13: जग जीतें कि स्वयं को
हस्तिनापुर की राजनीति सदैव से जटिल रही है जहां कौरव और पांडव हमेशा द्वंद्व और शीत युद्ध की स्थिति में रहे हैं। एक ओर कौरवों के साथ सत्तारूढ़ महाराज धृतराष्ट्र और उनके प्रमुख सभासदों के रूप में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण हैं तो दूसरी ओर पांडव वन- वन भटकने वाले साधनहीन समूह के रूप में अपना कर्म कर रहे हैं। पांडवों ने स्वयं अपने जीने का मार्ग ढूंढा और कुरुक्षेत्र का युद्ध निर्धारित होने से पूर्व वासुदेव कृष्ण से उन्होंने सीधे सैन्य या भौतिक सहायता कभी नहीं ली। अर्जुन सोचने लगे। वास्तव में हम अनेक परिस्थितियों में किसी से मदद की अपेक्षा करते रहते हैं। हम अपने जीवन में किसी उद्धारक की प्रतीक्षा करते हैं या फिर ऐसे व्यक्ति की जिन्होंने अपने जीवन में कोई सफलता या उपलब्धि पहले ही प्राप्त कर ली हो। इसका एक बड़ा कारण यह है कि हमें स्वयं पर विश्वास नहीं होता है। हम किसी कार्य को करते समय सशंकित रहते हैं कि यह कार्य मुझसे सही तरह से होगा या नहीं और यह कि जो व्यक्ति अनुभवी है, वह इस कार्य में मेरी अच्छी तरह से सहायता कर सकता है। वास्तव में किसी से भी अपेक्षा रखना व्यर्थ है कि कोई व्यक्ति अपना काम छोड़कर किसी सहायता के लिए आएगा। अगर मदद मिली तो ठीक नहीं मिल पाई तो भी ठीक।
वासुदेव कृष्ण ने ठीक ही कहा है कि मनुष्य इस अर्थ में स्वयं अपना शत्रु है कि वह आत्म कल्याण और उन्नति के मार्ग को भूलकर अपनी शक्ति, ऊर्जा और संसाधनों को व्यर्थ के कार्यों और केवल सुखों व मनोरंजन आदि में व्यतीत कर देता है। वास्तव में क्षणिक सुख और भोग के साधनों को स्थायी बनाने की कोशिश में जुटा रहना मूर्खता है। दुर्योधन का राज्य हथियाने और पांडवों को राज्य से निर्वासित करने का प्रयत्न भी अपनी उसी असीमित भोगवृत्ति की पूर्ति के लिए है।
कर्म करने के बदले हम जीवन में चमत्कार की आशा रखते हैं। ईश्वर से प्रार्थना का प्रभाव होता है, लेकिन हमें अपने कर्मों से उसे प्राप्त करने की पात्रता भी तो प्राप्त करनी चाहिए। हम चाहते हैं कि हमें वह मिले, जो हमने मांगा है। ईश्वर वह देते हैं जो हमारे लिए उस विशिष्ट परिस्थिति में सर्वाधिक सही हो सकता था। इसके पीछे दीर्घकालिक परिणाम छिपे होते हैं लेकिन मनुष्य आसन्न परिस्थिति में अपने मन का न होता देखकर दुखी हो जाता है। पांडवों ने वनवास के समय का प्रयोग न सिर्फ अपनी सुरक्षा को सशक्त बनाने में किया बल्कि अनेक राज्यों से उनके लाभदायक राजनैतिक संबंध भी स्थापित होते गए थे।
किन परिस्थिति में मनुष्य अपना शत्रु स्वयं है और मित्र स्वयं है, इसे स्पष्ट करते हुए श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं:-
" जिस जीवात्मा द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है उस जीवात्मा का तो वह स्वयं ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इंद्रियों से शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह स्वयं ही स्वयं से शत्रु के समान व्यवहार करता है। "
प्रायः हम अपनी स्थिति के लिए दूसरे को दोषी ठहराते हैं। अर्जुन जानते हैं कि वास्तव में अपना सही मूल्यांकन नहीं कर पाने के कारण मनुष्य स्वयं को दोषी नहीं ठहराते और अपनी हर असफलता, हानि और पराजय के लिए दोषी ठहराने को कोई बाह्य कारक ढूंढ़ते हैं। वास्तविकता यह है कि इन परिस्थितियों के लिए मनुष्य स्वयं जिम्मेदार होता है। जिसका मन इंद्रियों के विषयों के पीछे नहीं भागता और मन जिसके अधीन है, उसने स्वयं की कामना, अनंत इच्छाओं और शरीर की आलस्य तथा भोगवृत्ति पर भी नियंत्रण स्थापित कर लिया। स्वयं पर जीत हासिल करने से तात्पर्य स्वयं पर नियंत्रण से है। यही है स्वयं का मित्र होना। ऐसा नहीं हो पाने और इंद्रियों की गुलामी करने पर मनुष्य स्वयं का ही शत्रु बन जाता है।
श्री कृष्ण के ये शब्द अर्जुन को गहरे तक प्रभावित कर गए कि मनुष्य स्वयं अपना ही मित्र है और स्वयं अपना ही शत्रु है। किसी दूसरे के कारण उसे नुकसान नहीं पहुंचता है, बल्कि मनुष्य स्वयं अपनी रक्षा, अपने आत्म कल्याण, अपने विकास के लिए सजग नहीं रहता है इसी से वह अपने ही हाथों अपनी हानि कर बैठता है और माध्यम बनते हैं दूसरे लोग।
अर्जुन ने भगवान कृष्ण की वाणी से सूत्र ग्रहण किया, "जिसने अपने-आप पर विजय प्राप्त कर ली है। शीत-उष्ण अर्थात जीवन की अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख तथा मान-अपमान में भी शांत अंतःकरण वाले मनुष्य को परमात्मा प्राप्त होते हैं। "
रावण और कंस की तरह के प्राणी सारी दुनिया में अपने यश, अपनी कीर्ति की पताका को फहराना चाहते हैं। लेकिन संसार जीतने के क्रम में वे स्वयं पर विजय न पा सके। उनका अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण न हो सका। अंततः वे आतताई और दुष्ट शासक के रूप में पहचाने गए।