कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 31 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 31

31.आप मुझमें, जैसे देह में प्राण

श्री कृष्ण कह रहे हैं, "मैं पृथ्वी में गंध हूं। "

अर्जुन विचार करने लगे। वासुदेव कृष्ण पंच तन्मात्राओं में से एक गंध और संबंधित पंचतत्व भूमि की चर्चा कर रहे हैं। धरती स्वयं में औषधि तुल्य है। धरती माता है। यह मनुष्य का पालन पोषण करती है। बचपन में आचार्य हस्तिनापुर के राजकुमारों को भूमि की विशेषताओं के बारे में बताया करते थे। 

आचार्य: माता भूमि है और हम इसकी संतान हैं। 

अर्जुन: ऐसा कैसे संभव है आचार्य क्योंकि हम राजकुमारों ने तो अपनी माताओं से जन्म लिया है। माता हमें गोद में लेकर दुलार करती है। वह हमें तैयार करती है प्रेम पूर्वक भोजन कराती है और रात्रि में शयन के समय रोचक कहानियां सुनाती है। भूमि में ऐसी विशेषता कहां है आचार्य?

आचार्य: आखिर हम सबका आधार क्या है अर्जुन? हम चलते - फिरते किस पर हैं?

अर्जुन: धरती पर…. ओह अब समझा…धरती भी माता के समान है जो न सिर्फ हमारे पालन पोषण के लिए अन्न, औषधियां और जीवन उपयोगी सामग्रियां प्रदान करती है, बल्कि जब हम भ्राता खेलते- खेलते वन में थक जाते हैं तो इसी धरती की गोद में सो जाया करते हैं। 

अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा, "आप धरती में गंध है प्रभु अर्थात सार तत्व हैं। पृथ्वी की जितनी भी विशेषताएं हैं, उनमें आप हैं। यह रत्नगर्भा धरती आपसे ही विभूषित है। धरती की वह अनोखी गंध, मिट्टी की वह अद्भुत प्रकृति, मानव शरीरों में इस धरती तत्व की उपस्थिति में आप हैं। …. अब मैं समझा बचपन में आचार्य मुझे बताया करते थे कि सुबह नंगे पैर धरती पर चलना लाभदायक है क्योंकि धरती से प्रातः बेला में सकारात्मक ऊर्जा निकलती है और यह एक विशेष तरह की गंध है प्रभु, जिसे प्रातःकाल में प्राणायाम करते समय मैं अनुभूत करता हूं। "

श्री कृष्ण: अति उत्तम अर्जुन!

अर्जुन: "और धरती पर चलना उस पंचमहाभूत के प्रमुख तत्व को अपने आप में अनुभूत करना है प्रभु……मानो यह भी ईश्वर की एक साधना ही है……। "

मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने कहा, "सत्य अर्जुन!और केवल भूमि ही नहीं अग्नि में जो तेज तुम देखते हो, वह भी मैं हूं। समस्त जीव-जंतुओं, पौधों में जीवन मैं हूं। तपस्वियों का तप मैं हूं। मैं समस्त चराचर प्राणियों की उत्पत्ति का सनातन बीज हूं। मैं ही बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वी मनुष्यों का तेज हूं। "

अर्जुन आनंदित हो गए। ईश्वर सर्व व्यापक हैं। वे केवल हर जगह उपस्थिति ही नहीं हैं बल्कि उन चराचर प्राणियों और पदार्थों के मूल में हैं। उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता में हैं। वे सोचने लगे, "अगर वासुदेव कृष्ण ने मुझे सृष्टि की उत्पत्ति और विकास में ईश्वर के रूप में उनकी भूमिका के विषय में पहले नहीं बताया होता, एक बार मैं फिर भ्रमित हो जाता। आखिर एक अस्तित्व अनेक और असंख्य जगहों पर कैसे उपस्थित हो सकता है? लेकिन वासुदेव तो परमात्मा हैं। उन्होंने पहले ही कहा है कि सभी प्राणियों की आत्मा में वे हैं और हर प्राणी की आत्मा उनमें स्थित है। यह तो एक आत्मा, एक से अधिक आत्मा, अनेक आत्मा और असंख्य आत्माओं से मिलने वाले परम शक्तिशाली परमात्मा ही हुए…यह तो आत्माओं का अदृश्य बंध हुआ…... ऐसे में मुझे वासुदेव की यह उक्ति कोई अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं लग रही है। यह यथार्थ है और मैं यह जान कर आनंदित हूं क्योंकि मैं साक्षात ईश्वर के मुख से उनके गुणों का वर्णन सुन रहा हूं और वह भी मेरे ज्ञान के लिए और मुझे उस परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का यथार्थ दर्शन कराने के लिए, अहोभाग्य मेरा…..!"

अर्जुन के चिंतन का क्रम जारी है। इसके माध्यम से मानवता के कल्याण से संबंधित शाश्वत प्रश्नों के उत्तर ढूंढने का उनका प्रयत्न जारी है। आज जैसे अर्जुन उन सभी प्रश्नों के उत्तर जान लेना चाहते थे जो उनके जीवन काल में आगे कभी न कभी और किसी न किसी परिस्थिति में उठ सकते थे। 

कुरुक्षेत्र के मैदान में श्री कृष्ण द्वारा राजकुमार अर्जुन को दिए गए उपदेश को आज भी भक्तों, विचारकों से लेकर जनसाधारण द्वारा जीवन के लिए मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में ग्रहण किया जाता है। यह क्रम आगे भी जारी रहेगा। उदाहरण के लिए, वर्तमान 21वीं सदी के श्री कृष्ण प्रेमालय गुरुकुल में आचार्य सत्यव्रत जब गीता के श्लोकों से वर्तमान समय में प्रासंगिक जीवन सूत्र बताते हैं तो विवेक समेत अन्य जिज्ञासु विद्यार्थी समाधान प्राप्त करते हैं। वे आधुनिक युग के प्रश्नों और जिज्ञासाओं को उनके समक्ष रखते हैं और आचार्य सत्यव्रत गीता के मार्गदर्शक बिंदुओं के आधार पर समाधान का प्रयत्न करते हैं। 

विवेक ने आचार्य सत्यव्रत से पूछा। 

विवेक:"श्री कृष्ण ने कहा कि वे बुद्धिमानों की बुद्धि में हैं। अर्थात मनुष्य के स्वतंत्र चिंतन का कोई अस्तित्व नहीं है आचार्य?"

आचार्य सत्यव्रत: "मनुष्य का स्वतंत्र चिंतन, प्रतिभा, मेधा अपनी जगह तो ठीक है विवेक लेकिन सही समय पर सही सूझ प्रदान कराने में उस ईश्वर तत्व की प्रेरणा अनेक बार निर्णायक होती है। ऐसी असाधारण सूझ हमारी अंतः चेतना के उस विराट परम आत्म तत्व के संपर्क या उसकी प्रेरणा से ही प्राप्त होती है। "