27.आकर्षण प्रेम का
उस जन्म के पूर्व पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि संयोग को अर्थात समबुद्धि रूप योग के संस्कारों को मनुष्य अनायास ही प्राप्त कर लेता है।
मानव जन्म श्रेष्ठ और दुर्लभ है इसमें हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति का प्रयास कर सकते हैं और पूर्व संचित संस्कारों और पुण्य कार्यों के प्रभाव को इस जन्म में भी प्राप्त कर सकते हैं। पांडव कुमारों को श्रेष्ठ मानव मूल्यों पर चलने की शिक्षा मिली है। जनता के सुख- दुख में हमेशा उनके साथ खड़े रहने वाले पांडव कुमार इसीलिए लोकप्रिय भी हैं।
भगवान कृष्ण ने वर्तमान मानव देह में ईश्वर प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ प्रयत्न करने का निर्देश दिया। अर्जुन ने पूछा: हे केशव! यह तो सच है कि मनुष्य का अपना एक स्वभाव होता है। एक मूल प्रवृत्ति होती है और वह इसके अनुरूप आचरण करता है। उदाहरण के लिए सज्जनों का स्वभाव ही है- लोगों की भलाई और मदद करना। ऐसे साधक को इस बात का संकेत कैसे मिलेगा कि उसकी राह सामान्य मनुष्यों के दैनिक आचरण से अलग मानव कल्याण और आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ने की है।
श्री कृष्ण ने कहा: मनुष्य के अपने प्रयत्न उसे ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ाते हैं और पूरी सृष्टि के कल्याण के लिए कार्य करने हेतु प्रेरित करते हैं। इसके साथ-साथ यह भी सत्य है कि एक श्रेष्ठ साधक को स्वयं भगवान अपनी ओर आकर्षित करते हैं। जिस तरह से चुंबक का स्वभाव लोहे को अपनी और आकर्षित करना होता है। उसी तरह से भक्त भी भगवान की ओर खिंचे चले जाते हैं।
अर्जुन: सत्य कहा भगवन!स्वयं मुझे भी कई बार ऐसी अनुभूति होती है कि मेरा जन्म किसी विशेष उद्देश्य के लिए हुआ है। जब मैं साधना कक्ष में ध्यान लगाकर बैठता हूं तो कई बार अपनी सुध-बुध खो बैठता हूं।
श्री कृष्ण: हां अर्जुन! इस युद्ध के पूर्व तुम्हारा अचानक तार्किक और भ्रमित हो जाना भी इसी ओर संकेत करता है। पूर्व जन्म के संस्कारों के साथ इस जन्म में आगे की यात्रा शुरू करने वाले श्रेष्ठ साधक तो कर्मों के फल से प्रभावित होने की प्रवृत्ति का स्वत: ही अतिक्रमण कर जाते हैं।
अर्जुन मन ही मन सोचने लगे कि वासुदेव के प्रति मेरा ऐसा गहरा आकर्षण और भक्ति वर्तमान जन्म के मेरे वैयक्तिक प्रयत्नों के साथ-साथ निश्चित ही पूर्व जन्म की साधना का भी फल होगा।
अगर भक्त भगवान को पाने का प्रयत्न करते हैं तो भगवान स्वयं भक्तों को उनकी रूचि, उनके संस्कार, उनकी योग्यता देखकर स्वयं की ओर आकर्षित करते हैं।
अर्जुन को यह तो ज्ञात था कि श्री कृष्ण स्वयं ईश्वर हैं और विष्णु के अवतार के रूप में उन्होंने धरती पर जन्म लिया है। वासुदेव श्री कृष्ण ने अब तक के उपदेशों में जिस ईश्वर तत्व की चर्चा की है, अर्जुन उन सभी का क्षणभर चिंतन करते रहे। वे यह भी जान रहे हैं कि श्री कृष्ण कोई साधारण उपदेश नहीं दे रहे हैं, योगेश्वर स्वयं योगयुक्त अवस्था में हैं। अर्जुन को इस बात को लेकर भी कोई भ्रम नहीं है कि जहां वासुदेव "मैं", "मेरी ओर", "मुझमें" आदि शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, वहां वे ईश्वर होने के नाते ऐसा कह रहे हैं।
अर्जुन ईश्वर की प्रकृति के बारे में और अधिक जानने को उत्सुक हैं। बचपन में भी वे आकाश में सूर्य, चंद्र और नक्षत्रों को देखकर कौतूहल से भर उठते थे। धनुर्विद्या के अभ्यास के लिए खांडव वन में अकेले ही दूर तक निकल जाते थे। अर्जुन वहां की हरियाली, विशाल वृक्षों, वन-लताओं, पुष्पों, फलों आदि के रूप में प्रकृति की शोभा को देखकर मंत्रमुग्ध हो उठते थे। वहां अपना धनुष धरती पर टिका कर जब किसी पत्थर पर बैठकर सुदूर वन के भीतर झांकने की कोशिश करते थे तो उन्हें लगता था कि मैं किस लक्ष्य को पाने की कोशिश कर रहा हूं!आखिर इस सारी प्रकृति की रचना करने वाला है कौन?
आज कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं इस प्रश्न के उत्तर की ओर बढ़ रहे हैं। अर्जुन के मन की बात ताड़ते हुए उन्होंने कहा:-
हे पार्थ! तुम मेरे भक्त हो। तुम्हें मुझसे अनन्य प्रेम है। तुम वीर योद्धा, जिज्ञासु और श्रेष्ठ योगी भी हो। मैं जानता हूं कि तुम मेरे स्वरूप को संपूर्ण रूप में जानना चाहते हो। हजारों में कोई एक ही मुझे पाने का प्रयत्न करता है। इनमें से भी कोई एक मेरे प्रति समर्पित होकर मुझे यथार्थ रूप से जानने का प्रयत्न करता है।
अर्जुन के मन में गहरा संतोष भाव उभरा। श्री कृष्ण उन्हें वह तत्व ज्ञान देने वाले हैं, जिसे प्राप्त करने के बाद और कुछ भी जानना या पाना शेष नहीं रहता। वासुदेव मुझे इस योग्य समझ रहे हैं, यह मेरा सौभाग्य है। आगे मार्गदर्शन की प्रार्थना करते हुए अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण के सम्मुख अपना शीश झुकाया।