कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 37 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 37

37.जो चाहा वो पाया

श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि जो व्यक्ति जीवन की समापन बेला के समय ईश्वर का स्मरण रख पाता है, वह मुझे प्राप्त हो जाता है। 

इस कथन पर विचार करते हुए अर्जुन ने सोचा कि श्री कृष्ण का यह अपने भक्तों को कितना बड़ा आश्वासन है। मनुष्य के लिए माया मोह से युक्त संसार में विशेष रुप से जीवन की पूर्णता के समय में ईश्वर का स्मरण रख पाना एक लंबे अभ्यास के बाद ही संभव है। वृद्धावस्था में आने के बाद नेतृत्व कर रहे व्यक्ति को इसकी बागडोर युवा हाथों में सौंपना चाहिए और उन्हें प्रशिक्षित करने में सहायता देना चाहिए। यथार्थ में यह नहीं होता और व्यक्ति मृत्यु तक सिंहासन या अपनी निर्णायक स्थिति  से चिपका रहना चाहता है। 

श्री कृष्ण ने अपने वचन के अनुसार दार्शनिक परिभाषाओं को स्पष्ट करना शुरू किया। 

श्री कृष्ण: ब्रह्म, जिन्हें तुम ईश्वर कहते हो, वह अक्षर तत्व है जिसका कभी विनाश नहीं होता, जो सनातन है, चिरंतन है, स्थाई है। जो सृष्टि के आरंभ से है और सृष्टि के समापन काल में भी रहेगा और आने वाले अनेक सृष्टियों के सृजन में भी उसी की सर्वोपरि भूमिका होगी। अध्यात्म जीवात्मा को कहा गया है, जो शरीर में उस ईश्वर का स्वरूप है। सृष्टि के आरंभ से जड़ प्रकृति को क्रियाशील करने का ईश्वर का संकल्प ही त्याग है। सृष्टि के जीवों की वैयक्तिक स्थिति में त्याग, विचलन या स्थापन ही कर्म है। (8/3)

अर्जुन: क्या सृष्टि में केवल जीव ही अधिभूत हैं?

श्री कृष्ण: इनके साथ- साथ सृष्टि के सभी पदार्थ जो उत्पत्ति और विनाशशील हैं, वे सब भी अधिभूत हैं। ईश्वर का ब्रह्मांड रूप ही अधिदैव है। सृष्टि के सभी प्राणियों के भीतर स्थित परमात्मा ही अधियज्ञ रूप हैं और वे अंतर्यामी रूप से उपस्थित हैं। (8/4)

अर्जुन: समझा प्रभु! सभी प्राणियों के भीतर स्थित परमात्मा अधियज्ञ हैं, जिन्हें सद्कर्मों की आहुति दी जानी चाहिए। 

अर्जुन मन में विचार करने लगे। यह श्री कृष्ण का विशिष्ट दृष्टिकोण है और उन्होंने कुछ ही वाक्यों में सृष्टि के संचालक ईश्वर से लेकर प्रत्येक प्राणियों में स्थित उनके रूप का बड़ा ही सटीक चित्रण कर दिया। साथ ही उन्होंने एक बार फिर से मनुष्य को यज्ञमय कार्यों का निर्देश भी दे दिया जो उनके आत्म कल्याण के लिए अत्यंत आवश्यक है। 

अर्जुन ने एक बार अपने गांडीव धनुष की ओर देखा। अर्जुन ने भावावेश में आकर इसे रथ की सतह पर रख दिया था। 

एक बार द्रौपदी ने अर्जुन से पूछा था, "तो क्या आप अपने धनुष को मुझसे भी अधिक प्रेम करते हैं?"

अर्जुन: तुम्हें ऐसा संदेह क्यों हो रहा है पांचाली?

द्रौपदी:इसलिए कुमार! क्योंकि आप एक क्षण भी इस धनुष को अपने से दूर नहीं रखते हैं। मुझे तो यही प्रतीत होता है कि आपका विवाह इस धनुष से ही हो गया है। यह आपके निज साम्राज्य की पटरानी है और मैं इसकी सौत हूं। 

अर्जुन: ऐसा मत कहो द्रौपदी! यह धनुष मुझे प्रिय अवश्य है लेकिन यह मेरे जीवन में तुम्हारा स्थान नहीं ले सकता है। 

द्रौपदी का स्मरण कर अर्जुन के मुख पर मुस्कान आ गई। उन्होंने सोचा कि मेरे द्वारा धनुष का प्रयोग और बाणों का संधान करना भी तो यज्ञ ही है। 

उधर श्री कृष्ण गूढ़ दार्शनिक सूत्रों की विवेचना कर रहे हैं। 

श्री कृष्ण: इस संसार के प्राणी अवस्था बढ़ने के साथ-साथ अपनी मोह माया से कहा निवृत्त हो पाते हैं पार्थ? न वे अपने अधिकारों में कटौती चाहते हैं, न अपनी सुविधा में। इंद्रियों के शिथिल होते जाने पर भी उनकी कामनाएं समाप्त नहीं होतीं। उन्हें तो एक अवस्था के बाद अपने जीवन की अगली महायात्रा की तैयारी करनी चाहिए और इसके लिए ईश्वर के स्वरूप को जानना, उनके ध्यान में डूबना प्रारंभ कर देना चाहिए। ऐसा करने के स्थान पर वे मोह- माया के दलदल में और भी अधिक धंसने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति देह के समापन अवसर पर ईश्वर को कहां याद रख पाएंगे? इसका तो उन्हें अभ्यास ही नहीं है। 

अर्जुन: जी प्रभु! आपने यह उचित ही कहा है कि जीवन के अंत काल में जो मुझे स्मरण करता हुआ प्राण त्यागता है, वह साक्षात मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। (8/5)

श्री कृष्ण: अर्जुन! मनुष्य अपने अंत काल में जिस- जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह उसी भाव और स्वरूप को प्राप्त होने की ओर बढ़ता है। (8/6)

आधुनिक काल में गीता के श्लोकों की विवेचना करते हुए आचार्य सत्यव्रत ने द्वापर युग के संदर्भों को आज के परिवेश में स्पष्ट किया। विवेक ने पूछा, "हे गुरुदेव! जीवन भर की गति और कर्मों की लंबी श्रृंखला के बाद जब एक व्यक्ति के देह की पूर्णता होती है और वह एक नई यात्रा के लिए तैयार होता है, उस समय के प्राप्त विवरण के अनुसार अनेक लोगों को भारी कष्ट की अनुभूति होती है। ऐसा क्यों है?"

आचार्य सत्यव्रत: इसके लिए कोई एक कारण उत्तरदाई नहीं है अर्जुन! जन्म लेने के समय भी कष्ट की अनुभूति और देह के समापन के समय भी किंचित कष्ट की अनुभूति यह तो प्रकृति का भी शाश्वत नियम है कि एक नई शुरुआत से पूर्व विक्षोभ की स्थिति बने, अन्यथा अगर हर चीज हर समय संतुलित बनी रहेगी तो फिर किसी परिवर्तन या नवसृजन की आवश्यकता क्यों होगी? मनुष्य इस तरह के परिवर्तनों के लिए अगर स्वयं को तैयार रखे तो कष्ट की अनुभूति नहीं रहती। आखिर कष्ट है क्या? शारीरिक पीड़ा से बढ़कर यह मन में होने वाली पीड़ा की ही तो अनुभूति है। 

विवेक: समझ गया गुरुदेव!