33.आनंद से भी परे है वह महाआनंद
श्री कृष्ण ने अर्जुन को कामनाओं पर नियंत्रण का उपाय बताया है, "मन में संतोष स्वभाव और बुद्धि के द्वारा काम के आवरण को छिन्न-भिन्न करते हुए मन को अपने नियंत्रण में रखना आवश्यक है अर्जुन। "
अर्जुन विचार करने लगे कि अनेक बार वे अकारण उद्विग्न हो उठते हैं। श्री कृष्ण बार-बार प्रकृति के तीन गुणों और मानव के इनसे प्रभावित होने की चर्चा कर रहे हैं।
प्रकृति में तीन गुण सत्व, रजस और तमस हैं। श्री कृष्ण ने मनुष्य के संपूर्ण कार्यों को इन तीनों गुणों से प्रभावित बताया है। सृष्टि के प्रमुख तत्वों में निर्णायक तत्व के रूप में अपनी उपस्थिति बताने के बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा, "सभी भाव इन तीनों गुणों से उत्पन्न हुए हैं। वे मुझ ईश्वर तत्व से ही उत्पन्न हुए हैं और वे तीन गुण तथा उनसे उत्पन्न भाव मुझमें हैं, परंतु मैं उनमें नहीं हूं।
अर्जुन सोच में पड़ गए। अगर सब कुछ ईश्वर में है, ईश्वर से है लेकिन स्वयं ईश्वर उनमें नहीं हैं, तो इसका क्या अर्थ है?
अर्जुन ने पूछा, " हे प्रभु आप उस विराट परम आत्मा की सब जगह उपस्थिति की चर्चा करते हैं। आप यह भी कहते हैं कि मनुष्य की आत्मा में भी उसका अंश है। ऐसे में आपका यह कहना कि ईश्वर सबमें है लेकिन सब से परे है, यह मैं नहीं समझ पा रहा हूं। यह विभेदीकरण मुझे स्पष्ट नहीं हो रहा है। "
श्री कृष्ण ने समझाया, "सूर्य की किरणों में सूर्य का अंश है, लेकिन वे सूर्य नहीं हैं, सूर्य उनसे अप्रभावित है, पर स्वयं वे किरणें सूर्य पर निर्भर हैं। प्रकृति के ये 3 गुण और उनसे उत्पन्न होने वाले अनेक भाव और तदनुसार कार्य ईश्वर से उत्पन्न हैं, लेकिन वे ईश्वर का विकल्प नहीं हैं। ईश्वर के स्वरूप को जानने और उन्हें प्राप्त करने के लिए इन तीनों गुणों के प्रभाव क्षेत्र से भी ऊपर उठना होगा। "
अर्जुन, " आपने सत्य कहा प्रभु !मैंने स्वयं अपने जीवन में अनेक अवसरों पर इन तीनों गुणों के प्रभाव को स्वयं के ऊपर अनुभूत किया है। कई बार जब मैं धनुर्विद्या के अभ्यास में आलस्य भाव मन में लाता हूं, तो तमोगुण के प्रभाव में रहता हूं। जब स्वयं पर नियंत्रण पाकर निर्धारित कालखंड में अपने लिए लक्ष्य तय कर उसे भेदने का अभ्यास करता हूं, तो मन में कामनाएं होने के कारण यह रजोगुण का प्रभाव है। जब मैं इससे भी ऊपर उठ जाता हूं। स्वयं को धनुर्विद्या में पूरी तरह समर्पित कर देता हूं तो मेरे अनुसार मैं सतोगुण के प्रभाव में रहता हूं। यह धनुर्विद्या की मेरी साधना का उत्कर्ष बिंदु है। "
श्री कृष्ण, "तुमने सही कहा अर्जुन! जीवन में प्रधानता तो सत्व गुण की ही होना चाहिए। फिर भी सच्चा साधक इन तीन गुणों से भी ऊपर उठ जाता है। "
श्री कृष्ण: "सात्विक, राजस और तामस इन तीन प्रकार के भावों से यह सारा संसार मोहित है, इसलिए ईश्वर जो अविनाशी है और जो इन तीन गुणों से भी परे है उसे कोई नहीं जानता। "
अर्जुन:"उचित ही है आपका यह कथन प्रभु! क्योंकि संसार के लोगों को जो दिखाई देता है, वे केवल उसे ही सत्य मानते हैं लेकिन जिस सत्य को वे देखते हैं, अनेक बार वह स्वयं भ्रामक है और कई तरह के असत्य के आवरण और कृत्रिमता से घिरा हुआ है। इस माया को तोड़ने का उपाय क्या है प्रभु?"
श्री कृष्ण: इस माया तोड़ने का उपाय यही है कि इनसे परे जाकर देखने- समझने और अनुभूत करने की क्षमता क्रमशः जाग्रत करना। मैंने अभी कहा ही है कि जो मेरा निरंतर चिंतन और ध्यान करते रहने से ऐसा कर पाते हैं वह इस माया का उल्लंघन कर जाते हैं और संसार सागर से तर जाते हैं।
आधुनिक काल के गुरुकुल में इस श्लोक की चर्चा के समय विवेक ने आचार्य सत्यव्रत से पूछा, "सत्व, रजस और तमस इन तीनों गुणों की तो हमारी जीवन में निर्णायक भूमिका है। "
आचार्य सत्यव्रत, "हां विवेक! जब हमारा मन सात्विक, शुद्ध विचारों और उत्साह से परिपूर्ण होता है, तब हममें सत्व गुण की प्रधानता होती है। जब हम कामनाओं, इच्छाओं और फल केंद्रित कार्य करते हैं;तब हम रजस गुण के प्रभाव में होते हैं। जब हम आलस्य , प्रमाद , स्वार्थ लोभ के वशीभूत कार्य करते हैं, तो यह तमस
गुण का प्रभाव होता है। कभी ऐसा होता है कि हम एक दिन क्या एक मिनट में भी इन तीनों प्रकार के मिले -जुले भावों से होकर गुजरते हैं। "