कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 49 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 49

49. वापस मिल गया खोया मन

अर्जुन के मन में संदेह के मेघ छंटने लगे थे और ज्ञान के सूर्य का उदय हो रहा था। आज तक उनसे किसी भी व्यक्ति ने इतनी आत्मीयता से उनके मन में उमड़ घुमड़ रहे प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया था और फिर अगले ही क्षण श्रीकृष्ण ने उन्हें सबसे बड़ा आश्वासन दे दिया। 

श्री कृष्ण: हे अर्जुन!तुम सभी कर्तव्य कर्मों को अपने निजपन द्वारा किए जाने की भावना का त्याग करते हुए उन्हें मुझ सर्वशक्तिमान ईश्वर के अभिमुख कर मेरी शरण में आ जाओ। अर्जुन, विजय और पराजय से बढ़कर अपना स्वधर्म निभाने के लिए तुम युद्ध लड़ो। युद्ध लड़कर योद्धा धर्म निभाओगे तो अपने संपूर्ण कर्मों को ईश्वरीय आज्ञा समझकर करने से इस योद्धा धर्म से भी ऊपर उठ जाओगे। अब तुम योद्धा धर्म से भी ऊपर उठ गए हो अर्जुन, क्योंकि अब तुमने ज्ञान प्राप्त कर लिया है। तुम ईश्वर के हो गए हो। तुम मेरे हो गए हो। 

अर्जुन :हां अच्युत! अब आपकी कृपा से मेरा मोह और भ्रम नष्ट हो गए हैं और मैंने अपनी वह स्मृति फिर से प्राप्त कर ली है जो मुझे एक योद्धा के रूप में शस्त्र उठाने को तत्पर करती है। अब मेरे मन में कोई संदेह नहीं है और मैं आपकी आज्ञा का पालन करने को तैयार हूं। 

यह संपूर्ण विवरण महाराज धृतराष्ट्र को सुनाते हुए दिव्य दृष्टि प्राप्त संजय ने कहा कि "हे राजा अब पांडवों की जीत सुनिश्चित है जहां स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और उनके भक्त तथा सखा गांडीव धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं श्री है, वहीं नीति है और वहीं पर विजय है। "

एक श्री कृष्ण कई अक्षौहिणी सेना पर भारी हैं। अर्जुन ने आज इसका प्रत्यक्ष अनुभव कर लिया है। कौरवों और पांडवों में चार अक्षौहिणी सेना का ही अंतर नहीं है, बल्कि मुख्य अंतर श्री कृष्ण के पांडवों के पक्ष में होने का है क्योंकि जहां श्री कृष्ण है, वहां विजय है, वहां सुख शांति और कल्याण है। 

अर्जुन श्री कृष्ण के दिव्य वचनों को सुनकर भाव विभोर हैं। निःशब्द हैं। उनके सारे प्रश्नों का समाधान हो गया है और न सिर्फ अर्जुन के मन में उमड़- घुमड़ रहे प्रश्नों का समाधान हुआ है, बल्कि मानवता भी इस सृष्टि के अंत तक अपने अबूझ प्रश्नों का उत्तर श्री कृष्ण अर्जुन के इस संवाद में अंतर्निहित सूत्रों के माध्यम से प्राप्त करती रहेगी। 

इधर अर्जुन कुछ क्षणों के लिए पुरानी स्मृतियों में खो गए हैं…….  द्यूत क्रीड़ा में पराजय से पांडवों को भारी क्षति पहुंची। राजपाट हाथ से निकल गया था और वे भिक्षुक जीवन बिताने को विवश हो गए थे। दु:शासन कुलवधू द्रौपदी को खींचकर भरी सभा में अपमानित करते हुए ले आया था। दुर्योधन ने तो द्रौपदी का भरी सभा में अपमान किया और दु:शासन को उनके वस्त्र हरण का निर्देश दे दिया। यह मानव सभ्यता के इतिहास की कलंकित कर देने वाली घटनाओं में शामिल है। महाराज धृतराष्ट्र, पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, नीति निपुण विदुर सभी देखते रह गए  भरी सभा में किसी ने भी विरोध नहीं किया। पराजित पांडव मन मसोसकर धरती पर चुपचाप सिर झुकाए हुए बैठे थे। महाबली भीम का हाथ बार-बार अपनी गदा की ओर और अर्जुन का हाथ बार-बार अपने गांडीव धनुष की ओर जा रहा था। …. इस घटना से अर्जुन के मन में कौरवों के प्रति एक स्थाई क्रोध ने जन्म ले लिया था। …. द्रौपदी ने महाराज युधिष्ठिर से प्रश्न किया कि आपने द्यूत क्रीड़ा में पहले मुझे हारा था या स्वयं को हारा था? न इसका उत्तर युधिष्ठिर दे पाए और न अर्जुन समेत अन्य पांडव। कुरुक्षेत्र में पहुंचने के बाद भी अर्जुन के मन में इस घटना की गहरे तक स्मृति है। अर्जुन की इच्छा तो युद्ध में उतरते ही पहले दिन से ही कौरव पक्ष में तांडव मचा देने की थी, लेकिन श्री कृष्ण का उपदेश सुनने के बाद उन्होंने सूझबूझ के साथ और पांडव पक्ष द्वारा बनाई हुई युद्ध मंत्रणा पर ही चलने का निश्चय किया। 

युद्ध शुरू होने से पूर्व श्री कृष्ण शांति दूत बनकर हस्तिनापुर गए थे। उन्होंने भरी सभा में महाराज धृतराष्ट्र को समझाते हुए कहा था। 

श्री कृष्ण: हे राजा मेरे यहां आने का उद्देश्य यह है कि बिना रक्तपात और योद्धाओं का संहार हुए बिना ही कौरवों और पांडवों में संधि हो जाए। दुर्योधन का आचरण एक क्रूर और लोभी व्यक्ति का है। आप राजा हैं। इस कुरुवंश के वरिष्ठतम सदस्य और प्रमुख भी हैं। कौरव और पांडव दोनों आपके वंशज हैं और दोनों में शांति कराना भी आपके ही हाथ में है। पांडवों ने आपकी आज्ञा से 12 वर्षों तक वन में रहने का और फिर 13 वां वर्ष अज्ञात रूप से बिताने का दुख भी भोगा है।