कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 39 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 39

39.तुमने संवारा जीवन

श्री कृष्ण अभी परमात्मा स्वरूप में हैं। अर्जुन उनके मित्र तो है लेकिन मित्र के साथ साथ उनके भक्त भी हैं। वह अनुभव कर रहे हैं कि श्री कृष्ण के मुख मंडल पर आज एक ऐसा तेज है, जो आज से पहले उन्होंने कभी नहीं देखा है। आज श्री कृष्ण जैसे संपूर्ण ज्ञान उन्हें प्रदान कर देना चाहते हों, ताकि उनके जीवन में कभी संशय और भ्रम की स्थिति निर्मित न हो। 

श्री कृष्ण आगे कह रहे हैं मैं इस संपूर्ण संसार को धारण करने वाला हूं। सभी कर्मों के फल को देने वाला हूं। (9/17)

यूं तो श्रीकृष्ण पहले भी कर्मवाद के सिद्धांत की व्याख्या कर चुके हैं। अर्जुन को संचित कर्म, प्रारब्ध और क्रियमाण कर्मों का भी ज्ञान है। अर्जुन श्री कृष्ण के इस कथन का विशेषण करने लगे कि श्री कृष्ण सभी कर्मों के फल को देने वाले हैं। 

श्री कृष्ण के इस कथन का उल्लेख करते हुए आधुनिक काल में विवेक ने आचार्य सत्यव्रत से पूछा, "ऐसा कैसे संभव है गुरुदेव कि ईश्वर  प्राणियों के सभी कर्मों के फल को देने वाले हैं। व्यक्ति तो अपने पुरुषार्थ और अपने कार्यों का फल प्राप्त करता है। अगर सभी फल ईश्वर प्रदान करते हैं तो फिर प्राणियों के पास तो केवल उनकी आराधना और पूजा का ही एकमात्र काम शेष रह जाना चाहिए। ऐसे में मनुष्य को कर्म करने की क्या आवश्यकता है?"

आचार्य सत्यव्रत: श्री कृष्ण ने कर्मों के फल को देने की बात कही है। उन्होंने यह नहीं कहा है कि चाहे जैसे कर्म करो, अच्छे फल मिलेंगे। उनके कहने का यह अर्थ भी नहीं है कि मनुष्य आलस्य और अकर्मण्यता को अपनाए। 

विवेक: तो इसका अर्थ यह है गुरुदेव कि ईश्वर इस फल प्रदान करने की प्रक्रिया में बिल्कुल भी हस्तक्षेप नहीं करते हैं

आचार्य सत्यव्रत: ऐसा नहीं है विवेक! ईश्वर मनुष्य को मिलने वाले प्राकृतिक न्याय और कर्मों के फल की स्वाभाविक व्यवस्था में एक सीमा तक हस्तक्षेप नहीं करते। लोग अपने अच्छे कर्मों से अपना भाग्य बदल लेते हैं। अनेक लोग प्रारब्ध में संचित पुण्य को इस जन्म के अपने पाप कर्म और बुरे कार्यों में संलिप्तता से गंवाने लगते हैं। अगर भाग्य में विपरीत फल लिखा हुआ है, तब भी अपने अच्छे कार्यों और निरंतर परिश्रम से अनेक लोग इस जन्म में अपने प्रारब्ध को भी एक सीमा तक परिवर्तित कर देते हैं और अपने जीवन को सफल बनाने में सक्षम हो जाते हैं। ईश्वर का ध्यान, उनकी कृपा प्राप्ति, उन्हें सदा स्मरण रखना और संकट के समय उन्हें पुकारना; ये ऐसे कार्य हैं जो हमारे इस जन्म के कार्यों को भी कल्याणकारी बनाते जाते हैं और इनका उत्तम फल मिलने लगता है। 

उधर कुरुक्षेत्र में श्री कृष्ण द्वारा स्वयं को फलों को प्रदान करने वाला बताए जाने पर अर्जुन मुस्कुरा उठे। 

अर्जुन: जी वासुदेव! आप अच्छे प्राणियों की सहायता करते हैं और साथ ही प्रयास और पुरुषार्थ के आधार पर बुरे व्यक्तियों को भी अपने कर्मों को परिष्कृत करने तथा सुधार का अवसर देते हैं। आप की न्याय व्यवस्था में जब दो लोगों द्वारा एक समान कर्म किए जाने पर भी एक सा फल प्राप्त नहीं होता तो इसके पीछे ये कारण विद्यमान हैं कि आपकी फल व्यवस्था केवल तात्कालिक कार्यों के परिणाम देने तक ही सीमित नहीं है बल्कि व्यक्ति के पूर्व कर्मों के आकलन के आधार पर एक सकल परिणाम देने की होती है। यह संतुलित असंतुलित करने का कार्य भी बड़ा ही सूक्ष्म है प्रभु! कुल मिलाकर आप किसी भी प्राणी से भेदभाव नहीं करते हैं। 

श्री कृष्ण: सत्य है अर्जुन इन बातों से अनभिज्ञ कुछ मनुष्य सफल होने पर ईश्वर को श्रेय दें या न दें लेकिन असफल होने पर दोषी अवश्य ठहरा देते हैं। ईश्वर को अपने कार्यों के बदले में किसी पारितोषिक की आवश्यकता नहीं है। 

श्री कृष्ण अर्जुन को आगे समझा रहे हैं कि ईश्वर से बड़ा अस्तित्व और किसका है? ईश्वर तो प्राप्त होने योग्य परमधाम हैं। विश्व का पालन पोषण करते हैं। वे सबके स्वामी हैं। सभी मनुष्यों के शुभ और अशुभ को देखने वाले हैं। वे सत्य हैं। वे मनुष्यों के सबसे बड़े शरणदाता हैं। मनुष्य उनकी शरण लेता है और वहां जाकर संपूर्ण असुरक्षा भाव से मुक्त हो जाता है। ईश्वर सबका हित करते हैं लेकिन बदले में कभी कोई उपकार नहीं चाहते। ईश्वर सभी की उत्पत्ति और विनाश के भी कारण हैं। वे सभी प्राणियों के अस्तित्व के आधार हैं, इसीलिए प्रलय काल में संपूर्ण प्राणी और संपूर्ण अस्तित्व के अभिव्यक्त रूप उसी ईश्वर तत्व में विलीन हो जाते हैं। ईश्वर अविनाशी हैं। संपूर्ण कार्यो के कारण हैं। (9/18)

आधुनिक काल में इन प्रसंगों की चर्चा करते हुए विवेक ने आचार्य सत्यव्रत से पूछा। 

विवेक: जब सब कुछ पहले से ही निर्धारित है और सृष्टि के आरंभ में ईश्वर तथा सृष्टि की पूर्णता और एक नई सृष्टि के प्रारंभ होने के पूर्व भी ईश्वर, तो फिर मानव की भूमिका क्या रह जाती है?

आचार्य सत्यव्रत ने कहा, "यह सच है कि ईश्वर कि व्यवस्था में मनुष्य स्वचालित रूप से अपना कर्तव्य निभाता है लेकिन उसे अपने वर्तमान जन्म में एक अवसर इन पूर्व निर्धारित कर्म बंधनों को उचित दिशा में मोड़ने का भी प्राप्त होता है। "

विवेक:"वह कैसे गुरुदेव?"

आचार्य सत्यव्रत: "ईश्वर रंगमंच के सूत्रधार हैं और मनुष्य अपनी भूमिका निभाता है, लेकिन यह जीवंत रंगमंच है। इसके पात्र कठपुतली के नहीं हैं। मानव हैं और वह अपनी बुद्धि उपयोग कर उस अभिनय को अधिक प्रभावी बना सकता है। अपने संचित कर्म फलों में परिष्कार का अवसर प्राप्त कर सकता है। मानव देह में आत्म सुधार का अवसर एक विलक्षण उपलब्धि है। ईश्वर की  पूर्वधारित व्यवस्था की मानव के लिए यह एक स्वायत्त स्थिति है। ईश्वर अपनी बनाई सृष्टि में भी निरंतर परिष्कार चाहते हैं और यही मानव के समस्त कार्यों और अन्वेषण का सबसे बड़ा स्रोत है। "