कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 19 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 19

19.पाएं चिर आनंद

आनंद की अनुभूति कभी-कभी ही होती है अर्जुन उसे स्थाई बनाने का उपाय पूछते हैं। श्री कृष्ण जिन उपायों और मार्गों पर प्रकाश डालते हैं, वे आनंद के उसी महास्रोत की ओर संकेत करते हैं। 

योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है। उस अवस्था में चित्त परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है। 

भगवान कृष्ण की दिव्य वाणी को सुनकर अर्जुन चमत्कृत हैं। ईश्वर तत्व को जानने और अनुभूत करने की अवस्था….. और यह अवस्था प्राप्त करने में स्वयं ईश्वर का ध्यान सहायक है क्योंकि यह हमारी चित्त की दूषित वृत्तियों का प्रक्षालन करता है। साधना के लिए थोड़ा त्याग तो आवश्यक है ही, अर्जुन यह सोच कर संतुष्टि के भाव से भर उठे। 

भगवान श्री कृष्ण के मुखमंडल पर एक विशेष आभा है, मानो परम तत्व के आनंद के संबंध में अर्जुन को समझाते हुए स्वयं भी उस महानंद की अवस्था में हैं। भगवान श्री विष्णु के पूर्ण अवतार स्वयं एक मानव की तरह….. भारत का भविष्य तय करने वाले महाभारत के युद्ध में शस्त्र नहीं उठाने की घोषणा करके एक पक्ष का सारथी बने हुए। 

अर्जुन ने आगे चर्चा प्रारंभ की: मैं समझ गया प्रभु कि उस परम तत्व को प्राप्त करने में भी स्व साधना के साथ-साथ उस परम तत्व का ध्यान और कृपा भी आवश्यक है। आपने पहले भी समझाया है कि उस अवस्था का अनुभव होने के बाद भी इस बोध के आगे बने रहने के लिए साधक का सजग और सतर्क रहना आवश्यक है। 

श्री कृष्ण: हां अर्जुन!

अर्जुन: जब यह महाआनंद है तो फिर यह स्वत: आगे भी स्थिर रहेगा?

श्री कृष्ण: अब उस परम आनंद की अवस्था को प्राप्त करने के बाद और कुछ पाना या खो देना कहां शेष रहता है अर्जुन? इसके बाद तो उसका जीवन, हाव भाव, चेष्टाएं, क्रियाएं आदि सभी उसी आनंद की सहज अभिव्यक्ति मात्र होती हैं। 

विवेक को इस श्लोक के संबंध में समझाते हुए इस प्रसंग का स्मरण कर आचार्य सत्यव्रत आनंदित हो उठे। उन्हें तैत्तिरीय उपनिषद की यह बात याद आ गई, जिसमें कहा गया है:-

रसो वै स: रसम ह्यवायाम लब्ध्वा नंदी भवति। 

भगवान स्वयं आनंद हैं; उसे पाकर आत्मा आनंदित हो जाती है। 

जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य है, उस सुख का ध्यान योगी जिस अवस्था में अनुभव करता है, वह उस सुख में स्थित हुआ फिर कभी तत्त्व(बोध)से विचलित नहीं होता। 

भगवान श्री कृष्ण द्वारा महा आनंद के तत्व की विवेचना से अर्जुन का मन भावविभोर हो उठा। वे सोचने लगे, कितना अच्छा हो अगर मनुष्य हर घड़ी उस परमात्मा तत्व के आनंद में डूबा रहे। ध्यानमग्न रहे। श्री कृष्ण तो यह भी कहते हैं कि हमें अपना कर्म करते समय अर्थात अन्य कामकाज का संचालन करते हुए भी उस महा आनंद के बोध की अपने भीतर अनुभूति होती है। 

अर्जुन ने प्रश्न किया, हे गिरिधर !क्या जीवन में दुख का प्रसंग आने पर भी ऐसा योगी उस आनंद तत्व से विचलित नहीं होता और दुख उसे नहीं घेरते?

श्री कृष्ण :दुख उसे घेरते अवश्य हैं, लेकिन वह बड़े भारी दुख से भी चलायमान नहीं होता। वह इस तथ्य को जानता है कि एक बार उसने परमात्मा तत्व की प्राप्ति कर ली है, जिससे उसका सदा संयोग है। इसके अलावा अन्य दायित्वों का निर्वहन करते हुए भी उसे परमात्मा तत्व का विस्मरण नहीं है। 

अर्जुन: तो इसका अर्थ यह है कि उसके जीवन में जो लाभ तत्व है वह परमात्मा तत्व के लाभ से बढ़कर नहीं है। 

श्री कृष्ण: हां अर्जुन!परमात्म तत्व सदा उसके साथ है, इसलिए उसे कुछ खोना भी नहीं है। ऐसा योगी दुख की स्थिति में भी संयत रहता है। विचलित नहीं होता क्योंकि दुख के आगे भी जीवन है।