कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 32 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 32

32.सामर्थ्य की लक्ष्मण रेखा

अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा, इस महाभारत के युद्ध में एक से बढ़कर एक महाबलशाली योद्धागण एकत्र हुए हैं। हे प्रभु आप इन बलवानों में किस रूप में विद्यमान हैं?

श्री कृष्ण ने अर्जुन के रथ की ध्वजा की ओर संकेत करते हुए कहा, "मैं बलवानों का सामर्थ्य हूं अर्जुन! सामर्थ्य भी ऐसा जिसमें किसी वस्तु को लेकर आसक्ति न हो और जो कामनाओं से रहित हो। अपने रथ की ध्वजा देख रहे हो अर्जुन! राम भक्त हनुमान स्वयं तुम्हारे रथ की ध्वजा पर विराजमान हैं। जहां राम वहां राम भक्त हनुमान। हनुमान सामर्थ्य के सबसे बड़े उदाहरण हैं, लेकिन वे किसी भी तरह की आसक्ति और कामनाओं से रहित हैं। "

अर्जुन, "इसे और स्पष्ट करिए प्रभु!"

श्री कृष्ण, "अगर बल के साथ आसक्ति जुड़ गई तो यह पक्षपातपूर्ण ढंग से उपयोग में लाई जाएगी। जिसके पास सामर्थ्य हो वह वीर होता है। वीर को विवेकपूर्ण होना आवश्यक है, अन्यथा उसके बल का सार्थक उपयोग नहीं होगा। "

अर्जुन: समझ गया प्रभु!सामर्थ्य का उपयोग हमेशा कल्याण के लिए होना चाहिए। अगर व्यक्तिगत कामनाओं के लिए बल का प्रयोग किया गया तो यह अत्याचार में बदल जाता है। दुर्योधन और उसके मित्र युद्ध की स्थिति निर्मित कर यही कर रहे हैं। 

श्री कृष्ण: वास्तव में सामर्थ्य का सही उपयोग तो दुर्बल लोगों की रक्षा में होना चाहिए अर्जुन, व्यक्तिगत लाभ और स्वार्थ के लिए नहीं। काम के साथ भी एक विशिष्ट स्थिति है। सभी प्राणियों में धर्म और शास्त्र के अनुकूल काम होना चाहिए। 

अर्जुन एक वीर योद्धा होने के साथ-साथ एक इंद्रिय संयमी युवा हैं। अर्जुन को द्रौपदी स्वयंवर के दृश्य का स्मरण हुआ, जब अर्जुन ने द्रौपदी को पहली बार देखा था। एक क्षण को तो अर्जुन जैसे भटकने से लगे थे। आज क्यों मेरा ध्यान बार-बार पांचाली के दैदीप्यमान मुखमंडल की ओर जा रहा है?ऐसा लग रहा है जैसे सौंदर्य की देवी ने साक्षात द्रुपद कन्या का वेश धारण किया है। यह मुझे क्या हो रहा है? जब आचार्य ने शस्त्र विद्या प्रारंभ होने के समय मुझसे पूछा था कि तुम इनमें से किस अस्त्र या शस्त्र का चयन करोगे तो मैंने धनुष और बाण को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया था। आज पांचाली के सौंदर्य रूपी तीर से मेरा ह्रदय बिंध क्यों रहा है? लेकिन अगले ही क्षण अर्जुन ने अपनी दुर्बलता पर काबू पा लिया। अर्जुन का ध्यान अपने धनुष की ओर गया। अर्जुन का एकमात्र प्रेम। अन्य सभी संबंध, रिश्ते-नाते, आकर्षण इस प्रेम के बाद ही……। 

अल्पतंद्रा से बाहर आते हुए अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा, "आपने पहले भी बताया है कि इंद्रियां स्थूल शरीर से श्रेष्ठ है। इंद्रियों से श्रेष्ठ मन है। मन से श्रेष्ठ बुद्धि है और बुद्धि से भी श्रेष्ठ आत्मा है।  वह बाधक तत्व जो मन, बुद्धि आत्मा विवेक इन सभी के संतुलन को भंग कर देता है और मनुष्य को पापकर्म की ओर उन्मुख कर देता है, वह काम है। "

मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने कहा, "हां अर्जुन!काम या अनंत अतृप्त कामनाएं जो ज्ञान, विवेक, बुद्धि सभी पर अज्ञानता का पर्दा डाल देता है। "

अर्जुन:इसका समाधान क्या है प्रभु?

श्री कृष्ण: "मन में संतोष स्वभाव और बुद्धि के द्वारा काम के आवरण को छिन्न-भिन्न करते हुए मन को अपने नियंत्रण में रखना। "

विवेक ने आचार्य सत्यव्रत से इस प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए कठोपनिषद के एक श्लोक का पाठ किया: -

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। 

बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च । । 

इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयां स्तेषु गोचरान्। 

आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः। । 

इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए आचार्य!

आचार्य: विवेक! इसका अर्थ है, मनुष्य के शरीर रूपी रथ में पांच इंद्रियां रूपी पांच घोड़े हैं। मनुष्य का मन लगाम है और बुद्धि सारथी है। आत्मा ही इस बुद्धि सारथी को निर्देश देने वाला यात्री अर्थात रथी मनुष्य है। कामनाओं के पथ पर इंद्रिय विषय के भटकने वाले पांच घोड़ों पर सारथी (बुद्धि), लगाम (मन)से नियंत्रण कैसे करे, जब तक रथी (आत्मा )का स्पष्ट निर्देश या संकेत ना हो। काम के आकर्षण से अप्रभावित रहने के लिए हमें उस स्थितप्रज्ञ रथी की भूमिका निभानी होगी और इसके लिए निरंतर अभ्यास तथा साधना की आवश्यकता है।