41.मैं हूं तेरे साथ खड़ा
अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा, क्या आप भक्तों के लिए स्वयं भी उतने ही व्यग्र रहते हैं जितना कि भक्तों आपके लिए?
श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, "अवश्य अर्जुन!ईश्वर को भी सुपात्र की तलाश होती है। भक्तों की तलाश होती है, जो कृपा के अधिकारी हैं। जो भक्तजन मुझ ईश्वर को निरंतर बिना किसी कामना के आनंद पूर्वक भजते हैं और मुझे प्राप्त करना चाहते हैं , मैं ऐसे निरंतर चिंतन करने वालों को भगवत प्राप्ति की उपलब्धि कराने में स्वयं योग करता हूं और उनके समस्त साधनों की रक्षा का उत्तर दायित्व भी मैं स्वयं उठाता हूं।
अर्जुन: हे प्रभु! आपके अतिरिक्त अन्य देवी देवताओं की पूजा करने वालों की क्या गति होती है?
श्रीकृष्ण :जो जिसको पूजता है, वह उसको प्राप्त होता है और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं, इसीलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता।
श्री कृष्ण के शांति दूत बनकर हस्तिनापुर जाने और वहां दुर्योधन द्वारा कुटिलतापूर्वक उन को बंदी बनाने का असफल प्रयास किए जाने का समाचार अर्जुन को ज्ञात था। अर्जुन मन ही मन दुर्योधन की मूर्खता पर एक बार हंसे। अर्जुन जानते हैं कि श्रीकृष्ण को आडंबर और दिखावे की भक्ति नहीं चाहिए और वह सुख सुविधाओं और ऐश्वर्य के साधनों से भी प्रसन्न नहीं होते हैं। यही कारण है कि वे अपनी हस्तिनापुर यात्रा की अवधि में दुर्योधन का आमंत्रण अस्वीकार कर महात्मा विदुर की कुटिया में ठहर गए थे। एक तरह से इस प्रसंग की पुष्टि करते हुए श्री कृष्ण आगे कहने लगे, " हे अर्जुन जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्ते फूल, फल, जल आदि कुछ भी अर्पण करते हैं, क्योंकि वे बिना कामना के सहज अर्पण और भक्ति के भाव में ऐसा करते हैं, इसलिए मैं सगुण रूप में भी प्रकट होकर उनके द्वारा दी गई भेंट को स्वीकार करता हूं और प्रेम पूर्वक खाता हूं।
अर्जुन: क्या ईश्वर को अर्पण केवल श्रेष्ठ कर्मों के रूप में या प्रेम पूर्वक दी गई भेंट के रूप में ही होता है?
श्री कृष्ण:ऐसा नहीं है अर्जुन!तुम जो कर्म करते हो, जो खाते हो, जैसा हवन करते हो, दान देते हो, जो तप करते हो या जो भी कार्य करते हो, वह सब मुझे अर्पित करते हुए करो क्योंकि मुझे अर्पित करने करके किए जाने वाले कार्य के सभी शुभ अशुभ फलों के बंधन से तुम मुक्त हो जाओगे क्योंकि मैंने पहले ही भक्तों के सारे योग क्षेम संवहन करने का आश्वासन दिया हुआ है।
अर्जुन ने पूछा, ही प्रभु क्या आपके भक्तों की भी कोई श्रेणी है?
श्री कृष्ण: मैं समस्त प्राणियों में समभाव से व्यापक हूं। न कोई मुझे प्रिय है और न कोई अप्रिय, परंतु जो भक्त मुझे प्रेम से स्मरण करते हैं, वे मुझ में व्याप्त हैं और मैं भी उनमें प्रकट होता हूं और उनकी अंतरात्मा में अपनी उपस्थिति का भान कराते रहता हूं।
अर्जुन:समझ गया प्रभु!जिस तरह अग्नि सर्वव्यापक है लेकिन उसे प्रज्वलित करने का उपाय करने पर ही वह प्रकट हुआ करती है वही स्थिति आपके भक्तों के साथ भी आपकी है।
अर्जुन: आपके लिए सभी समान हैं तो एक दुराचारी व्यक्ति अगर केवल आपका भजन कर ले या आपका ध्यान लगाने लगे तो वह भी किस तरह आप का प्रिय हुआ? यह तो आपके वास्तविक भक्तों के साथ अन्याय है ना?
श्री कृष्ण:ईश्वर का भजन और पाप कर्म एक साथ नहीं हो सकते हैं। अगर उस मनुष्य ने ईश्वर का ध्यान शुरू कर दिया है तो यह तो स्पष्ट है कि उसने अपने मन में ईश्वर के मार्ग में बढ़ने का निश्चय कर लिया है। ऐसे में उसे साधु बनने में देर नहीं लगेगी।
अर्जुन: जी प्रभु एक ऐसा उदाहरण पहले निषिद्ध कर्म में प्रवृत्त रत्नाकर(ऋषि वाल्मीकि) का भी है, जिन्होंने भक्ति मार्ग शुरू करने के बाद प्रभु राम की महागाथा सबसे पहले लिखी थी।
श्री कृष्ण: सत्य कहा अर्जुन!