कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 36 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 36

36.तैयारी महायात्रा की

अर्जुन हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र की मनोदशा पर विचारकर क्षुब्ध हो उठते हैं। समाज की आश्रम व्यवस्था के अनुसार वे अपने जीवन के चतुर्थ चरण में हैं अर्थात उन्हें संन्यास की तैयारी शुरू करना चाहिए, लेकिन वे हैं कि मोह माया से चिपके हुए हैं। वे महाराज युधिष्ठिर को उनका वास्तविक अधिकार देने के स्थान पर उन्हें वन- वन भटकने को मजबूर कर रहे हैं। वनवास और अज्ञातवास को अवधि पूरी होने के बाद भी महाराज धृतराष्ट्र ने पुत्र मोह के आगे समर्पण करते हुए पांडवों को उनका राज्य लौटाने से मना कर दिया। स्वयं श्रीकृष्ण शांतिदूत बनकर कौरव पक्ष को समझाने के लिए हस्तिनापुर गए लेकिन मूर्ख दुर्योधन ने उन्हें ही बंदी बनाने का प्रयत्न किया। साक्षात श्री कृष्ण की अवहेलना करने के बाद भी धृतराष्ट्र हठधर्मिता कर रहे हैं। जीवन यात्रा की पूर्णता और शरीर के समापन का समय निकट आने के बाद भी धृतराष्ट्र न सिर्फ अपने सिंहासन से चिपके हुए हैं बल्कि सांसारिक मोह- माया से भी उन्होंने अपने आपको स्वयं जकड़ रखा है। अर्जुन सोच रहे हैं, यह सत्ता का मद है या अपने पुत्र की शक्ति को लेकर उनका अति आत्मविश्वास है या कुछ और, यह वे स्वयं जानें। 

ईश्वर त्रिकालदर्शी हैं। वे सभी प्राणियों का भूत, भविष्य और वर्तमान सब जानते हैं। वर्तमान देह की यात्रा की पूर्णता के समय मनुष्य की स्थिति यह हो जानी चाहिए कि वह सांसारिक मोह माया, राग- विराग, सांसारिक आकर्षणों और बंधनों से मुक्त होने का अभ्यस्त हो चुका हो और उसका ध्यान ईश्वर के श्री चरणों में केंद्रित रहता हो। 

सृष्टि के संचालन में अपनी विराट भूमिका की विवेचना करने के बाद श्री कृष्ण ने सभी प्राणियों को इससे संबद्ध होने का मार्ग भी बताया। चित्त के शुद्धिकरण के लिए ईश्वर का ध्यान अति आवश्यक है और जीवन की वृद्धावस्था में इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि मोह माया के अचूक अस्त्रों को काटने में प्रभु सुमिरन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ऐसा करने से व्यक्ति इस देह के समापन अवसर के लिए तैयार रहता है। जब शरीर की अन्य इंद्रियां संपूर्ण सक्रियता से कार्य नहीं कर पाती है तब की अपने उस आनंदित हृदय और प्रभु भक्ति में डूबे मन की सहायता से मनुष्य जीवन के अंतिम क्षणों में अपनी सक्रियता बनाए रख सकता है। 

श्री कृष्ण ने जैसे अर्जुन के मन की बात जान ली। उन्होंने आगे कहा। 

श्री कृष्ण: हे अर्जुन! जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव तथा अधियज्ञ के सहित मुझे जानते हैं, वे युक्तचित्त वाले पुरुष अन्तकाल में भी मेरा स्मरण रख पाते हैं। (7/30)

अर्जुन: अद्भुत प्रभु! वृद्धावस्था के बाद मृत्यु समय को लेकर मनुष्य चिंतित और भयभीत रहता है लेकिन जो आपके ध्यान में डूबा हो उसे मृत्यु का डर कैसा?वह जीवन के इस अनिवार्य सत्य को बड़ी सहजता के साथ स्वीकार कर लेता है। 

श्री कृष्ण ने हंसते हुए कहा, "हां पार्थ! लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य ईश्वर के ध्यान में डूबने के साथ-साथ उसके विराट अस्तित्व, उसकी क्षमताओं और उसकी शक्ति से परिचित रहे, तभी उसे उसमें वह वृहद दृष्टिकोण विकसित होगा और वह संसार की व्यर्थता को जानने में समर्थ हो जाएगा, फिर उसका ध्यान लगना सहज ही है। "

अर्जुन ने कहा, "आपने अभी कुछ विशिष्ट शब्दों की चर्चा की है केशव !मुझे उनके बारे में जानना है। मुझे बताइए कि ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत और अधिदैव आपने किसे कहा है? हे केशव यह अधियज्ञ कौन है और शरीर में उसकी उपस्थिति कैसी है?"

श्री कृष्ण: हां अर्जुन! तुमने एक साथ मुझसे अनेक प्रश्न पूछ लिए हैं। मैं एक-एक कर इन्हें स्पष्ट करता हूं। 

अर्जुन सोचने लगे, ज्ञात हुआ है कि संजय के पास दूरदृष्टि है और वह वह महाराज धृतराष्ट्र को इस युद्ध क्षेत्र में घटित होने वाली संपूर्ण गतिविधियों का आंखों देखा हाल बताएगा। काश महाराज धृतराष्ट्र जीवन के समापन समय पर मोह माया से दूर रहकर ईश्वर के ध्यान में डूबने के संबंध में केशव द्वारा दिए जा रहे मार्गदर्शन का मर्म समझ पाते।