कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 38 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 38

38.ईश्वर से ही पूर्ण है यह संसार

जीवन की पूर्णता के अवसर पर मनुष्य द्वारा ईश्वर का स्मरण रखने की विशेषताओं का वर्णन करते हुए श्री कृष्ण कहते हैं, "वह भक्त अंत काल में भी अपने योग बल से भृकुटी के मध्य में अपने प्राण को अच्छी तरह स्थापित करता है और फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस परम पिता परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है। "(8/10)अर्जुन ने सोचा कि श्रीकृष्ण ने भक्त शब्द का प्रयोग किया है। जीवन के समापन के समय इतनी उच्च कोटि की साधना अंततः कितने लोग कर पाते होंगे?

अर्जुन श्री कृष्ण की इस बात का तारतम्य उनके द्वारा पूर्व में कहे गए इन वचनों से जोड़ने लगे कि अगर मनुष्य दिन- रात ईश्वर के ध्यान में डूबा रहेगा तो फिर इस निरंतरता में कोई विराम होने का प्रश्न ही नहीं है। ऐसा व्यक्ति कष्ट और पीड़ा में भी भगवान का स्मरण रख पाता है और ऐसे व्यक्ति की इस देह का समापन ईश्वर लीनता की स्थिति में ही होता है। 

अर्जुन इस बात को समझते हैं कि सारी सृष्टि में ईश्वर है। सृष्टि के कण-कण में ईश्वर है और यत्र तत्र सर्वत्र एक सौंदर्य बिखरा हुआ है। इस प्रकृति सौंदर्य का आनंद वही व्यक्ति ले पाता है, जिसके पास विशिष्ट आंखें होती हैं। धनुर्विद्या के अभ्यास के साथ-साथ अर्जुन एकांत साधना करते हैं, जिसमें वे अपनी आंखें बंद कर भृकुटी पर ध्यान केंद्रित कर अपने मन में उमड़ घुमड़ रहे प्रश्नों के समाधान जानने का प्रयत्न करते हैं। एक बार सभी भाई वन प्रांतर में भ्रमण को निकले। वन के वृक्ष, लताओं, पुष्पों, फलों को देखकर सभी भाई आनंदित थे। उन्होंने रथ छोड़ दिया और पैदल ही चलने लगे। कुछ ही दूरी पर एक पर्वत प्रदेश था। भ्राता युधिष्ठिर अपने स्वभाव की गंभीरता के अनुरूप वनों की शोभा को निहारते हुए भी गंभीर चिंतन मनन में डूबे हुए थे। भीम एक विशाल पाषाण खंड को अपने स्थान से हटाने की कोशिश करने लगे। नकुल और सहदेव आनंद पूर्वक पेड़ पौधों, वृक्षों की बनावट और इस पर्वत प्रदेश का सामरिक आकलन करने में जुटे हुए थे। रूप और सौंदर्य के धनी नकुल की सौम्यता उनके मृदु व्यवहार और बातचीत से ही झलकती है। सहदेव धर्म शास्त्रों के ज्ञान और चिकित्सा विज्ञान में निपुण हैं। वे अच्छे ज्योतिषी भी हैं। सहदेव, नकुल को इस वन प्रदेश के इतिहास और यहां घटित होने वाली भावी घटनाओं की जानकारी दे रहे हैं। इन सब से दूर अर्जुन एक पेड़ के नीचे बैठकर विचारमग्न हैं। अर्जुन हर क्षण उत्साह से भरे हुए हैं। उनके जीवन का उद्देश्य केवल और केवल जनकल्याण है इसलिए किसी नागरिक के द्वारा कहीं से भी उन्हें अन्याय होने की सूचना मिलती है, वे तत्काल उस ओर सहायता देने के लिए भागते हैं। आज भी अर्जुन मानव के सम्मुख उपस्थित होने वाली कठिनाइयों, चिंताओं को दूर करने का कोई सूत्र तलाश करना चाहते हैं। बहुत देर तक सोचने विचारने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बिना वासुदेव श्री कृष्ण के हम पांडव अधूरे हैं। जब अर्जुन ने प्रकृति की ओर देखा तो उन्हें लगा कि मैं ही क्यों, हम पांडव ही क्यों?यह सारी सृष्टि ईश्वर के बिना अधूरी है। 

अर्जुन यात्रा करते-करते अतीत में चले गए थे लेकिन श्री कृष्ण की इस वाणी ने उन्हें फिर झकझोरा। श्री कृष्ण अंतर्यामी है और एक तरह से अर्जुन के विचारों को दृढ़ करने के लिए उन्होंने कहा। 

श्री कृष्ण, "हे अर्जुन यह सारी सृष्टि उस ईश्वर के अंतर्गत है और उस परमात्मा से ही यह सारा संसार संपूर्ण होता है। वह परम पुरुष तो सनातन है। अव्यक्त है और एक निष्ठ अनन्य भक्ति भाव से ही प्राप्त होने योग्य है। "(8/22)

अर्जुन ने कहा, " धन्य हो प्रभु! मैं जिस प्रश्न पर विचार कर रहा था उसका उत्तर आपने बिना पूछे ही प्रदान कर दिया। "