29.जल ही जीवन है
श्री कृष्ण द्वारा ईश्वर के रूप में समस्त कारण कार्यों का मूल स्वयं को निरूपित करने के बाद अर्जुन ईश्वर के स्वरूप को विस्तार से जानना चाहते थे। इस मार्ग से अर्जुन सांसारिक आकर्षणों से विरत होकर उस महा आनंद में डूब सकते थे, जो ईश्वर के अभिमुख होने पर ही प्राप्त होता है। उन्होंने श्रीकृष्ण से ईश्वर की विशेषताओं का वर्णन करने की प्रार्थना की। जब एक रेखा अर्थात आकर्षण की रेखा को महत्वहीन करना है तो उससे कहीं बड़ी रेखा अर्थात ईश्वर के मार्ग की रेखा खींचनी होगी, इसलिए उस बड़ी रेखा के संपूर्ण स्वरूप को अर्जुन जान लेना चाहते हैं।
मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने समझाया, "हे कुंती पुत्र!मैं जल में रस हूं। जल का सार तत्व होता है रस और तरलता। "
अर्जुन जल तत्व की महिमा से परिचित हैं। अगर जल में रस ही न हो तो वह शुष्क हो जाए। नीरस हो जाए। निरर्थक हो जाए। आनंद विहीन हो जाए। राजकुमारों को शस्त्र विद्या के ज्ञान के साथ-साथ अध्ययन से संबंधित ग्रंथों का भी ज्ञान कराया जाता था।
बचपन में गुरुकुल में आचार्य रस के संबंध में जानकारी दे रहे थे:-
रस्यते इति रस। राजकुमारों इसका अर्थ है कि जिससे आनंद या स्वाद की प्राप्ति हो, वही रस है।
बाल्यकाल में अर्जुन ने रस का अर्थ केवल स्वादिष्ट व्यंजनों को ग्रहण करने से प्राप्त होने वाले रस से लिया था। वासुदेव श्री कृष्ण द्वारा यह कहने पर कि जल में रस मैं हूं। अर्जुन अपने आपसे प्रश्न पूछने लगे कि उन्हें किस बात में सबसे अधिक रस मिलता है?
अर्जुन को विचारमग्न देखकर श्रीकृष्ण ने पूछा, "अब जिस तरह जल में रस महत्वपूर्ण है उसी तरह अर्जुन के जीवन में धनुर्विद्या महत्वपूर्ण है। "
अर्जुन ने कहा, आप अंतर्यामी हैं प्रभु। आप मेरे मन की बात जानते हैं।
ऐसी ही एक संध्या जब अर्जुन धनुर्विद्या के अभ्यास के लिए प्रस्थान कर रहे थे तो द्रोपदी ने उलाहना देते हुए उनसे पूछा था, "युवराज आपके जीवन में कौन अधिक महत्वपूर्ण है?
अर्जुन ने कहा था, "जीवन में अनेक स्तरों पर एक से अधिक लोग महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन जो सखा भाव तुमसे है, वह और किसी से नहीं। तुम्हारा प्रेम मेरी प्रेरणा है द्रोपदी। इसी से मेरे जीवन में रस है। "
द्रोपदी ने हंसते हुए कहा, "झूठ राजकुमार जी, आपके जीवन में सबसे बड़ा रस आपकी धनुर्विद्या है। "
अर्जुन को लगा जैसे उनकी चोरी पकड़ी गई है फिर भी सहज होने का प्रयास करते हुए उन्होंने कहा, "ऐसा तुम कैसे कह सकती हो पांचाली?"
द्रोपदी, "ऐसा इसलिए क्योंकि आज हमारे विवाह की वर्षगांठ है और आप इसे भूलकर धनुर्विद्या के लिए निर्जन एकांत स्थान में प्रस्थान कर रहे हैं। "
इस घटना का स्मरण करते हुए अर्जुन ने प्रसंग को आगे बढ़ाया, "आपने पंचमहाभूत की चर्चा की है जिसमें जल एक प्रमुख कारक है। उस जल में भी आपने स्वयं को रस में निरूपित किया है। "
श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, "यह तो तुम जानते ही हो अर्जुन कि जल तत्व की तन्मात्रा स्वाद या रस है। इस धरती पर भी जल तत्व की ही प्रधानता है और अधिकांश भागों में जल ही है। "
अर्जुन, "आपने सही कहा भगवन! जहां जल है, वहां जीवन है। उस जल की तरलता और जीवन शक्ति अर्थात रस आप स्वयं हैं। "
श्री कृष्ण, "तुमने सही कहा अर्जुन, आने वाले युग में मानवता के लिए यह जल तत्व अति महत्वपूर्ण होगा। "
अर्जुन, "हां केशव! मैं देख पा रहा हूं कि अगर मनुष्य इस जल तत्व के संरक्षण के प्रति सजग नहीं रहे तो ऐसा न हो जाए कि एक दिन नदियां सूख जाएं। धरती पर नदियां दूषित हो जाएं और सचमुच जिस दिन इस धरती पर जल तत्व का अभाव होगा उस दिन जीवन पर भी संकट के बादल मंडराने लगेंगे। "
श्री कृष्ण, "इस राष्ट्र की विस्तृत और जीवनदायिनी सरस्वती नदी भी कुछ ही वर्षों में सूखने की स्थिति में पहुंच जाएगी अर्जुन! इस नदी के विलुप्त होने का अर्थ होगा इस राष्ट्र की एक महान धरोहर और स्वयं में एक जीवंत संस्कृति का लुप्त हो जाना……"
अर्जुन श्री कृष्ण द्वारा कहे गए वचनों के गूढ़ अर्थ को समझने का प्रयत्न करने लगे।