(8)स्पंदन जीवन का
श्री कृष्ण ने काम के आवरण को विवेक बुद्धि के हर लेने का प्रमुख कारण बताया। इस पर अर्जुन ने पूछा: -
अर्जुन: इसका समाधान क्या है प्रभु?
श्री कृष्ण: "मन में संतोष स्वभाव और बुद्धि के द्वारा काम के आवरण को छिन्न-भिन्न करते हुए मन को अपने नियंत्रण में रखना। "
आगे श्री कृष्ण की इस बात पर अर्जुन आश्चर्य से भर उठे, जब उन्होंने कहा, " मैंने यह तत्वज्ञान रूपी योग सबसे पहले विवस्वान सूर्य(कश्यप ऋषि के पुत्र) से कहा था। विवस्वान सूर्य ने इसे अपने पुत्र मनु को बताया और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को बताया। उनके बाद इस ज्ञान को परंपरा से प्राप्त राजर्षियों ने जाना। बाद में यह पृथ्वी पर लुप्तप्राय हो गया। मेरे मित्र और भक्त होने के नाते इस पुरातन योग को आज मैंने तुमसे कहा है। "
अर्जुन ने जिज्ञासा प्रकट करते हुए कहा, "आपका जन्म तो अभी का है लेकिन सूर्य का बहुत पुराना है। इस बात को कैसे समझा जाए कि आपने ही कल्प के प्रारंभ में इसे सूर्य से कहा था। "
श्रीकृष्ण ने कहा, "हे परम् तप! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं । मैं उन सब को जानता हूं लेकिन तुम नहीं जानते। अजन्मा और अविनाशी ईश्वर होते हुए भी मैं अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट हुआ करता हूं। "
अर्जुन सारा रहस्य समझ गए। गुरु द्रोणाचार्य पांडव राजकुमारों की शिक्षा के दौरान दार्शनिक मतों का भी विवेचन किया करते थे और अर्जुन बड़े ध्यान से सुनते थे। अनेक बार अर्जुन के मन में यह प्रश्न उठते थे कि ईश्वर क्या है ?वह कहां रहते हैं? इसके उत्तर में गुरु द्रोणाचार्य कुमारों को अनेक बातें बताया करते थे। आज अर्जुन ने गुरु की उन बातों को श्री कृष्ण द्वारा थोड़ी देर पहले कही गई वाणी से जोड़ने का प्रयत्न किया। अब वे अपने उन प्रश्नों के उत्तरों के निकट पहुंच गए।
सृष्टि के प्रारंभ में कुछ नहीं था। केवल परम तत्व या ईश्वर थे। उस समय प्रकृति या माया भी सत्व, रजस और तमस गुणों की साम्यावस्था में होती है। ईश्वर का इस आवरण में रहना ही हिरण्यगर्भ है, ब्रह्म का यह आवरण अंडाकार होने के कारण ब्रह्मांड कहलाता है। इस हिरण्यगर्भ से विराट पुरुष या परम पुरुष स्वयं प्रकट होते हैं।
अर्जुन के दोनों हाथ प्रणाम अवस्था में जुड़ गए क्योंकि यही परम पुरुष श्री नारायण या श्री विष्णु हैं, जिनसे स्वयं श्रीकृष्ण ने अवतार के रूप में इस धरती पर जन्म लिया है।
साम्यावस्था में विक्षोभ या असंतुलन उत्पन्न होने से बुद्धि तत्व बना। इससे अहंकार और फिर पाँच तन्मात्राएँ (रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द) और पाँच महाभूत(आकाश, वायु, अग्नि, जल और धरती) उत्पन्न होते हैं। ये पंचमहाभूत अपने भौतिक अर्थ के स्थान पर अलग-अलग अर्थ लिए हुए हैं।
सबसे पहले आकाश बना, फिर वायु तत्व उसके बाद वायु तत्व में घर्षण होने से अग्नि तत्व। ब्रह्मांड के अग्नि तत्व अर्थात अग्नि के गुणों से ही जल तत्व बना। इसी जल तत्व से धरती तत्व बना और धरती पर जीवन की उत्पत्ति हुई
आकाश तत्व अर्थात स्थान, चेतना, अंतर्ज्ञान। इसकी तन्मात्रा है-ध्वनि।
वायु तत्व अर्थात विस्तार, गति, सूक्ष्म उपस्थिति। इसकी तन्मात्रा है-स्पर्श ।
अग्नि तत्व अर्थात ऊर्जा और तेज जिसकी तन्मात्रा दृष्टि या रूप है।
जल तत्व अर्थात अनुकूलनशीलता, बंधन और तरलता। इसकी तन्मात्रा है-स्वाद या रस।
भूमि तत्व अर्थात दृढ़ता, सघनता और स्थिरता। इसकी तन्मात्रा है-गंध।
ये पंच महाभूत ब्रह्मांड के सभी पदार्थों की उत्पत्ति के आधार हैं।
श्री कृष्ण आगे उद्घोषणा करते हैं: -हे भारत जब- जब धरती पर धर्म की हानि होती है और अत्याचार तथा अधर्म की वृद्धि होती है तब- तब मैं स्वयं के रूप को रचकर लोगों के समक्ष आता होता हूं। मैं सज्जन लोगों की रक्षा तथा उद्धार के लिए और दुष्ट मनुष्यों का विनाश कर धर्म की स्थापना के लिए युग -युग में प्रकट हुआ करता हूं। जो मनुष्य मुझे तत्व से जान लेता है, वह जन्म - मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।