(6) जीने का आनंद
अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा, "आपके द्वारा बताए गए इस मार्ग में समत्वरूप और निश्चयात्मक बुद्धि की प्रधानता है और अगर यही आवश्यक है तो आपने मुझे प्रारंभ में कर्म की महत्ता बताकर कर्म करने के लिए प्रेरित क्यों किया था? कृपया एक निश्चित बात कहिए जिससे मेरा कल्याण हो। "
भगवान श्रीकृष्ण ने समझाया, "कोई एक मार्ग सत्य नहीं है अर्जुन। एक मार्ग पर चलते हुए भी हम अन्य विधियों का सायास या अनायास उपयोग करते जाते हैं। अपने पवित्र लक्ष्य को बनाए रखते हुए परिस्थिति के अनुसार एक से अधिक मार्गों को भी अपनाना पड़ता है। अगर मैंने तुम्हें ध्यान और योग के माध्यम से बुद्धि तथा ज्ञान की स्थिरता का महत्व बताया तो इससे कर्म करने का महत्व कम नहीं हो जाता है। "
अर्जुन ने पूछा, "वह कैसे प्रभु?"
श्री कृष्ण, "संसार में कोई भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता है। स्वयं मैं कर्मों के बंधन से बंधा हूं। मैंने इस धरती पर एक मानव के रूप में मुझे मिले सभी दायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वहन करने का प्रयत्न किया है। मैंने गोपालन और गाय चराने से लेकर शस्त्र उठाने जैसे कार्य को भी आनंद पूर्वक और पूरे मनोयोग से किया है। "
भावविभोर होते हुए अर्जुन ने कहा, "मुझे ज्ञात है प्रभु और साधारण जन के सेवा कार्य में आपकी इसी असाधारणता ने आपके हाथों से ब्रजमंडल की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत को भी धारण करवा दिया था। "
मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने कहा, "अर्जुन जब कार्य करोगे तब तो कार्यों को छोड़ने या त्यज्य कर्मों के त्याग का प्रश्न उठेगा। जो कर्मों से विरक्त होकर एकांत साधना करते हैं, आखिर उनका श्वास लेना, उनका आवश्यकता के अनुकूल शयन करना या अल्पाहार ग्रहण करना; ये सब भी तो कर्म हैं। उस ज्ञान के मार्ग में भी तो कर्म है। और जब यहां तुम युद्ध क्षेत्र में अपने बाणों से निशाना साधते हो तो क्या तुम एकाएक बाण छोड़ देते हो या अपने समस्त कौशल और ज्ञान का प्रयोग कर सही दिशा और हवा की गति आदि का अनुमान लगाकर बाण छोड़ते हो? तुम्हारे गहरे तक डूबे कर्म में भी ज्ञान तत्व है। बुद्धि है। संयम है। "
अर्जुन, "समझ गया प्रभु ज्ञान और कर्म की अवधारणा एक दूसरे की विरोधी नहीं है बल्कि पूरक है। "
श्री कृष्ण, "कर्म नहीं करने या जीवन रूपी युद्ध के मैदान से अलग होने से अच्छा है मैदान में उतरना और परिस्थितियों का सामना करना। ऐसी स्थिति में कर्म नहीं करने से कर्म करना श्रेयस्कर है। हां कर्म को यज्ञ रूप कर देना अच्छा है। कर्मों को सात्विकता प्रदान करना चाहिए। "
अर्जुन, "कर्मों को यज्ञ रूप प्रदान करना क्या है प्रभु!"
श्री कृष्ण, "कर्मों में अगर जनकल्याण का अंश शामिल हो जाए तो यह यज्ञ रूप हो जाता है अर्जुन! यज्ञ सामूहिकता की अभिव्यक्ति है।
इसलिए हे कौन्तेय तुम आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का अच्छी तरह से आचरण करो। "
गुरु के आश्रम में यज्ञोपवीत संस्कार के समय ही गुरु द्रोणाचार्य ने यज्ञ की अवधारणा के संबंध में भी कौरवों और पांडवों को अवगत कराया था। उन्होंने कहा था,
"यज धातु से बने यज्ञ का अर्थ होता है- आहुति देना या अर्पित करना। यज्ञ का अर्थ शहद, घी, अक्षत समिधा(प्रज्वलन हेतु लकड़ी), फल, जौ, तिल, आदि हविष्य सामग्रियों को स्वाहा अर्थात सही रीति से देवताओं तक पहुंचाना तो है। इससे शुद्ध और लाभदायक पदार्थ पूरे वायुमंडल में फैलते हैं। राजकुमारों यज्ञ के अर्थ को विस्तृत रूप में लेना चाहिए। वह अर्थ है- राज्य और राज्य की जनता के लिए सेवा, त्याग तथा बलिदान के कार्य। लोक कल्याण की अग्नि में तुम्हें स्वयं को समर्पित करने के लिए तैयार रहना चाहिए। याद रखो राजकुमारों! तुम्हारा जीवन एक यज्ञ ही है। राजकुमार केवल अपने परिवार के नहीं होते। पूरा देश ही उनका परिवार होता है। "
युधिष्ठिर:जी गुरुदेव! आप यज्ञ के अन्य रूपों पर भी प्रकाश डालिए।
आचार्य:धर्मशास्त्रों में हर एक गृहस्थ को रोजाना पंचमहायज्ञ करना जरुरी माना गया है और तुम लोगों को भी इसका ज्ञान होना चाहिए। "
इस पर युवराज युधिष्ठिर ने गुरु से कहा था, "इसे और स्पष्ट करिए गुरुदेव!"
आचार्य ने विस्तार से इस पर प्रकाश डालते हुए कहा था-ईश्वर के प्रति अपने संपूर्ण समर्पण से उन्हीं के आदेश पर कार्य करने की भावना से किए जाने वाले कार्य ब्रह्म यज्ञ हैं। अग्नि में समिधा अर्पित कर सुगंधित और मूल्यवान पदार्थों को अर्पित कर भक्ति भाव से देवताओं तक पहुंचाना ही देव यज्ञ है। इससे आसपास का वातावरण भी शुद्ध होता है। कोई व्यक्ति यज्ञ के पावक में द्रव्यों को अर्पित कर स्वास्थ्यवर्धक धुएं और उस परिवेश को अपने परिवार के साथ-साथ पूरे परिवेश में पहुंचाता है। माता-पिता गुरु आदि बड़ों की सेवा और यहां तक कि उनकी देहांतर अवस्था में भी उनका स्मरण और शास्त्र निर्दिष्ट कार्य ही पितृ यज्ञ है। नृ यज्ञ अतिथि सेवा के लिए है। भौतिक वस्तुओं का दान, परोपकार आदि भूत बलियज्ञ है। "
तब अर्जुन छोटे थे और यज्ञ की विस्तृत अवधारणा को समझ नहीं पाए थे। आज कुरुक्षेत्र के युद्ध से पूर्व जब श्री कृष्ण ने कहा कि
"तुम आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का अच्छी तरह से आचरण करो, "तो अर्जुन को यज्ञ की अवधारणा पूरी तरह से समझ में आ गई। अगर वे व्यक्तिगत लड़ाई लड़ेंगे तो वह युद्ध होगा लेकिन अगर वे पूरे राज्य के कल्याण के लिए आसन्न युद्ध को करेंगे, तो यह यज्ञ रूप होगा।