्थ धर्म का त्याग कर, गेरुआ वस्त्र धारण कर, वन में जाकर तपस्या करने से है, अर्थात जिस व्यक्ति ने अपने परिवार, संबंधों और सांसारिक दायित्वों का त्याग कर दिया हो। सनातन परंपरा के अनुसार संन्यास वाकई एक विशिष्ट स्थिति और अवस्था है। यह एक उच्च कोटि की साधना है जिस तक अत्यंत संकल्पवान और विरला व्यक्ति ही पहुंच सकता है। वे सोचने लगे। भगवान कृष्ण एक युग दृष्टा हैं। विचारों से भी अत्यंत दूरदर्शी और आधुनिक विचारों और नई सोच का प्रवर्तन करने वाले। उन्होंने मानव जीवन के लिए सरल जीवन जीने, सुखपूर्वक चलने और बिना भ्रम तथा दुविधा के अपने सुनिश्चित कर्म के रास्तों पर चलने के लिए अपने जीवन के माध्यम से अनेक सूत्र बताए हैं। जीवन के अनेक मार्गो में से एक है- कर्म। केशव ने आडंबर और आसक्ति रहित कर्म करने पर ही तो जोर दिया है।
गुरु द्रोणाचार्य ने आश्रम में कौरव और पांडव कुमारों को आश्रम व्यवस्था के चार चरणों की भी जानकारी दी थी। सनातन धर्म में आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ;जीवन के चार चरण हैं। यूं तो मनुष्य अपने जीवन के अलग-अलग पड़ाव में इन अवस्थाओं से गुजरता है, वहीं हर पड़ाव में भी ईश्वर को प्राप्त कर लेने का मार्ग है।
भगवान श्री कृष्ण आगे कह रहे हैं,
"योगी या संन्यासी होने की पात्रता के लिए सब कुछ छोड़ देना आवश्यक नहीं है। वह व्यक्ति भी संन्यासी है जो फल की अपरिहार्यता को लक्ष्य में न रखकर अपना कर्तव्य समझकर आनंदपूर्वक कर्म करता है। यहां ऐसे व्यक्ति जो संसार में रहकर ही अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं, वे भी योग मार्ग पर ही चलते हैं।
अर्जुन :तब जिन्हें हम संन्यासी कहते हैं, वे लोग क्या हैं भगवन?"
इसका अर्थ है-"हे अर्जुन ! लोग जिसको संन्यास कहते हैं, उसी को तुम योग समझो;क्योंकि किसी भी योग की सफलता के लिए संकल्पों का त्याग आवश्यक है। ऐसा किए बिना मनुष्य किसी भी प्रकार का योगी नहीं हो सकता है। "
अर्जुन इस वाक्य से सूत्र ढूंढने की कोशिश करने लगे। जीवन में ऐसे संकल्पों का त्याग आवश्यक है जो मनुष्य को सांसारिक भोग युक्त लक्ष्यों की प्राप्ति को प्रेरित करते हैं। अगर इन संकल्पों को छोड़ दिया जाए तो आनंद ही आनंद है। यह आनंद भले ही भौतिक रूप से दिखाई न देता हो और जीवन में सुविधाओं के आदी हो चुके लोगों के लिए थोड़े समय के लिए असुविधा और अड़चन भी पैदा कर सकता है लेकिन कालांतर में आवश्यकताएं सीमित होते जाने से उस आनंद की अनुभूति बढ़ते जाती है।