विवरण
विंध्याचल पर्वत की लघु एवं उच्च श्रृंखलाओं, वनोपवन, अरण्यक उपत्यकाओं में विस्तारित, गंगा , यमुना, सिंध , नर्मदादि , पावन सलिलाओं की पुण्य धाराओं से आप्लावित पुलिंद धरा, अनादि काल से अन्यान्य संस्कृतियों, युगधर्मों की रंगभूमि तथा स्वर्गोपम जीवन की कालातीत केलिकुंज रही है ।
युग युगांतर से इस महान भूभाग की माटी में वैदिकता, पौराणिकता और इतिहासत्व के सृजन की गाथाओं के अनंत अधिष्ठान रहे हैं। रचनात्मक शौर्यानुक्रम, जहाँ इसे वीरप्रसूता स्थापित करता है, वहीं प्रेम, भक्ति, त्याग और बलिदान की सतत परंपराएँ, इसे देवत्व भाव की आख्याति प्रदान करती हैं ।
समृद्ध सांस्कृतिक भावभूमि, सृजनात्मक उत्सवप्रियता एवं उत्कट जिजीविषा से ओतप्रोत बुंदेली जनमानस, सदा सहज सचेतनता के शिखर पर रहा आया है। यहां के शासकों का हर युग की केंद्रीय सत्ता में प्रबल हस्तक्षेप अथवा प्रभाव रहा।
यह भारतवर्ष का वह पावन भूभाग है जहाँ आपद् समय, नारद, सनकादि, जमदग्नि, राम , कृष्ण तथा पांडवों ने भी शरण ली है ।
यही वह भूमि है, जहाँ दत्तात्रय, तुलसी, केशव, पद्माकर, भवभूति ने जन्म लिया। यही वो धरा है, जिसे महान राजपुरुषों अथवा महान नारियों सहित, महानतम संतो, मुनियों, तपस्वियों की साधनास्थली होने का गौरव प्राप्त है। इस पुण्य भूमि पर तपस्चर्या करने वाले महान ऋषि-मुनियों की अनंत श्रृंखलाओं के अलावा, विभिन्न राजवंशों के प्रादुर्भाव, सामुदायिक उद्भव तथा विकास की श्रेष्ठतम गाथाएं भी प्रतिष्ठित हैं ।