46.जीत स्वयं पर
स्वयं अर्जुन कृष्ण के बिना अपूर्ण है। श्री कृष्ण उनके प्रेरक और मार्गदर्शक हैं। वे सोचने लगे। कुरुक्षेत्र के युद्ध में केशव सदैव मेरे साथ रहेंगे लेकिन इस युद्ध के बाद क्या?वे तो वापस द्वारका लौट जाएंगे और अगर विजय मिली तो हम लोग हस्तिनापुर चले जाएंगे। तब ऐसे में मैं किस तरह श्रीकृष्ण से आगे मार्गदर्शन प्राप्त कर पाऊंगा?
श्री कृष्ण ने अर्जुन के मन की बात ताड़ ली। उन्होंने आगे कहा:-
श्री कृष्ण: तुम्हारे शरीर में स्थित आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। मैं तुम्हारे भीतर ही हूं अर्जुन! तुम्हारी वही आत्मा साक्षी होने से एक उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाले की भूमिका निभा सकती है। वह आत्मा जीव में भी है तो जीव से पृथक भी है। तुम्हारी आत्मा स्वयं में ज्ञान, चेतना और शक्ति का महापुंज है अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस संपूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है उसी प्रकार एक ही आत्मा संपूर्ण शरीर को प्रकाशित रखती है।
अर्जुन: हे प्रभु! आपने पहले भी सत्व गुण, रजोगुण और तमोगुण पर प्रकाश डाला है। आपने सत्व गुण की श्रेष्ठता बताई है तो इसका क्या कारण है!
श्री कृष्ण:सत्व गुण निर्मल है, ज्ञान से संबंधित है, आत्मा के शुद्धिकरण में सहायक है, इससे चेतना और विवेक शक्ति उत्पन्न होती है, यह इसीलिए श्रेष्ठ है।
अर्जुन :और रजोगुण? यह भी सृष्टि का एक प्रमुख कारक क्यों है?
श्री कृष्ण: इसलिए क्योंकि यही रजोगुण कामनाओं और आसक्ति का अनुवर्ती है। यह जीवात्मा को कर्म तथा उसके फल से बांध देता है। यह मनुष्य को लोभ, स्वार्थबुद्धि अशांति और विषय भोगों की ओर मोड़ देता है।
अर्जुन: अगर ऐसा है प्रभु तो सृष्टि में तमोगुण का अस्तित्व क्यों है?
श्री कृष्ण: अगर अज्ञानता रहेगी तभी तमोगुण आएगा क्योंकि यह मनुष्य को कर्तव्य कर्मों से पलायन की ओर ले जाता है। यह वृथा चेष्टाओं, प्रमाद, आलस्य और निद्रा से बांध देता है।
अर्जुन :समझ गया प्रभु सत्व गुण हमें सच्चे सुख और आनंद की खोज में लगाता है। तमोगुण सांसारिक कर्मों की ओर प्रवृत्त करता है तो रजोगुण ज्ञान को ढककर प्रमाद की ओर ले जाता है।
अर्जुन: हे प्रभु अपने जीवात्मा को अपना ही सनातन अंश कहा है तो क्या देहांत के बाद पुरानी देह का कोई भी अस्तित्व साथ नहीं जाता? केवल आत्मा स्थान परिवर्तन करती है?
श्री कृष्ण: नहीं अर्जुन! केवल आत्मा नहीं। जीवात्मा शरीर का त्याग करती है तो अपने साथ मन सहित इंद्रियों को भी ग्रहण कर नए शरीर में ले जाती है। कुछ इस तरह जैसे वायु गंध के स्थान से गंध को अपने साथ ग्रहण कर आगे ले जाती है। आत्मा के साथ यह एक तरह से सूक्ष्म शरीर की भी यात्रा हुई, दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश कर एक नया जीवन प्रारंभ करने के लिए।
अर्जुन: आत्मा तो स्वयं में ही शुद्ध पवित्र है, लेकिन इसके चारों तरफ जो मोह, स्वार्थ और अज्ञानता की परतें जम जाती हैं, इनसे बचने का क्या उपाय है?
श्री कृष्ण :काम , क्रोध और लोभ, ये तीनों नरक के द्वार हैं क्योंकि ये मनुष्य को सभी अनर्थ कार्यों के लिए प्रेरित करने वाले हैं। अतः मनुष्य को इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए।
आधुनिक काल में श्री कृष्ण के इन निर्देशों का अर्थ सुनने के बाद विवेक ने आचार्य सत्यव्रत से पूछा।
विवेक: अगर काम का पूरी तरह त्याग कर दिया जाए तो नव सृजन कैसे होगा? अगर क्रोध पूरी तरह समाप्त हो जाए तो दुष्ट लोगों से निबटने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति कहां शेष रहेगी? अगर लोभ जिसे हम प्रकारांतर से महत्वाकांक्षा कह सकते हैं, वह न हो तो यह मानव सभ्यता आगे कैसे बढ़ेगी? नई खोज और अन्वेषण कैसे होंगे!
इस पर आचार्य सत्यव्रत ने हंसते हुए कहा।
आचार्य सत्यव्रत: श्रीकृष्ण ने केवल अतियो का निषेध किया है। वे बार-बार धर्म अनुकूल काम, सात्विक क्रोध और निरंतर कर्म की बात करते ही आ रहे हैं। ये इन तीनों के सात्विक रूप ही तो हैं।