43.तुम्हें देखने चाहिए दिव्य आंखें
अर्जुन के हाथ प्रणाम मुद्रा में हैं। श्री कृष्ण कालों के काल महाकाल हैं। उनका विराट स्वरूप है। वे विश्व का भरण पोषण करते हैं । वे मृत्यु हैं तो जन्म और उत्पत्ति के आधार भी हैं। वे सृष्टि में अति महत्वपूर्ण श्री, वाक, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा नामक 7 स्त्री वाचकगुण भी हैं। वे गेय श्रुतियों में बृहत्साम, छंदों में गायत्री छंद, महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत हैं। वे जीतने वालों में विजय, दृढ़ संकल्प करने वालों के निश्चय हैं और सज्जन मनुष्यों के सात्विक भाव हैं। वे वृष्णिवंशियों में स्वयं वासुदेव कृष्ण, पांडवों में अर्जुन, कवियों में शुक्राचार्य हैं। वे दमन करने वालों का दंड हैं। जीतने की इच्छा रखने वालों की नीति, गुप्त रखने योग्य भाव में मौन हैं तो ज्ञानियों में तत्वज्ञान हैं। वे समस्त भूतों की उत्पत्ति का कारण हैं। संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उनसे रहित है।
अर्जुन ने कहा: धन्य हो प्रभु इस संपूर्ण संसार में चर और अचर ऐसा कोई भी प्राणी या अस्तित्व नहीं है जो आप से रहित है।
अर्जुन अपने जीवन में उत्सुकता और जिज्ञासा के चरम क्षणों में है। थोड़ा सकुचाते हुए और साहस करते हुए उन्होंने श्री कृष्ण से कहा।
अर्जुन:हे प्रभु! मैं आपके ज्ञान, ऐश्वर्य शक्ति और तेज से युक्त उस विश्वरूप को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं।
श्री कृष्ण: तथास्तु!प्रिय अर्जुन! मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूं, तभी तुम उनकी सहायता से मेरे विश्वरूप को देख पाओगे।
श्री कृष्ण ने अपना हाथ आशीर्वाद मुद्रा में ऊपर उठाया और एक हल्का चमकदार श्वेत नीला प्रकाश निकलकर अर्जुन की आंखों में समा गया। श्री कृष्ण ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान कर दी।
अब श्री कृष्ण के मुख मंडल पर एक अलौकिक तेज आ गया। अर्जुन को अपने तर्कों से सतत उपदेश प्रदान कर रहे श्री कृष्ण एकाएक मौन हो गए। उनके मुख की भावभंगिमाएं परिवर्तित होने लगीं। ऐसा लगा जैसे श्री कृष्ण का मानव रूप एक अनंत विस्तार को प्राप्त हो रहा है।
साधारण नेत्रों से तो अर्जुन उन्हें देख नहीं पाते लेकिन जिस तरह श्री कृष्ण के शरीर का असीमित विस्तार हो रहा है वह अर्जुन के लिए चमत्कार और भय दोनों का कारण बनते जा रहा है
उस विश्वरूप के अनेक मुख्य और नेत्र हैं दिव्य आभूषण हैं। अनेक दिव्य शस्त्र हैं, वे दिव्य माला पहने हुए हैं। दिव्य वस्त्रों को धारण किए हुए हैं। उनके शरीर पर दिव्य सुगंधित लेपन है। ……. अर्जुन को इस विराट रूप को देखने पर ऐसा अनुभव हो रहा है जैसे आकाश में हजारों सूर्य एक साथ उदय हो गए हों। हजारों सूर्यों की चमक भी श्री कृष्ण के इस विश्वरूप की चमक के सम्मुख धूमिल है। सारा संसार इस विश्वरूप में स्थित है। यहां तक कि ब्रह्मा जी, स्वयं देवों के देव महादेव, संपूर्ण ऋषिमंडल इसी वृहद रूप में दिखाई पड़ रहे हैं। अर्जुन जहां तक देखते हैं उन्हें इस विश्वरूप का विस्तार….. और विस्तार दिखाई दे रहा है। अर्जुन इस विश्वरूप का न आदि देख पा रहे हैं, न मध्य और न अंत। श्री कृष्ण अपने विश्वरूप में मुकुट, गदा और सुदर्शन चक्र से युक्त हैं। एक तेज प्रकाशपुंज उनके चारों ओर आच्छादित है। अनंत सामर्थ्य वाले विश्वरूप ईश्वर की अनंत भुजाएं हैं। सूर्य और चंद्रमा उनके नेत्र हैं। उनका मुख्य प्रज्वलित अग्नि रुप है और अब अर्जुन को ऐसा लगने लगा है कि इस तेजी से सारा संसार संतप्त हो रहा है। स्वर्ग लोक और पृथ्वी के बीच का संपूर्ण आकाश और सभी दिशाएं मिलकर भी इस विश्वरूप के विस्तार को स्पर्श नहीं कर पा रही हैं। अर्जुन ने इसका आह्वान तो कर दिया लेकिन इस विश्वरूप को देखकर वे स्वयं विचलित हैं। मानो वे अपना संतुलन और शांति खो रहे हैं। अर्जुन इस विश्वरूप का अधिक देर तक सामना करने की स्थिति में नहीं हैं।