कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 14 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 14

14: अपनों से प्रेम

अर्जुन के सामने भगवान श्री कृष्ण हैं। अखिल ब्रह्मांड महानायक। अर्जुन के आराध्य सखा सब कुछ। भगवान कृष्ण अनेक तरह से अर्जुन को समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। अभी थोड़ी देर पहले श्री कृष्ण ने कहा था। सर्दी-गर्मी, सुख-दुख, मान- अपमान इन दोनों में भी हमारे अंतःकरण की वृत्ति को शांत होना चाहिए। अर्जुन ने सोचा। सर्दी और गर्मी अगर संतुलित मात्रा में हो तब तो ठीक है। अगर अत्यधिक सर्दी पड़े और भीषण लू के थपेड़े झेलने पड़े तो ऐसी स्थिति में अंतःकरण की वृत्ति कैसे शांत होगी? जब श्री कृष्ण ने कहा कि ऐसे आत्म नियंत्रण वाले व्यक्ति में उस परमात्मा का बोध सम्यक रूप से स्थित है और उसके लिए इस ज्ञान के सिवा और कुछ महत्वपूर्ण नहीं है। इस पर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा:-

हे श्री कृष्ण! अंतःकरण की वृत्तियों को शांत रखने का क्या उपाय है? हमारा मन तो हिलोरें लेता रहता है और हम बिना पतवार के नाव की तरह यहां- वहां भटकते रहते हैं। 

मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने कहा:-

मनुष्य का अंतःकरण ज्ञान विज्ञान से तृप्त होता है। जब उसे यह बोध होगा कि चीजों का वास्तविक स्वरूप क्या है। ऐसे व्यक्ति में अभीष्ट वस्तु या व्यक्ति के व्यवहार की प्रतिक्रिया में कोई विकार उत्पन्न नहीं होगा। 

अर्जुन: हे केशव! ऐसी संतुलित अवस्था कैसे प्राप्त होगी? क्या इसका कोई सरल उपाय नहीं है?

श्री कृष्ण: इसे उपाय के स्थान पर योग का सहज मार्ग कहा जाना अधिक उपयुक्त होगा। पहले भी मैंने भिन्न संदर्भ में इंद्रियों को जीतने की बात की है। इसके लिए अभ्यास आवश्यक है। जिस तरह निहाई पर रखकर लोहे को ठोक पीटकर मनोवांछित रूप दिया जाता है और निहाई उसी तरह अपरिवर्तित रहती है, वैसे ही मनुष्य की आत्मा का स्वरूप है। केवल सोचने और निश्चय कर लेने से बात नहीं बनने वाली है। जब तक इंद्रियों के विषयों की बहिरयात्रा से हम अपनी अंतरयात्रा की तरफ नहीं मुड़ेंगे, तब वह दृष्टिकोण हममें नहीं आएगा, जब हमें अलग-अलग महत्व की वस्तुएं समान लगने लगेंगी और हम  व्यवहार के समय संतुलित और अपरिवर्तित रहेंगे। 

अर्जुन ने कहा, "क्या हम पहले यह समदृष्टि नहीं रख सकते और उसके बाद अभ्यास करते जाएं?"

श्रीकृष्ण ने तत्काल कहा, "उस दृष्टिकोण में स्थिरता के लिए पहले तो अभ्यास आवश्यक है ही। पहले इंद्रियों पर नियंत्रण के क्रमशः अभ्यास से यह समदृष्टि और दृष्टिकोण हममें स्वत: ही आया जाएगा और हम चीजों के भौतिक लाभ के आधार पर उन्हें असमान समझना बंद कर देंगे इसलिए एक योगी व्यक्ति के लिए मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण की मूल्य आधारित अलग-अलग महत्ता नहीं होती, उसके लिए सभी वस्तुएं समान महत्व और सम्मान की हैं। जैसे इन तीनों वस्तुओं में उसके लिए कोई प्राथमिकता क्रम नहीं होगा। उसका व्यवहार इन तीनों वस्तुओं के लिए अलग-अलग नहीं होगा। "

जो योगी ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, जो (कूटस्थ या निहाई की तरह)विकाररहित, जितेन्द्रिय है, जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना एक समान है, वह परमात्मा से युक्त कहलाता है। 

योगी व्यक्ति के लिए सोना, मिट्टी, पत्थर सब एक समान है। एक योग से युक्त व्यक्ति ही ऐसा आचरण कर सकता है। अर्जुन इस आदर्श स्थिति से सहमत हैं। अर्जुन सोचने लगे;यह व्यवहार में थोड़ा कठिन है। अगर मैं पांडव पक्ष की ओर से कौरवों के बारे में सोचूं तो वहां काका विदुर जैसे धर्मात्मा हैं, तो दुर्योधन जैसे दुष्ट बुद्धि, स्वार्थी मनुष्य भी हैं। अब इन दोनों से समान व्यवहार तो अत्यंत कठिन और धर्म संकट का काम है। 

मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण आगे कह रहे हैं:- पार्थ! हमें जीवन में विभिन्न आचरण वाले लोगों से भी समान व्यवहार करना चाहिए। एक सुह्रद से भी, जो स्वार्थ रहित सबका हित करने वाला होता है। सभी के प्रति द्वेष भाव रखने वाले व्यक्ति से भी। यहां तक कि वह तुम्हारे प्रति भी द्वेष और वैर भाव रखता हो फिर भी हमारा व्यवहार किसी दुराग्रह या पूर्व धारणा के आधार पर नहीं होना चाहिए।