21.दुखों को दूर ही रखने का उपाय
जिस (परमात्मा तत्व के)लाभ की प्राप्ति होने पर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसकी दृष्टि में नहीं आता और जिसमें स्थित होने पर वह बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं किया जा सकता है।
भगवान कृष्ण के इस कथन के बाद अर्जुन सोचने लगे - जब ईश्वर सदा हमारे साथ हैं और उनसे अलग होने में ही सबसे बड़ी हानि है, तब अन्य चीजों की हानि को लेकर दुख क्यों? जब उस परम आनंद को प्राप्त कर लेने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं है अर्थात जब साथ कुछ है ही नहीं तो कुछ खो देने का दुख ही नहीं होगा।
अर्जुन ने भगवान कृष्ण से पूछा:-
अर्जुन: प्रिय चीजों को खो देने पर हम दुखी हो जाते हैं। हे प्रभु!क्या ऐसा कोई उपाय ही नहीं है जिससे जीवन में दुख का आगमन ही न हो?
श्री कृष्ण: यह कठिन है कि किसी के जीवन में दुख नहीं आए, क्योंकि दुखों की जो परिभाषा मनुष्य ने गढ़ रखी है, उसके अनुसार वह हर कदम पर अपने को दुखी और अभाव से युक्त मानते हुए सुखों की तलाश करता है। अगर वह सांसारिक सुखों और लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित न करे, तो वैसे भी दुख का कारण ही उपस्थित नहीं होगा।
अर्जुन: हे भगवन! अपने कर्म करने की शिक्षा दी है। इस संसार रूपी कर्म स्थली में ऐसे प्रसंग तो आएंगे जब उसका मन निराश होगा, ऐसे में वह दुख का ही अनुभव करेगा।
श्री कृष्ण: मनुष्य दुख का अनुभव न करे, इसके लिए दृष्टिकोण में परिवर्तन आवश्यक है। संसार के ऐसे कारण और साधन जिन्हें अनिवार्य समझकर मनुष्य अकारण दुख से पीड़ित हो जाता है, उनका संयोग तो योग मार्ग का अनुसरण करने से टाला जा सकता है। इसके बाद भी कोई आकस्मिक दुख का प्रसंग आ गया तो वह साधक को पीड़ित नहीं करता, बल्कि वह उसे सामान्य भाव से ही लेता है।
अर्जुन:पर योग का मार्ग भी तो सरल नहीं है प्रभु!
श्री कृष्ण : हां अर्जुन! धैर्य पूर्वक और उत्साह के साथ योग साधना करना आवश्यक है। तभी योग में उत्तरोत्तर सफलता और प्रगति होती है। अधीरता पूर्वक और निराशा के साथ किए गए योगाभ्यास से कोई लाभ नहीं होता।
जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। यह योग न उकताए हुए अर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना चाहिए।
कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध शुरू होने से पूर्व अर्जुन के सामने योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं जो स्वयं सभी तरह की योग विद्याओं में निष्णात हैं। भगवान विष्णु के अवतार होने के साथ-साथ वे 64 कलाएं ही क्यों, कोटि-कोटि कलाओं के स्वामी हैं। भगवान श्री कृष्ण एक आदर्श संपूर्ण मानव भी हैं। द्वापर युग के इतिहास, राजनीति धर्म- दर्शन सभी के सर्वोच्च केंद्र बिंदु श्री कृष्ण। अर्जुन भगवान श्री कृष्ण की वाणी को सुनकर आनंदित हो रहे हैं। यह एक अच्छा अवसर है, भगवान श्रीकृष्ण से न सिर्फ आसन्न युद्ध की दुविधा बल्कि जीवन में आने वाले समस्त भ्रम और दुविधाओं के निराकरण के लिए प्रश्न पूछने का। मार्गदर्शन और समाधान प्राप्त करने का।
अर्जुन: हे प्रभु! आप संसार में रहते हुए भी संसार से अलग होने की बात करते हैं अर्थात आसक्ति छोड़कर निर्लिप्त रहने की बात करते हैं, इसके लिए सबसे पहले क्या करना चाहिए?
श्री कृष्ण: ऐसी इच्छाएं जो संकल्प से उत्पन्न होती हैं, उनका त्याग। जो एक लक्ष्य को सामने रखकर सामान्य सहज आचरण से अलग हटकर मनुष्य को तीव्र कामना के वशीभूत कर देती है। ऐसे दृष्टिकोण का त्याग आवश्यक है।
अर्जुन :समझ गया प्रभु! इससे मनुष्य के चिंतन में ठहराव आएगा और वह संसार को लेकर मन में उत्पन्न होने वाले क्षोभ और अशांति से धीरे-धीरे दूर होता जाएगा।
श्री कृष्ण:हां अर्जुन! लेकिन केवल संसार से ध्यान हटाना ही आवश्यक नहीं है बल्कि साथ-साथ धीरे-धीरे अभ्यास से परमात्मा में ध्यान स्थित करते जाना भी आवश्यक है।