कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 1 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 1

(50 भागों में)

(महाभारत युद्ध के प्रथम दिवस के युद्ध पूर्व की घटनाओं का चित्रण और भगवान श्री कृष्ण तथा अर्जुन के बीच गीता के उपदेश का कथा रूप में रूपांतरण)

(भगवान कृष्ण, भगवान विष्णु के पूर्ण अवतार हैं। वे महामानव भी हैं। प्रस्तुत कथा भारतीय इतिहास के महाभारत काल की है, जब कौरवों और पांडवों की विशाल सेना के बीच कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध शुरु होने वाला था। इससे ठीक पूर्व युद्ध की तैयारी के कुछ घंटों की घटनाओं को मेरी कल्पना दृष्टि से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। इसके बाद भगवान श्री कृष्ण और वीर अर्जुन के मध्य संवाद प्रारंभ होता है। महायोद्धा अर्जुन के निवेदन पर भगवान श्री कृष्ण रथ को दोनों सेनाओं के मध्य भाग में खड़ा करते हैं। इस अवसर पर भगवान भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश श्रीमद्भागवतगीता में संकलित है। इसमें भगवान श्री कृष्ण की वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवनपथ पर अर्जुन के मोह और उनके मन में उठने वाली शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया। श्री कृष्ण की वाणी केवल कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में ही नहीं बल्कि आज के युग मे मनुष्यों के सम्मुख जीवन पथ में उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में पूर्णतया सक्षम है। श्री कृष्ण की वाणी के पूर्ण होते ही महायोद्धा अर्जुन ने अपना गांडीव धनुष फिर से उठा लिया और युद्ध के लिए प्रस्तुत हो गए। यह धारावाहिक कथा अपने आराध्य श्री कृष्ण के प्रेरक व्यक्तित्व और उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का कल्पना और भावों से युक्त एक लेखकीय प्रयत्नमात्र है, इसे पढ़िएगा अवश्य...)

 

(1). पूर्व पीठिका

कुरुक्षेत्र के गगन में आज उषाकाल की लालिमा कुछ अधिक गहरी हो चली है। प्रतिदिन तो सूर्य के क्षितिज से थोड़ा ही ऊपर उठने पर उषा काल का लोहित वातावरण समाप्त हो जाता है और सूर्य का प्रकाश पूरी प्रकृति को अपनी किरणों से आच्छादित कर देता है लेकिन आज प्रसंग दूसरा है। आज कौरवों और पांडवों की विशाल सेनाओं के बीच एक महायुद्ध का प्रारंभ हो रहा है। इस विशाल मैदान में सैनिकों की संख्या इतनी अधिक है कि इनकी गणना ही मुश्किल है। प्रतीत होता है, आसमान का यह अरुणाभ रंग आगे और गहरा होता जाएगा और इस युद्ध के समाप्त होते - होते धरती ही नहीं इस पूरे आकाश में एक गहरी गाढ़ी लालिमा व्याप्त हो जाएगी और इस रक्त के रंगों को मानवता हजारों सालों तक अनुभूत कर पीड़ा का अनुभव करती रहेगी। 

आज प्रातः से ही अर्जुन का मन विचलित है। उनका शिविर वासुदेव श्री कृष्ण के शिविर के नज़दीक ही है। आज स्नान के बाद प्रातः पूजा में भी अर्जुन का मन नहीं लगा। शांताकारम भुजगशयनम…. के श्लोक के साथ उन्होंने पूजा की शुरुआत की लेकिन ध्यान अपने कक्ष के आसपास मौजूद दोनों सेनाओं की भारी उपस्थिति से बोझिल रही। अर्जुन ध्यान आसन से अनायास उठकर शिविर से बाहर निकले और वासुदेव के पीतवर्णा शिविर के ठीक बाहर जाकर नमस्कार मुद्रा में खड़े हो गए। बाहर उपस्थित दोनों द्वारपालों ने उन्हें प्रणाम किया। अर्जुन बस द्वार पर हल्की सी आहट कर और औपचारिक अनुमति के लिए कुछ शब्द कहकर भी शिविर के भीतर जा सकते थे, लेकिन उन्होंने भगवान कृष्ण को सुबह-सुबह बाधित करना उचित नहीं समझा। 

शिविर का द्वार खुला था और बहुत ध्यान से देखने पर सूर्य की किरणों में अपनी आंखों को समायोजित करने के बाद भीतर शिविर के अंतिम भाग पर बैठी हुई भगवान कृष्ण की आकृति उन्हें दिखाई दी। पीतांबर ओढ़े भगवान कृष्ण के चेहरे पर वही स्मित हास और सिर पर मोर पंख का वही चिरपरिचित मुकुट। वासुदेव एक आसन पर बैठे हुए लकड़ी के पटल पर संभवतः एक मानचित्र में ध्यान से कुछ देख रहे थे और उनके चेहरे पर कभी गंभीरता तो कभी मृदु हास के मिले-जुले भाव आ जा रहे थे। 

अर्जुन ने दूर से ही वासुदेव को मन में प्रणाम किया। उनके मुख से धीमे-धीमे प्रार्थना के ये मंत्र फूटने लगे:- श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी, 

हे नाथ नारायण वासुदेवा।

कुछ देर श्री कृष्ण के शिविर के सामने मौन खड़े रहने से उनके भीतर असीम शांति का अनुभव हुआ। अब अर्जुन युद्ध के लिए तैयार होने के निमित्त वापस अपने शिविर की ओर लौटने लगे। पांडव पक्ष में भी युद्ध की तैयारियां जोरों पर है। प्रमुख सेनानायकों के शिविर के ठीक पीछे अस्त्र-शस्त्रागार है और पूर्व दिशा में भोजन बनाने के लिए एक विशाल रसोई। कौरवों और पांडवों दोनों का भोजन एक साथ बनता था। अतः यह एक विशाल रसोईघर था। उडुपी नरेश स्वयं भोजन का प्रबंध देखते थे। 

अचानक अर्जुन के मन में इन स्थानों के आकस्मिक निरीक्षण का विचार आया, लेकिन वे यह पांडवों के एक प्रमुख योद्धा के रूप में नहीं बल्कि एक आम सैनिक के रूप में करना चाहते थे ;इसलिए उन्होंने अपने उत्तरीय को सिर, मुख और ललाट पर इस तरह बांधा कि इससे उनकी पहचान छिप गई। 

पाकशाला का निरीक्षण करते समय उन्हें अर्जुन के रूप में किसी ने नहीं पहचाना। अर्जुन का व्यक्तित्व प्रभावशाली था। लंबा कद, आजानबाहु, चौड़ा कंधा, बलिष्ठ भुजाएं और जैसे पूरा शरीर वीरता की प्रतिमूर्ति हो। एक- दो लोगों ने उन्हें कोई बड़ा राजकीय अधिकारी समझ कर प्रणाम किया। बड़े-बड़े पतीलों में भोजन बनता हुआ…... पाकशाला के एक कोने से दूसरे कोने तक दृष्टि डालने पर सैकड़ों बड़े चूल्हे और भोजन बनाने के लिए तत्पर रसोइए। एक स्थान से गुजरने के समय उसे कानों में यह स्वर सुनाई पड़ा। वैसे तो युद्ध क्षेत्र में बच्चों के आने की मनाही है लेकिन पता नहीं क्यों इस रसोईया के साथ 8-10 वर्ष की अवस्था का एक  बालक साथ है। 

-  पिता जी, पाकशाला में जो इतना भोजन बन रहा है, क्या वह सभी सैनिकों के लिए पर्याप्त होगा?

- हां पुत्र! सारी गणना और अनुमान के बाद ही भोजन बनाया जाता है। अतः कम नहीं पड़ेगा। 

- युद्ध में तो अनेक सैनिक मारे भी जाएंगे ना?

- हां यह स्वाभाविक है पुत्र, जनहानि तो होती है। 

- तो पिताजी यहां भोजन बनना भी कम होने लगेगा?

- हां पुत्र भोजन करने वालों की संख्या कम होगी तो भोजन कम बनेगा ही। 

- लेकिन पिताजी, जो सैनिक मारे जाएंगे उनके घरों में भोजन की व्यवस्था कैसे होगी? क्योंकि अपने परिवार के भरण-पोषण की व्यवस्था के लिए ही तो वे लोग युद्ध लड़ रहे हैं ना पिताजी?

अपने पुत्र के इस अंतिम प्रश्न से रसोईया अचकचा गया। उससे कुछ जवाब देते ना बना। 

इस प्रश्न को सुनकर अर्जुन ने भी अपने मन में थोड़ी ग्लानि का अनुभव किया। वह बच्चे के पास गए और उससे कहा- ऐसे परिवारों की देखरेख और पूरी जिम्मेदारी राज्य उठाता है वत्स। 

बालक- प्रणाम श्रीवर। मैं आपकी बात समझ गया लेकिन क्या मृत्यु के बाद सैनिक के अपने परिवार के लिए उपस्थिति का भी कोई विकल्प हो सकता है सेनानी?

अर्जुन- अगर यह प्रश्न सभी सैनिक सोचने लगे तो युद्ध भूमि में हथियार उठाएगा कौन ? देश की रक्षा करेगा कौन? कभी कभी जीवन में युद्ध करना अनिवार्य होता है पुत्र और इसे एक कर्तव्य के रूप में लेना चाहिए। 

अर्जुन की बात पर सिर हिलाकर उस बालक ने हामी भरी लेकिन उसके मुख की मुद्रा बता रही थी कि वह अधिक संतुष्ट नहीं हुआ है। अर्जुन भी आगे बढ़ गए लेकिन बार-बार उस बालक के ये प्रश्न उसके मन में कौंधते रहे:-

"जो सैनिक मारे जाएंगे उनके घरों में भोजन की व्यवस्था कैसे होगी?"

"क्या मृत्यु के बाद सैनिक के अपने परिवार के लिए उपस्थिति का भी कोई विकल्प हो सकता है सेनानी?"

शस्त्रागार की ओर बढ़ते समय भी अर्जुन के मन में ये प्रश्न उठते रहे और उनका मन बार-बार व्यथित होता रहा। 

अर्जुन अब शस्त्रागार पहुंचे। यहां वे वास्तविक रूप में थे। सब ने अपने प्रमुख सेनानायक अर्जुन का अभिवादन किया। आज के युद्ध की पूरी तैयारियां हो चुकी थी और योद्धागण अपने परंपरागत अस्त्रों और शस्त्रों के अलावा इस शस्त्रागार से अतिरिक्त अस्त्रों-शस्त्रों का संचय भी कर चुके थे। धनुष, बाण, खड्ग, असि(तलवार), त्रिशूल, गदा के साथ साथ परशु, ऋष्टि जैसे आयुध बहुत बड़ी संख्या में एकत्र थे। इनमें शस्त्रों की संख्या अधिक थी क्योंकि घातक अस्त्रों का संधान स्वयं योद्धाओं को करना पड़ता था और यह मंत्र शक्ति से उनके पास सुरक्षित रहते थे। अर्जुन के पास ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र जैसे अचूक अस्त्र थे। लेकिन अर्जुन इस बात को लेकर थोड़े चिंतित हो उठे कि कर्ण के पास वासवी शक्ति थी और उसने इसे अर्जुन के ऊपर प्रयोग करने की घोषणा कर रखी थी। अर्जुन मुस्कुरा उठे। उन्होंने स्वयं से कहा, "कर्ण ऐसा तब कर पाएगा न जब मैं उसे इसका अवसर दूंगा। "

कल संध्या पांडव शिविर में युद्ध मंत्रणा समिति की बैठक में सेनापति धृष्टद्युम्न और सभी प्रमुख पांडव वीरों के साथ बैठक करते हुए श्री कृष्ण ने यही कहा था कि यह युद्ध भारत की भावी दिशा तय करेगा। मैं इस युद्ध में भारी विनाश देख रहा हूं लेकिन और कोई उपाय भी तो नहीं है। 

इस पर अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा था, "क्या और किसी तरह इस युद्ध को टाला नहीं जा सकता है प्रभु?इस युद्ध के बाद लाखों बच्चे अनाथ होंगे। लाखों स्त्रियों की मांग का सिंदूर उजड़ जाएगा और सब मिलाकर एक ऐसी भयावह निस्तब्धता व्याप्त होगी जिसकी गूंज युगों-युगों तक सुनाई देगी। मानवता हजारों साल बाद भी चीख- चीखकर हमसे प्रश्न पूछेगी। "

इस पर द्वारिकाधीश श्री कृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा था, "मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं अर्जुन! लेकिन दुर्योधन की हठधर्मिता के कारण और कोई मार्ग भी तो शेष नहीं है। मैंने शांति दूत बनकर स्वयं अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर लिया है। "

गरजते हुए भीम ने कहा, "मैं वासुदेव की बात से सहमत हूं। क्रूर दुर्योधन अभी सीधे तौर पर राजा नहीं है, लेकिन शासन व्यवस्था में उसका सर्वाधिक हस्तक्षेप बना हुआ है और कभी-कभी तो प्रधानमंत्री होते हुए भी काका विदुर विवश हो जाते हैं। "

महाराज युधिष्ठिर ने धीर गंभीर वाणी में कहा-"अभी तो दुर्योधन को कम से कम हम लोगों का भय बना हुआ है। अगर हमने इंद्रप्रस्थ पर अपना दावा छोड़ दिया तो वह निरंकुश हो जाएगा। अभी भी दुर्योधन का प्रजा पर अत्याचार चरम पर है। वह हमसे मिला होने के संदेह में अब तक हजारों नागरिकों की हत्या करा चुका है। "

अर्जुन, "भ्राता आप सच कह रहे हैं। फिर भी सोचिए हमारी ओर से 7 अक्षौहिणी सेना और कौरवों की ओर से 11 अक्षौहिणी सेना। इनमें से अधिसंख्य तो कुछ ही दिनों में मारे जाएंगे। "

अर्जुन को समझाते हुए श्री कृष्ण ने कहा, "केवल रक्तपात को टालने के लिए तुम पांडव भाई एक बार फिर वन जाने को तैयार हो गए या तुमने राज्य पर अपना दावा छोड़ दिया तो जितनी संख्या में इस युद्ध में लोग मारे जाएंगे, उससे कहीं अधिक संख्या में लोग तब तक मारे जाते रहेंगे जब तक दुर्योधन शासन करता रहेगा। "

पांडव सेनापति धृष्टद्युम्न ने कहा, "दुर्योधन विस्तारवादी है। अगर आप लोगों से उसका टकराव टल गया तो वह सबसे पहले पांचाल राज्य पर आक्रमण करेगा और युवराज अर्जुन, उस युद्ध में भी हजारों लोग मारे जाएंगे। फिर केवल पांचाल और विराट राज्य ही क्यों? उसकी दृष्टि मालवा, कलिंग, किरात, कौशांबी, विदेह, अंग, मगध आदि राज्यों को हड़पने की होगी। हो सकता है दुर्योधन अंग नरेश कर्ण को भी रास्ते से हटा दे। उसे कर्ण की जरूरत केवल तब तक है, जब तक पांडवों से चुनौती है। "

धृष्टद्युम्न की बात का समर्थन करते हुए नकुल ने कहा, "निरंकुश दुर्योधन अपने मित्र देशों की भी परवाह नहीं करेगा। महाराज धृतराष्ट्र के बाद सीधे शासन में आ जाने पर वह रावण और कंस की तरह ही घोर अत्याचारी सिद्ध होगा। "

सहदेव ने इस मंत्रणा में अपने विचार रखते हुए कहा, "गंभीर विषय केवल हताहत सैनिकों और योद्धाओं की संख्या का ही नहीं है। पिछले कई वर्षों में हस्तिनापुर के प्रशासन में दुर्योधन के हस्तक्षेप से कुव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो रही है। किसान , श्रमिक, व्यापारी सभी दुखी हैं। हम भविष्य में जाने की बात करते हैं लेकिन अगर यही हाल रहा तो दुर्योधन और उसकी मित्र मंडली के कुकर्मों के कारण यह भारतवर्ष सैकड़ों साल पीछे चला जाएगा। "

मंत्रणा के समापन अवसर पर वासुदेव श्री कृष्ण ने अपना अभिमत दिया था, "जब जलाशय में वर्षों से ठहरा हुआ पानी गंदा और मलिन हो जाए, तो उसकी सफाई आवश्यक हो जाती है। मेरी दृष्टि में वर्तमान विध्वंस के बाद ही नवसृजन होगा। हालांकि मानवता इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकाएगी। यह बहुत बड़ी विडंबना है कि आज की स्थिति में तो युद्ध अपरिहार्य ही है। "

सभी पांडव योद्धाओं ने समवेत स्वर में कहा था -हम वासुदेव श्री कृष्ण के मत से सहमत हैं। 

बैठक में अर्जुन ने अश्वत्थामा के पास ब्रह्मशीर अस्त्र होने का प्रसंग भी उठाया था। अपने लक्ष्य पर जा कर यह 12 वर्षों के लिए उस स्थान को निर्जन और बंजर कर सकता था। भगवान कृष्ण ने कहा था-यह सच है कि ब्रह्मशीर के साथ-साथ अश्वत्थामा नारायणास्त्र और ऐसे अन्य घातक अस्त्रों का संधान कर सकता है, क्योंकि उसमें अर्जुन के प्रति एक अलग तरह के प्रतिशोध और ईर्ष्या का भाव हमेशा बना रहता है, इसलिए हमें अतिरिक्त सतर्कता और सावधानी बरतनी होगी। 

शिविर में आने के बाद अर्जुन ने युद्ध क्षेत्र के लिए प्रस्थान की तैयारी की। पांडव कुरुक्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्र में थे। यह सरस्वती की एक सहायक नदी हिरण्यवती के तट के पास था। कौरव कुरुक्षेत्र के पूर्वी भाग में थे। रणभूमि के रूप में पाँच योजन (वर्तमान लगभग 40 किलोमीटर) की जगह छोड़ी गई थी। अर्जुन आज प्रातः उठने के बाद सबसे पहले सरस्वती नदी की एक धारा हिरण्यवती के भी दर्शन कर आए थे। स्थान-स्थान पर हजारों की संख्या में पड़ाव थे, जहाँ पांडव सैनिक ठहरे हुए थे और एक पूरे का पूरा बड़ा नगर वहाँ आबाद हो चुका था। अर्जुन की  पहली खिन्नता इन्हीं पड़ावों और महायुद्ध की तैयारियों में व्यस्त सैनिकों को देखकर ही आई। वे सोचने लगे कि युद्ध समाप्त होते-होते आखिर इनमें से कितने सैनिक बचेंगे? अर्जुन मन में विचार करने लगे थे कि हमारी सात अक्षौहिणी सेना अर्थात लगभग पंद्रह लाख सैनिक और कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी सेना अर्थात लगभग 24 लाख सैनिक;न जाने इनमें से कितने बचेंगे और अपने घरों को लौट पाएंगे? वे सोचने लगे कि क्या इस युद्ध को टाला नहीं जा सकता था?

पाठशाला में रसोईया पुत्र के प्रश्नों के कारण अर्जुन के मन की उद्विग्नता और बढ़ गई थी लेकिन अपने शिविर में लौटने के ठीक पहले दो सैनिकों के आपसी वार्तालाप ने उनके मन को ढाढ़स दिया था। यह वार्तालाप शुरू होते-होते अर्जुन ने पुनः अपने मुख और सिर को उत्तरीय से ढक लिया था और एक जगह शिविर के पर्दे को ठीक करने के बहाने वे उनकी बातें सुनने का प्रयास करने लगे थे। 

एक सैनिक कह रहा था- आखिर यह युद्ध तो एक दिन होना ही था। सर्वाधिक योग्य होते हुए भी हमारे महाराज युधिष्ठिर और अन्य पांडव दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। 

दूसरे ने कहा -सही कहते हो और सचमुच वासुदेव कृष्ण की सलाह अगर दुर्योधन मान लेता और पाँच गांव से भी पांडव संतोष कर लेते, तब भी दुर्योधन के प्रभाव वाला शासन जारी रखने के लायक तो बिल्कुल नहीं है। 

पहला सैनिक- सत्य कहा मित्र, ऐसे अन्यायी शासन को तो समूल नष्ट करना चाहिए। एक ही बात दुखद है कि लघुस्तर पर युद्ध हो सकता था पर कौरवों ने पूरे भारत भर से सेनाओं को बुलाकर इसे एक विनाशक युद्ध बना दिया है। 

दूसरा सैनिक- मित्र अगर विनाश अवश्यंभावी है नवसृजन के लिए, तो इसमें बुराई क्या है? और फिर कुमार अर्जुन के रहते इतना विनाश होगा नहीं। वे इस युग के सबसे बड़े योद्धा हैं और अकेले ही युद्ध जीतने की क्षमता रखते हैं। वासुदेव के मार्गदर्शन में अगर वे अपने अनुसार युद्ध लड़ें और दुर्योधन ने आसुरी शक्तियों तथा छल की सहायता से युद्ध को आगे नहीं खींचा तो दो दिनों में ही विजय मिल जाएगी। यह सुनकर अर्जुन मन ही मन मुस्कुरा उठे। दूसरे ही क्षण उनकी आंखें डबडबा आईं कि अत्यधिक जनहानि को रोकने के लिए वाकई इस युद्ध में उन्हें अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना होगा। 

कुछ ही क्षणों में अर्जुन का शिविर सामने था और वे यह विचार करते-करते भीतर प्रवेश करते हैं कि मैं कहां इस युद्ध से विमुख होने के बारे में सोच रहा था और एक सबसे आखिरी चरण के सैनिक इस युद्ध और उसके भावी परिणाम को लेकर इतने आशान्वित हैं। 

युद्ध के लिए तैयार होते-होते उन्हें माता कुंती के कहे गए आखिरी शब्द याद आने लगे- पुत्र , पूरे प्राण प्रण से युद्ध करना, क्योंकि यह एक धर्म युद्ध है। इसके लिए तुम्हें पूरी शक्ति लगानी होगी। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। विजयी भवः। 

अपने शरीर पर कवच धारण करते हुए अर्जुन फिर कुछ सोचने लगे और उन्हें पांचाली का मुख याद आ गया। हस्तिनापुर की द्यूत सभा में अपमानित पांचाली उनके अग्रज महाराज युधिष्ठिर से प्रश्न कर रही थी- आपने पहले स्वयं को दांव पर लगाया या मुझे?और स्वयं को हार जाने के बाद आपको मुझे दांव पर लगाने का अधिकार कहां से था? क्या एक नारी का कोई आत्म सम्मान नहीं?

अर्जुन सोचने लगे- मैंने तब स्वयं को इतना विवश पहले कभी अनुभव नहीं किया था। और फिर वन में लाक्षागृह से लेकर गांव-गांव भटकने व अज्ञातवास के कष्टों को लेकर अर्जुन का मन क्षोभ से भर उठा था। अनेक वर्षों तक माता कुंती भी उनके साथ वनों के कष्ट सहती रहीं, जिन्हें राजमाता के रूप में राजप्रासाद में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करना था। 

सेवक ने अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित होने में अर्जुन की सहायता की। अपने गांडीव धनुष को अर्जुन ने श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और अपने तूणीर में घातक बाणों को सज्जित किया। अंत में अर्जुन ने शिरस्त्राण धारण किया और कक्ष के एक कोने में चतुर्भुजी भगवान विष्णु की प्रतिमा के समक्ष दंडवत हो गए। अब अर्जुन पांडवों के मुख्य शिविर की ओर रवाना हुए , जहां वासुदेव कृष्ण, पांडव सेनापति धृष्टद्युम्न, सभी प्रमुख योद्धाओं और सभी पांडवों को एकत्र होना था। भीतर प्रमुख आसन पर वासुदेव कृष्ण विराजमान थे। मुख मंडल पर सदैव की तरह दैवीय आभा, मोर पंख का मुकुट, पीत वसन और एक हाथ में चिरपरिचित बांसुरी । होठों पर स्मित मुस्कान। आत्मविश्वास व ओज से दमकता हुआ संपूर्ण सुदर्शन व्यक्तित्व। ब्रह्मांड के नियंता, सृष्टि के पालक। धरती पर श्रेष्ठ नर के रूप में। 

अर्जुन ने किंचित विलंब होने के कारण कुछ सकुचाते हुए वासुदेव और अन्य वरिष्ठ योद्धाओं को प्रणाम किया। भगवान कृष्ण ने 'आयुष्मान भवः' कहते हुए ठिठोली की:-

-कहां रह गए थे अर्जुन? कहीं आज का तुम्हारा ध्यान लंबा तो नहीं खिंच गया?

- नहीं जनार्दन, कुछ अन्य कारणों से विलंब हो गया। 

- अरे नहीं अर्जुन, कोई विलंब नहीं हुआ है। मैं तो केवल परिहास कर रहा था। आओ आसन ग्रहण करो। 

अर्जुन ने आसन ग्रहण किया । सब लोग पहले से उपस्थित थे। वासुदेव कृष्ण अब महायुद्ध की योजना समझाने लगे। उन्होंने पांडवों को सैन्य व्यूह रचना के बारे में बहुत सी बातें बताईं। बहुत देर तक मंत्रणा चली और अंततः सब ने वहां से निकलकर युद्ध भूमि के लिए प्रस्थान किया। 

युद्ध क्षेत्र की ओर प्रस्थान करने के क्रम में सबसे पहले पांचों भाइयों ने आपस में भेंट की और गले मिले। फिर सबने अपने-अपने रथ की ओर प्रस्थान किया। सैनिकों का विशाल जनसमूह सैन्य शिविरों से लगभग एक किलोमीटर की दूरी से ही आगे की ओर शुरू हुआ था और अपार जनराशि दिखाई दे रही थी। बीच-बीच में गगनभेदी नारे लग रहे थे। 

-धर्म की जय हो। 

- अधर्म का नाश हो। 

- पांडवों की जय हो, जय हो , विजय हो। 

भगवान कृष्ण पहले ही रथ के पास पहुंच चुके थे। समीप आए अर्जुन ने हाथ जोड़कर पहले तो उन्हें प्रणाम किया फिर उनके पास आकर घुटनों के बल बैठकर चरण स्पर्श और वंदना की। 

-प्रणाम वासुदेव

-आयुष्मान भवःअर्जुन, विजयी भवः। 

अर्जुन ने कहा- हे केशव!इस महायुद्ध में मैं अपने मार्गदर्शक के रुप में आपसे युद्ध में पूर्ण विजय तक सतत दिशानिर्देश का निवेदन करता हूं और यह प्रार्थना भी करता हूं कि मेरे युद्ध रथ के श्रेष्ठ संचालन के लिए आप इसका चालक बनाना स्वीकार करें और मुझे कृतार्थ करें। 

अपने मुख पर चिर परिचित मुस्कान के साथ वासुदेव कृष्ण ने कहा- तथास्तु अर्जुन!आओ रथ पर आरूढ़ हो। तुम अपने संकल्प, अपने परिश्रम, अपने चातुर्य और अपने रण कौशल से अवश्य ही विजयश्री का वरण करोगे। 

युद्ध के मैदान में सर्वप्रथम भगवान कृष्ण के निर्देश पर अर्जुन ने मां महाकाली की आराधना की और उनसे विजय का वरदान प्राप्त किया। 

अर्जुन एक बार पुनः भगवान कृष्ण को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं। रथ की ध्वजा पर हनुमान जी विराजमान हैं। अर्जुन घुटनों के बल पुनः भूमि पर बैठ जाते हैं और अपना ललाट धरती से लगाकर हनुमान जी की वंदना करते हैं और रथ पर आरूढ़ होते हैं। 

भगवान कृष्ण ने रथ को गति दी। आज महाभारत के युद्ध के मैदान में अर्जुन अपने रथ पर हैं। महाभारत का चिर प्रतीक्षित युद्ध शुरू होने वाला है। अर्जुन दूर तक जहां दृष्टि दौड़ाते हैं, उन्हें सैनिकों का अपार जनसमूह दिखाई देता है। यह एक विचित्र युद्ध है, जब दोनों पक्षों में एक ही परिवार के सदस्य शत्रु बनकर एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े हैं। दोनों ओर हजारों अश्व, हाथी, रथ और लाखों पैदल सैनिकों की चतुरंगिनी सेना है। जहां तक अर्जुन देख पा रहे हैं, सैनिकों के हाथों में घातक अस्त्र-शस्त्र हैं। यह युद्ध अब अपरिहार्य हो गया है, जिसे टालने के लिए वासुदेव कृष्ण के नेतृत्व में पांडवों ने अपनी ओर से संपूर्ण प्रयत्न किया था।