कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 47 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 47

47.तप है जीवन

अर्जुन का जीवन एक तरह से श्रीकृष्ण के सानिध्य में ही बीता है। द्वारका आने के बाद श्री कृष्ण का हस्तिनापुर की राजनीति पर गहरा प्रभाव रहा है और पांडव अनेक प्रश्नों तथा समस्याओं पर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करते रहे हैं। स्वयं श्रीकृष्ण का जीवन एक तप है। जन्म होते ही मथुरा के घर से गोकुल विस्थापित हो जाना, दोबारा मथुरा में घर प्राप्त होने पर उस नगर का ही विस्थापित हो जाना और द्वारिका में रहते हुए भी सदा जनकल्याण और पूरे भारतवर्ष में एक सुदृढ़ शासन व्यवस्था की स्थापना के किए जा रहे भ्रमणशील कर्मयोगी श्रीकृष्ण के प्रयत्न …..सचमुच श्री कृष्ण का जीवन तपोमय है। 

अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा। 

अर्जुन:अगर एक मनुष्य संस्थागत तप नहीं कर पा रहा है तो वह स्वयं में कैसे तप कर सकता है प्रभु?

श्री कृष्ण :देवता, ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मणों, विद्वानों, गुरुओं का सम्मान स्वयं में पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और मूल रूप से अहिंसा की भावना रखना;ये शरीर संबंधी तप हैं पार्थ!

अर्जुन: और किन आचरण में तप समाहित है भगवन?

श्री कृष्ण: एक तप वाणी का भी है। उद्विग्न नहीं होना, प्रिय और हितकारी लेकिन यथार्थ वचन कहना तथा ज्ञान विज्ञान के ग्रंथों का अध्ययन और ईश्वर के नाम जप का अभ्यास;ये वाणी संबंधी तप हैं। 

अर्जुन: हमारा मन चंचल और गतिमान है। इसके संबंध में क्या निर्देश है आपका?

श्री कृष्ण: मन की प्रसन्नता, मन में शांत भाव का होना, ईश्वर के चिंतन का स्वभाव, मन को नियंत्रित रखना और अंतःकरण में भावों की पवित्रता और कलुषता का अभाव;ये मन संबंधी तप हैं पार्थ! हां! बिना श्रद्धा के किया हुआ कोई भी कार्य असत है अर्थात बिना श्रद्धा के अगर यज्ञ और हवन किया जाए, दान दिया जाए या तप किया जाए; तो ये सारे निरर्थक ही हैं। 

अर्जुन: दान तो दान होता है प्रभु, इसमें विशेषीकरण कैसा?

श्री कृष्ण :दान यह नहीं हुआ कि तिरस्कारपूर्वक किसी को दिया जाए। किसी व्यक्ति का बिना सत्कार किए या उसे अपमानित करते हुए अहंकार भावना से दिया जाए, वह दान नहीं है। कुपात्र को दान देना भी सात्विक दान नहीं बल्कि तामस दान है। दान देना कर्तव्य है और जिस वस्तु का जिस देश काल में अभाव है, आवश्यकता वाले व्यक्तियों को उसका दान देना और बदले में उपकार की इच्छा न रखना सात्विक दान है। अनिच्छा से  राशि प्रदान करने में, बदले में उपकार की आशा रखकर दान देने में तथा फल को ध्यान में रखकर दिए जाने वाले दान को राजस कहा गया है। दान में भी ओम तत्सत भाव होना चाहिए। यह भाव ईश्वर का पर्याय भी है। 

अर्जुन: ईश्वर का पर्याय? कैसे प्रभु?उस ईश्वर की परिभाषा क्या है?

श्री कृष्ण :जो सत्य हैं, कल्याणकारी हैं, सुरुचिपूर्ण हैं, जो सृष्टि के संचालक है उनकी उत्पत्ति और विनाश तथा जो इन दोनों के बीच के कालखंड के भी नियंत्रक हैं, वे ईश्वर हैं। ॐ तत् सत्। अर्थात जिनमें ॐ ध्वनि है, जिनमें सत्य और श्रेष्ठता है और संपूर्ण ब्रह्मांड का सब कुछ जिनका है, वे ईश्वर हैं। 

आधुनिक युग में विवेक ने आचार्य सत्यव्रत से प्रश्न किया। 

विवेक:यह सत क्या केवल सत्य बोलने तक सीमित है?

आचार्य सत्यव्रत ने विवेक को समझाते हुए कहा। 

आचार्य सत्यव्रत: विवेक! सत केवल सत्य बोलना नहीं है, बल्कि यह ईश्वर के प्रति किया गया हमारा कर्म और सम्यक आचरण है। सत्य एक जीवन पद्धति है एक सामूहिक विचारधारा है समाज के प्रत्येक व्यक्ति के सुख दुख में अपना सुख दुख देखना है और प्रत्येक वास्तविक आवश्यकता वाले व्यक्ति की मदद को तत्पर हो उठना ही सच्ची ईश्वर सेवा है। आसन्न युद्ध में श्री कृष्ण अर्जुन से इसी भावना से शस्त्र उठाने के लिए कह रहे हैं। 

विवेक :जी आचार्य! मैं समझ गया। श्रीकृष्ण व्यापक परिप्रेक्ष्य में ऐसा कह रहे हैं।