23.सबमें तू
सब जगह अपने स्वरूपको देखने वाला योग से युक्त आत्मा वाला और ध्यान योगसे युक्त अन्तःकरण वाला योगी अपने स्वरूप को सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है। साथ ही वह सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूप में देखता है।
एक उदारवादी पांडव राजकुमार होने के बाद भी अर्जुन के मन में हमेशा यह बात रहती थी कि संसार के प्रत्येक प्राणी से एक समान व्यवहार नहीं किया जा सकता है। दुर्योधन के नेतृत्व में कौरव पक्ष से मिले गहरे घावों के कारण अर्जुन की यह मान्यता दृढ़ होती जाती थी। वही जब भगवान श्री कृष्ण ने परमात्मा तत्व की सर्वव्यापकता बताते हुए सभी प्राणियों में स्वयं को देखने और स्वयं में सभी प्राणियों को अनुभूत करने का उपदेश दिया तो अर्जुन विचार मग्न हो गए।
उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से जिज्ञासा प्रकट की।
अर्जुन: अब सारे संसार में केवल मेरे या कुछ व्यक्तियों के ऐसा उदार दृष्टिकोण रखने से ही क्या होगा केशव? जब अधिकतर लोग या सभी लोग ऐसा दृष्टिकोण रखेंगे, तब ही आपके इस लोक कल्याण का उद्देश्य पूरा हो पाएगा।
श्री कृष्ण मुस्कुरा उठे। उन्होंने कहा।
श्री कृष्ण: अर्जुन सभी प्राणियों में उस व्यक्ति के बाह्य आकार - प्रकार, आचरण आदि के यथार्थ और दूसरे की मनोवृत्ति को प्रभावित करने वाला होने के बाद भी तुम्हें उस व्यक्ति के भीतर परमात्मा तत्व को देखना है। ठीक उसी तरह सभी प्राणियों को मुझ परमात्मा तत्व के भीतर भी देखना है। सभी व्यक्ति की आत्मा में ईश्वर हैं। मैंने पहले भी कहा है कि ऐसा दृष्टिकोण रखने पर तुम्हारे मन की कलुषता समाप्त हो जाएगी। दुष्ट व्यक्ति में दुष्टता तो दिखाई देगी लेकिन उसके भीतर बैठे हुई उस परम सत्ता को देखने की बड़ी भावना रखना चित्त के शुद्धिकरण के लिए आवश्यक है।
अर्जुन :तो इसका मतलब ऐसा दृष्टिकोण रखने वालों पर आपका विशेष अनुग्रह रहता है?
श्री कृष्ण: (हंसते हुए) हां अर्जुन! ऐसा व्यक्ति तो अपनी सोच में सीधे मुझसे ही जुड़ा रहेगा ना? मुझे उसका ध्यान कैसे नहीं रहेगा?
जो सब में ईश्वर को देखता है, वह अपनी व्यापक दृष्टि के कारण ईश्वर तत्व के परिवेश में जीता है। वह सृष्टि के कण-कण में ईश्वर को देखता है। अर्जुन को भक्त प्रहलाद की कथा का स्मरण हो आया। हिरण्यकश्यप ने पूछा था - कहां है तेरा ईश्वर?
प्रह्लाद ने कहा था- हर जगह हैं ईश्वर। जल में, थल में, वायु में , आकाश में, वृक्षों में , पौधों पत्तों में, पर्वत में, हर कहीं ईश्वर हैं। कहां नहीं हैं ईश्वर?
हिरण्यकश्यप: तो क्या इस खंबे में में भी है तुम्हारा ईश्वर?
प्रह्लाद: हां, वे इसमें भी हैं।
अर्जुन के मौन को भांपते हुए भगवान श्री कृष्ण ने कहा:पार्थ! किस सोच में डूब गए?
अर्जुन :कुछ नहीं वासुदेव ! आपने ईश्वर की अवधारणा को इतना विस्तार दे दिया है कि मुझे भी हर कहीं उस ईश्वर की प्रतीति हो रही है। मैं आंख बंद करता हूं, तो आप दिखाई देते हैं।
श्री कृष्ण: और ईश्वर केवल सब जगह दिखाई ही नहीं देते हैं अर्जुन, बल्कि साधक जो भी दैनिक कार्य करता है तो समझ लो कि वह ईश्वर के लिए यह कर रहा है। ईश्वर का कार्य कर रहा है। ईश्वर में डूब कर कार्य कर रहा है। कुल मिलाकर उसका हर कार्य व्यापार ईश्वर के साथ है।
अर्जुन: हे प्रभु! ऐसी व्यापक दृष्टि मुझमें कब विकसित होगी?
श्री कृष्ण ने हंसते हुए कहा: तुम केवल एक श्रेष्ठ योद्धा ही नहीं बल्कि एक संवेदनशील मानव भी हो। इसी संवेदना ने तुम्हारे भीतर भीषण रक्तपात को लेकर संदेह भी व्यक्त कर दिया। संवेदना की अति मात्रा सही नहीं है और यही मैं तुम्हें समझाने की कोशिश कर रहा हूं लेकिन उस संवेदना का स्वयं के भीतर होना उस ईश्वर तत्व को पाने की ललक का प्रारंभिक चरण है।