12:आनंद का सूत्र
अर्जुन के कानों में श्रीकृष्ण द्वारा कहे गए ये वाक्य अभी भी गूंज रहे हैं:"जो मनुष्य योग(समत्व की स्थिति) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगी के लिए कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्य का शम (शान्ति) परमात्म की प्राप्ति में साधन बन जाता है। "
अर्जुन ने जिज्ञासा प्रकट की, "साधक के लिए इस बात का निश्चय कैसे हो कि ठीक मार्ग सीधे योग का है या सांसारिक साधने में प्रवृत्त होते हुए किसी एक बिंदु पर आनंद अवस्था प्राप्त कर लेना है। साधना और व्यवहार का मार्ग इस तरह का नहीं है प्रभु कि मुझ जैसे साधारण साधक के लिए इतने कोस चल लेने के बाद अब अमुक चरण शुरू होगा, इस बात का निश्चय कैसे हो?आखिर उस बिंदु की जांच कैसे होगी या उस बात की अनुभूति कैसे होगी कि अब हमारा पथ ठीक- ठीक उस दिशा में है जहां अब ईश्वर के क्षेत्र में पहुंचने के लिए और कोई सांसारिक व्यवधान उपस्थित नहीं होगा।
श्री कृष्ण, "इसके लिए योगारूढ़ अवस्था आवश्यक है अर्जुन! याद रखो। जिस समय व्यक्ति न इन्द्रियों के भोगों में तथा न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस समय वह सम्पूर्ण संकल्पों का त्यागी मनुष्य योगारूढ़ कहा जाता है। मनुष्य के बंधन के कारण इंद्रियों के विषय और इंद्रियों का उसमें प्रवृत्त हो जाना है। भोगों में उसकी स्वाभाविक आसक्ति होती है। इसके साथ-साथ एक और भयंकर स्थिति है- कर्मों में हमारा आसक्त हो जाना। "
अर्जुन, "आपने सही कहा भगवन! कर्म चाहे वे हमारे सांसारिक उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले हों या आध्यात्मिक उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले, अगर हमने जो रास्ता चुना है उसमें हम आसक्त रह गए अर्थात यह भाव मन में रखने लगे कि मैं अच्छा कर रहा हूं और मेरे इस कार्य से मैं ईश्वर के साधना के पथ पर आगे बढ़ रहा हूं तो यह अपने उद्देश्य में कल्याणकारी होने पर भी साधक को उसके पथ से विचलित कर देने में समर्थ हो जाता है। यह कुछ ऐसे बात हो गई कि वैराग्य लेने के बाद भी हमने अपने उस एकांत में एक गृहस्थी बसा ली है। हम उस न्यूनतम आवश्यकता वाली स्थिति में भी (जो एक भी चीज अपने पास होना आवश्यक मानते हैं उसके बिना) जल बिन मछली की तरह तड़पने लगते हैं। यह तो ईश्वर का पथ नहीं हुआ। आपने मेरा उचित मार्गदर्शन किया है। "
अर्जुन विचार करने लगे। अगर हम अच्छे कार्य कर रहे हैं तो कर्तव्य समझकर कर रहे हैं। उन कार्यों के करने में अगर हमारी आसक्ति बनी रही कि हम अच्छा होने के लिए कार्य कर रहे हैं या समाज हमें अच्छा कहेगा तो फिर साधना के पथ पर हम जैसे थे वाली स्थिति में ही रहेंगे।
योगरूढ़ होने का अर्थ है हमारा मन इस स्तर तक तैयार है कि जो चीजें हमारे सामान्य कामकाज के संचालन के लिए भी आवश्यक हैं तो वहां हम इस बात के लिए भी तैयार रहें कि अगर वह न मिले तो मन में कोई पश्चाताप न हो और हम वैकल्पिक साधनों से अपना कार्य आगे बढ़ाने की कोशिश करें।
श्रीकृष्ण ने आगे समझाया, "योगरूढ़ होने की अवस्था में मनुष्य का आचरण अत्यंत नियंत्रित और स्व-संतुलित हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को न सिर्फ स्वयं आत्मनिर्भरता वाला जीवन जीना चाहिए बल्कि अन्य लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करना चाहिए। "
अर्जुन, "हां केशव मैं समझ पा रहा हूं कि दूसरों से रखे जाने वाली कोई अपेक्षा अगर ठीक समय पर पूरी नहीं हुई तो सारा गणित गड़बड़ा जाता है और स्वयं पर भरोसा रखने वाला व्यक्ति अगर संभावित मदद न मिलने के लिए भी मानसिक रूप से तैयार रहता है तो महत्वपूर्ण अवसर पर उसे कष्ट नहीं होता। "
कृष्ण: "इतना ही नहीं कोई दूसरा व्यक्ति नहीं अर्जुन, मनुष्य अपने द्वारा अपना उद्धार स्वयं करता है और हानि भी स्वयं ही पहुंचाता है, क्योंकि मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है। "