कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 11 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 11

11: साधना और प्रेम का संतुलन

अर्जुन ने कहा, " जब सब कुछ योगमय है। तो अनेक योगी साधना के पथ पर असफल क्यों दिखाई देते हैं?"

श्री कृष्ण, "मैंने संसार से अध्यात्म के मार्ग पर चलने की बात की। उसी तरह अध्यात्म के पथ पर चल रहे व्यक्तियों के मन में अगर सिद्धियों की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य रह जाए तो यह भी एक खतरनाक स्थिति है। अगर ईश्वर से कामना रहित भक्ति न रखी जाए तो यह भी सांसारिक कामनाओं के समान ही दोष युक्त है। "

अर्जुन, "मैं समझ गया प्रभु! एक संन्यासी में त्याग भावना होती है। उसी तरह योग की भावना और अभ्यास भी तभी पूर्णतः सफल होता है जब मनुष्य में त्याग की भावना हो। "

अर्जुन भावविभोर हो उठे। वे सोचने लगे, श्री कृष्ण के वचनों में भक्ति, ज्ञान और कर्म की त्रिवेणी है। एक ओर मुझे कर्म में प्रवृत्त करने की दृष्टि से भगवान कृष्ण का किया जा रहा आह्वान कर्म के महत्व को प्रतिपादित करने वाला  है। वहीं मेरे प्रश्नों व उनकी शंकाओं के समाधान के क्रम में भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान और भक्ति के महत्व पर भी विस्तार से प्रकाश डाला है। वास्तव में किसी एक मत का अनुसरण करने का यह अर्थ नहीं है कि दूसरे दार्शनिक मत का प्रभाव ही न हो। सचमुच, मनुष्य का जीवन भी इसी तरह समय-समय पर अनेक अवस्थाओं व स्थितियों से गुजरता है। कभी जीवन में कर्म का कठोर संघर्ष पथ होता है, तो कभी आंतरिक ऊर्जा, शांति और प्रेरणा प्राप्त करने के लिए ज्ञान व ध्यान। कभी ह्रदय की प्रसन्नता के लिए हम भक्ति में डूब जाते हैं। 

भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे यही समझाया है कि जीवन में धुर भौतिकता के प्रति त्यागदृष्टि होना अत्यंत आवश्यक है। योग साधना के लिए विक्षोभकारी संकल्पों का त्याग होना ही चाहिए। कारण यह कि सांसारिकता लिए हुए ये संकल्प किसी भी मार्ग पर चलने के समय हमें भ्रमित कर सकते हैं। 

श्री कृष्ण पुनः घोषणा करते हैं, "लोग जिसको संन्यास कहते हैं, उसी को तुम योग समझो;क्योंकि किसी भी योग की सफलता के लिए(सांसारिक) संकल्पों का त्याग आवश्यक है। योग और कर्म दोनों मार्ग व्यर्थ संकल्पों से युक्त होने पर असफल हो जाते हैं। "

अर्जुन, "इसे और स्पष्ट करिए प्रभु!"

श्री कृष्ण, "सुनो अर्जुन!जीवन के पथ पर प्रत्येक स्थिति में संतुलन का होना आवश्यक है। मार्ग चाहे जो भी चुनो। जीवन में संतुलन का होना आवश्यक है। जीवन में कर्म और ज्ञान योग की संकल्पना एक दूसरे की विरोधी नहीं बल्कि एक दूसरे की पूरक है। जो मनुष्य योग(समत्व की स्थिति) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगी के लिए कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्य का शम (शान्ति) परमात्म की प्राप्ति में साधन बन जाता है। "

अर्जुन एक क्षण के लिए फिर विचारमग्न हो गए। योग के साधकों के लिए कर्म आवश्यक है और जब साधक योग के पथ पर आगे बढ़ कर उस संतुलन अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तो यही ईश्वर की प्राप्ति में सबसे बड़ा सहायक बन जाता है। शुरुआत कहीं से भी करें अंततः ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए कर्म और योग की संतुलन अवस्था, दोनों का अपना महत्व है। कर्म अगर आत्म कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ने का प्रारंभिक चरण है तो फिर धीरे-धीरे यह हमें योग मार्ग पर उन्नत करता है और एक ऐसी अवस्था प्राप्त होती है जब हम उस शम या संतुलन की अवस्था को प्राप्त करते हैं और फिर आगे का जीवन आनंद से परिपूर्ण हो उठता है। यह आनंद है - अड़चनों बाधाओं मुश्किलों और कठिनाइयों के बीच भी समभाव धारण किए हुए अपने मार्ग पर सहजता से आगे बढ़ते रहना। 

अर्जुन ने अपने जीवन में इस संतुलन को साधने का प्रयत्न किया है। भ्राता भीम बलशाली है लेकिन जल्दी ही क्रोधित हो जाते हैं। महाराज युधिष्ठिर नीति और विनय में संपूर्ण है लेकिन उनके स्वभाव में वह आक्रामकता तब भी नहीं आ पाती है, जब दुष्टों के सामने इसकी विशेष आवश्यकता होती है। अर्जुन वीर हैं। धैर्यवान हैं। प्रतिभाशाली हैं। अर्जुन के जीवन में आक्रामकता के साथ - साथ धैर्य का संतुलन भी है। धनुर्विद्या और योग की उच्च अवस्था की साधना है तो द्रोपदी के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा भी है। यहां भी अर्जुन अपने अन्य भाइयों के पांचाली के प्रति प्रेम के कारण अपने वैयक्तिक प्रेम में मर्यादा का पालन करते हैं।