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इक समंदर मेरे अंदर - उपन्यास
Madhu Arora
द्वारा
हिंदी सामाजिक कहानियां
इक समंदर मेरे अंदर मधु अरोड़ा दिवंगत अम्मां-पिता बिमला और प्रेमचंद चतुर्वेदी की स्मृति को समर्पित अपनी बात ....उबरना स्वयं से.... मैं यह तो नहीं कहूंगी कि मैं उपन्यास लिखने के लिये तड़प रही थी या मन में कसक उठ रही थी, या न लिख पाने से डिप्रेशन में जा रही थी। हां, मन में यह बात अवश्य थी कि मुंबई के जरिये अपनी बात कहूं। दूसरे शहर से उजड़ कर आये एक परिवार के फिर से उठ खड़े होने की कहानी कहने का मन था जो इन पन्नों में आपको नज़र आयेगी। यहां बसने की नीयत से आये किसी
इक समंदर मेरे अंदर मधु अरोड़ा दिवंगत अम्मां-पिता बिमला और प्रेमचंद चतुर्वेदी की स्मृति को समर्पित अपनी बात ....उबरना स्वयं से.... मैं यह तो नहीं कहूंगी कि मैं उपन्यास लिखने के लिये तड़प रही थी या मन में कसक ...और पढ़ेरही थी, या न लिख पाने से डिप्रेशन में जा रही थी। हां, मन में यह बात अवश्य थी कि मुंबई के जरिये अपनी बात कहूं। दूसरे शहर से उजड़ कर आये एक परिवार के फिर से उठ खड़े होने की कहानी कहने का मन था जो इन पन्नों में आपको नज़र आयेगी। यहां बसने की नीयत से आये किसी
इक समंदर मेरे अंदर मधु अरोड़ा (2) वह कभी समझ नहीं पायी कि वे अपनी खिड़कियां जानबूझ कर बंद नहीं करती थीं या भूल जाती थीं। कामना अपनी खिड़की पर बैठी टुकुर टुकुर उन तैयार होती महिलाओं को देखती ...और पढ़ेथी। सीढ़ियों में अंधेरा इसलिये होता कि ग्राहक पहचाने न जा सक
इक समंदर मेरे अंदर मधु अरोड़ा (3) उस कमरे के पास पहुंचते ही कामना के दिल की धड़कन बढ़ गयी थी। पिताजी ने उन्हें पहले भीतर जाने के लिये कहा। वह और गायत्री कमरे के अंदर गयीं तो लगा ...और पढ़ेमानो अम्मां उनका इंतज़ार ही कर रही थीं। वे उठ नहीं सकती थीं। उन्होंने इशारे से दोनों को अपने पास बुलाया और सिर पर हाथ फेरा। बड़ी कमज़ोर सी लगीं अम्मां। इतने में नर्स कपड़े में लिपटे एक बच्चे को ले आयी थी। नन्हें बच्चे को पिताजी ने अपने हाथों में ले लिया और कहा – ‘बेटा, जि अपने घर
इक समंदर मेरे अंदर मधु अरोड़ा (4) ....गुड़िया, तुझे मलाई पसंद है, इसलिये दो बार मलाई डाल देता हूं। एक तू खा लेना और एक घर तक ले जाना’। वह दही के दोने को बायें हाथ की हथेली पर ...और पढ़ेऔर दायें हाथ से ढक लेती। जब दुकान से थोड़ी दूर आ जाती तो दायें हाथ को हटाती और दो उंगलियों से मलाई उतार कर मुंह में रख लेती। राहगीर हंसते और कहते – ‘कशी कृष्णा सारखी चोरून साय खात आहे’। जब वह घर के नज़दीक पहुंचती तो बाल पूरी तरह सूखकर झाऊझप्प हो जाते। चेहरा दिखता ही नहीं था
इक समंदर मेरे अंदर मधु अरोड़ा (5) उन्होंने यह कभी नहीं सोचा था कि भविष्य में उनकी बेटियां नौकरी भी करेंगी....उन्हें इस बात का सपने में भी गुमान नहीं था। उनकी तो बस यही तमन्ना थी कि उनकी बेटियां ...और पढ़ेपढ़ें कि लड़के वाले खुद आयें उनकी बेटियों का हाथ मांगने। वे बेटियों को पढ़ाना ज्य़ादा ज़रूरी समझते थे। उनका मानना था कि बेटे तो पथ्थर तोड़कर भी पेट भर सकते थे लेकिन बेटियों पर कोई मुसीबत आयी तो ये कहां जायेंगी...ये किसके आगे हाथ पसारेंगी। वे खुद सिर्फ़ दसवीं पास थे पर सोच में कई पढ़े लिखों की सोच