कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 15 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

श्रेणी
शेयर करे

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 15

15: प्रेम की साधना

अर्जुन ने पूछा, "हे जनार्दन! हमारे प्रति अकारण द्वेष और शत्रुता भाव रखने वाले व्यक्ति के प्रति भी समान भावना हमारे मन में कैसे आएगी? वह भी वही सम्मान भावना जो एक परोपकारी व्यक्ति को देख कर स्वतः ही हमारे मन में उमड़ पड़ती है। "

श्री कृष्ण ने कहा, "समान भाव का तात्पर्य यह है कि हम अपना अहित करने वालों के प्रति मन में कोई घृणा या कड़वाहट की भावना न रखें बल्कि उसके कार्यों के गुण दोषों के आधार पर उससे वैसा ही व्यवहार करें। "

आश्चर्य व्यक्त करते हुए अर्जुन ने पूछा, "हे केशव! इसका अर्थ तो यह हुआ कि हमें दुष्ट व्यक्ति के प्रति भी अपने मन में सद्भावना रखनी है। ऐसे में हम उस दुष्ट व्यक्ति से संभावित हानि की स्थिति से बचाव के लिए बरती जाने वाली सतर्कता कैसे अपना पाएंगे?"

श्री कृष्ण ने समझाते हुए कहा, "दुष्ट व्यक्ति से बचाव के लिए अतिरिक्त सतर्कता और सावधानी तो बहुत आवश्यक है अर्जुन, अन्यथा वह कभी भी नुकसान कर बैठता है, लेकिन उस व्यक्ति के प्रति हर क्षण घृणा भाव रखने से स्वयं हमारा मन दूषित होगा। इस नकारात्मक तरंग से बचाव आवश्यक है। किसी से युद्ध के मैदान में बरती जाने वाली शत्रुता को मनुष्य हर क्षण अपने साथ बनाए रखेगा, तो घर, परिवार और निज भवन का वातावरण भी उसी नकारात्मकता से युक्त रहेगा। यह क्रोधाग्नि आमने-सामने स्थिति के लिए भले ही सही हो सकती है लेकिन वह भी विवेक के साथ। "

अर्जुन: हे भगवन! मैं आपकी बात समझ गया, लेकिन क्या यही स्थिति ठीक विपरीत समय में भी अर्थात अपने शुभचिंतकों के साथ व्यवहार के समय भी लागू होती है?

श्री कृष्ण:क्यों नहीं अर्जुन? शुभचिंतकों के साथ व्यवहार में एक राग का प्रदर्शन होता है। अगर कोई हमारा मित्र है। किसी घटनाक्रम में उदासीन है, या दोनों पक्षों के बीच सुलह कराने की कोशिश करने वाला मध्यस्थ है, या मनुष्य का कोई संबंधी है, कोई धर्मात्मा मनुष्य है, तब भिन्न -भिन्न लोगों से मनुष्य का व्यवहार अलग-अलग और रूचि के अनुसार अलग-अलग रहता है। शुभचिंतकों के प्रति हम स्वत: ही सकारात्मक भाव रखते हैं और धर्मात्माओं का आदर भी करते हैं, लेकिन इस सम्मोहन से चौबीसों घंटे बंधा तो नहीं रहा जा सकता है। आखिर मनुष्य की भी तो एक व्यक्तिगत स्थिति है, आत्मसम्मान है। अगर यहां वह सामान्य व्यवहार के बदले अतिरेक सम्मान , आदर और मुग्धता का व्यवहार करता रहे तो फिर वह अपने सामान्य कामकाज से मुंह मोड़ेगा और मैंने जो तुम्हें आसक्ति के त्याग की बात कही है, वह इस अतिरेक मोह की स्थिति में कैसे संभव हो पाएगी?

अर्जुन भगवान कृष्ण की इस चमत्कृत कर देने वाली शैली से भाव विभोर हो उठे। 

कोई जगह हो या मन:थोड़ा एकांत है जरुरी

भगवान कृष्ण की वाणी अभी भी अर्जुन के कानों में गूंज रही है। सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियों में तथा साधु-आचरण करने वालों में और पापियों में भी समान भाव रखनेवाला मनुष्य अत्यंत श्रेष्ठ है। 

श्री कृष्ण ने पहले योगरूढ़ शब्द का भी प्रयोग किया है। अर्जुन को यह ज्ञात है कि योग के माध्यम से संतुलन की अवस्था प्राप्त की जाती है। एक बार मन और विचारों में संतुलन स्थापित हो गया तो शरीर अपने आप सध जाता है। समदृष्टि विकसित हो जाती है। 

अर्जुन ने पूछा, "हे भगवन! योग की शुरुआत कहां से की जाए? व्यवहार में तो यह संभव नहीं होता कि सांसारिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए और लोक व्यवहार के मध्य योग साधना की जाए। या कोई ऐसा उपाय है कि सामान्य दायित्वों के निर्वहन के दौरान ही योग की वह उच्चतर अवस्था प्राप्त हो जाए जिसका आपने पहले भी उल्लेख किया है। "

श्री कृष्ण ने कहा, "योग आत्म नियंत्रण की विधि है और यह आत्म नियंत्रण चाहे कर्म का मार्ग या ज्ञान का मार्ग हो; प्रत्येक में उपयोगी है। शरीर को कार्य साधक अवस्था में रखने के लिए तो योग अत्यंत आवश्यक है। "

अर्जुन ने पूछा, "इसकी शुरुआत कैसे होती है केशव?"

श्री कृष्ण ने कहा, " अभ्यास से, और इसके लिए एकांत साधना अत्यंत आवश्यक है। एकांत में बैठ कर अपनी आत्मा को परमात्मा के ध्यान में लगाना इसका पहला चरण है। "

अर्जुन:"हे प्रभु! एकांत में ध्यान में बैठने से ही तो अनायास सिद्धि प्राप्त नहीं हो जाएगी। "

मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने कहा, "ठीक सोच रहे हो अर्जुन। योग के लिए मन और इंद्रियों सहित शरीर को वश में रखना आवश्यक है। यह वश में तब होंगे जब हमारा मन कामनाओं से रहित होगा। हमारी आवश्यकताएं सीमित होती जाएंगी और हम अपने आसपास सुख-सुविधाओं का भार लेकर नहीं चलेंगे। "

अर्जुन, "अवश्य प्रभु! योग शुरू करने के साथ-साथ हमारा दृष्टिकोण भी योग के अनुकूल होना आवश्यक है। हमें एक साथ इन अनेक स्तरों पर समानांतर अभ्यास करते रहना होगा। "

अर्जुन मन ही मन प्रसन्न हो उठे। जीवन की आपाधापी और भागदौड़ से दूर प्रतिदिन कुछ समय का एकांत आवश्यक है। अगर ऐसा संभव न हो तो हम अपना कामकाज करते हुए भी मन को उस ईश्वर के ध्यान में केंद्रित रखें तो वह एकांत अवस्था एक सीमा तक भीड़ के मध्य भी प्राप्त हो सकती है। अर्जुन को मन ही मन प्रसन्न होते देख मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने आगे कहना शुरू किया।