इक समंदर मेरे अंदर - 24 Madhu Arora द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इक समंदर मेरे अंदर - 24

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(24)

उसका कितनी चतुराई से ब्रेन वॉश किया गया होगा। उसे उन्मादी बनने को उकसाया गया होगा...ऐसे ही तो इस तरह के घृणित कार्य नहीं किये जाते होंगे। कहते हैं न कि इंसान जैसे कार्य करता है, वैसा ही उनका चेहरा होता जाता है।

उसके करम चेहरे पर दिखने लगते हैं। उसका टीवी बंद करने का दिल भी नहीं कर रहा था और यह सब देखा भी नहीं जा रहा था। अपने प्रिय नेता की हत्‍या की ख़बर मानो उसके दिमाग़ पर चढ़ गई थी।

वह आंखें बंद करती थी और मानो वे हत्यारे साक्षात् उसके सामने आकर खड़े हो जाते थे। वह डर के मारे आंखें खोल देती थी। दिन तो फिर भी ऑफिस में कट जाता था, पर रात? सचमुच काटना मुश्‍किल हो जाता था।

हार कर वह संस्थान के होम्योपैथी डॉक्‍टर के पास गई थी। उन्‍होंने देखते ही कहा – ‘कामना जी, आपकी तो आंखें सूजी लग रही हैं और लाल भी लग रही हैं। क्‍या हुआ आपको?’ उसने संक्षिप्त में सारी घटना बता दी थी।

उन्‍होंने कहा – ‘घबराने की बात नहीं है। अपने प्रिय के साथ जब ऐसा होता है तो सदमा सा लगता है। मैं आपको पन्द्रह दिन की दवा देती हूं। आप रात को सोने से पहले दो गोलियां ले लिया कीजिये। नींद आ जायेगी।‘

इसके साथ ही उन्‍होंने सफेद गोलियों की एक शीशी पकड़ा दी थी, जिसकी गोलियां अपेक्षाकृत बड़ी थीं...यानी पॉवरफुल थीं।

डॉक्‍टर के कहे अनुसार वह रात को सोने से पहले दो गोलियां मुंह में डाल लेती थी और उन गोलियों का असर अगले दस मिनटों में दिखाई देने लगता था और उसकी आंखें बोझिल हो जाती थीं। वह डर तक़रीबन एक महीने तक तारी रहा था और उसे गोलियां खाना जारी रखना पड़ा था।

वह बहुत मुश्‍किल से उबर पाई थी। पड़ोस में मिस्‍टर दाते का परिवार था। इनका अपनापन ’सगा दूर, पड़ोसी नेड़े’ कहावत को सार्थक करता था। पूरा परिवार चिंकू का खयाल रखता था। वे रविवार को चिंकू को माउंट मेरी, तो कभी गिरगांव ले जाते थे।

इस प्रकार कामना को थोड़ा आराम मिल जाता था।। वह भी तो अकेले अकेले काम करते करते थक जाती थी। एक तरह से कहा जाये तो पूरा कैंपस कामना के साथ था। वह अकेलापन महसूस होने ही नहीं देता था।

उस वर्ष की गणेश चतुर्थी आई...मराठियों का सबसे बड़ा त्योहार। कैंपस में दो क्‍लब थे। स्‍टाफ क्‍लब और ऑफिसर्स क्‍लब। कुछ त्योहार दोनों क्‍लब मिलकर करते थे और गेट टुगेदर दोनों क्‍लब अलग अलग करते थे।

कारण साफ था....मराठीइतर लोगों के भी तो अपने त्योहार थे। गणेशोत्सव कॉमन त्योहार था और स्‍टाफ क्‍लब के कॉमन रूम में सात दिनों के लिये गणेशजी की स्थापना की जाती थी।

कामना के लिये यह नया अनुभव था। जब पहले दिन गणेशजी लाये गये और स्थापित करते समय विभिन्न मंत्रों द्वारा उस मूर्ति में प्राण फूंके गये थे। साथ ही बताया गया था कि सात दिनों तक गणेशजी जीवंत रहेंगे। इनसे इनके भक्‍त जो भी मांगेंगे, मिलेगा।

वह बहुत रोमांचित हुई थी यह सब देखकर। रोज़ तो संभव नहीं था, पर दो दिन शाम को सात बजे से नौ बजे तक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते थे। इन कार्यक्रमों में कैंपस के बच्‍चों व छात्रों को वरीयता दी जाती थी। ये दो शामें बहुत खुशनुमा होती थीं।

छात्र नृत्‍य पेश करते और कैंपस के बच्‍चे तरह तरह के नृत्‍य, फैशन शो पेश करते थे। कामना से उस कार्यक्रम का संचालन करने के लिये कहा जाता और वह सहर्ष इस काम के लिये तैयार हो जाती थी। धीरे धीरे वह हर साल इस कार्यक्रम की स्‍थायी एंकर हो गई थी।

गणपति की पूजा सुबह शाम की जाती थी और कैंपस के लोग बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लेते थे। तरह तरह के प्रसाद घरों से बनकर आते थे। यह देखकर कामना ने भी एक दिन का प्रसाद, फूल देना शुरू किया था जो उसके रिटायरमेंट तक जारी रहा था।

इस पूजा में वह पांच प्रकार के प्रसाद, लिली और गुलाब के फूलों के भव्‍य हार दिया करती थी। इस तरह के कार्यों में वह पैसे की कभी चिंता नहीं करती थी।

सातवें दिन - गणपति बप्‍पा मोर्या, पुढ़चा वर्षी लवकर या/एक दो तीन चार...गणपति बप्‍पाचा जय के जयकारों के साथ गणपति विदा होते। हां, कैंपस में लेज़िम नहीं सुनाई देती थी।

कैंपस के गणपति जब संस्थान के मेन गेट से बाहर निकलते तब लगता था, मानो घर के किसी प्रिय सदस्य को विदा दे रहे हों। गेट पर मिसेज नाइक ने कहा – ‘अग कामना, चल आपण फुगड़ी घालू या..।‘

कामना को अचानक अपना बचपन याद आ गया, जब वह बहुत तेज़ फुगड़ी खेलती थी। लगता था मानो हवा में उड़ रही हो। कामना ने झट से अपनी चुन्‍नी को कमर में बांधा और तैयार हो गई थी।

मिसेज नाइक और उसने क़रीब पांच मिनट तक फुगड़ी खेली और मिसेज नाइक संतुलित नहीं रह पाईं और गिर गईं साथ ही कामना को भी गिरा दिया। कामना का पूरा घुटना छिल गया था।

बाद में बहुत दर्द हुआ था और उसने तय कर लिया था कि अब वह फुगड़ी नहीं खेलेगी। वे लोग साड़ी पहनकर खेलती थीं और उनका पैर उलझ जाता था। यह खेल साड़ी पहनकर खेला जाता है क्‍या?.....हुंह....

अब चूंकि वह वह मराठियों के बीच रहती थी, तो उनके रीति रिवाजों को भी जानने लगी थी। वह कब इनके त्‍योहारों का हिस्‍सा बनती चली गई, पता ही नहीं चला था। वह उनके रंग में रंगती जा रही थी। वह इन त्‍योहारों को इंजॉय करने लगी थी।

कामना के ऑफिस में हर साल महिलाओं द्वारा एक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता था, उसमें एक बार मंगला गौर कार्यक्रम रखा गया था। तब ये गीत बहुत गाया जाता था

....पिंगा ग पोरी पिंगा ग पोरी पिंगा

….किकिचं पान बाई किकीचं बोलते बोलते एक दूसरे के सामने नाच कर आगे पीछे जाते हें. …. ‘फुगड़ी खेलते समय फूं बाई फूं फुगड़ी फू’ बोलकर फुगड़ी डालते हैं.

….नाच गं घुमा कशी मी नाचू?

या गावचा त्या गावचा सोनार नाही आला बुगड्या नाहीत मला कशी मी नाचू?

या गावचा त्या गावचा कासार नाही आला बांगड्या नाही मला कशी मी नाचू?

उसने जब अनिला से पूछा, तो उसने बताया - यह आमतौर पर नयी दुल्हन के लिये पाँच साल का व्रत है। इस में मायके आयी हुई नयी दुल्हनें, मंगलवार को शंकर भगवान की पूजा विशेष रूप से करती हैं। सुबह पूजा और शाम को आरती होने के बाद रतजगा होता है। कई गीत गाकर कई खेल खेले जाते हैं।

अचानक सुनाई दिया कि मुंबई में हिंदू-मुस्‍लिम दंगे भड़क गये थे। पहले तो उसने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया था, पर जब टीवी खोलकर न्‍यूज चैनल लगाया तो वहां इन दंगों की ही ख़बर थी।

बार बार अयोध्या की ढहायी हुई बाबरी मस्जिद को दिखाया जा रहा था। दंगे फैलाने का यह तरीका था कि बार बार उसी ध्‍वंसात्‍मक कार्रवाई को दिखाया जाये। ये दंगे ज़ोर पकड़ते जा रहे थे। कैंपस से लोग बाहर नहीं जा रहे थे।

लोग आपस में बातें कर रहे थे, जिन्‍हें कामना आते जाते सुनती रहती थी – ‘मालूम है क्‍या, 6 दिसंबर को अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया हमारे कार सेवकों ने। उधर एकदम निच्‍चू रामलला का छोटा सा मंदिर है। उसके उप्पर मस्जिद कैसे चलेंगा?’ देखते देखते पूरी मुंबई को बंद करवा दिया गया था।

कैंपस के पीछे दरगाह था। हर साल दरगाह पर उर्स (मेला) लगता था। वह हर साल अपने बच्‍चों को लेकर मेले में जाती थी।

उस मेले से फिरोजाबाद की बनी चूड़ियां खरीदती थी। साथ ही बच्‍चों को साथ ले जाकर वहां की मज़ार पर फूलों की चादर चढ़वाती थी। उस समय ग्‍यारह रुपये में फूलों की पतली पतली लड़ियोंवाली चादर मिल जाया करती थी।

वहां जाइंट व्‍हील झूलती थी, मौत का कुआं देखती थी...क्‍या तो मोटर साइकिल चलाता था, वह आदमी। बाद के सालों में तो उसमें 800 मारुति कार भी चलने लगी थी। कामना के फ्लैट की बाल्‍कनी दरगाह की सड़क की ओर थी और उर्स का हलवा वह बनते देखती थी।

रात का हलवा भरपूर बचता था और वे हर शाम को चार बजे एक कड़ाही ताज़ा हलवा बनाकर उसमें मिला देते थे और उस पर कच्‍चे मावे से सजावट करते थे। उस हलवे के साथ बड़े बड़े पराठे बनाये जाते थे।

उसने लोगों की बात मान ली थी और वह उस साल उस मेले में नहीं गई थी। उसके बेटे स्‍कूल से आने के बाद मराठी परिवार में रहते थे और वहां उन्‍हीं के हाथ का खाना खाते थे। लेकिन इस बार कैंपसवालों ने कहा – ‘कामना मैडम, ये बरस मत जाओ मेले में। अभी अभी लफड़ा हुआ है। कायको रिस्‍क लेने का? वोई झूला है और अपन हलवा तो वैसे भी नहीं खाते। एक आठवळा (सप्ताह) पुराना होता है।‘

वैसे तो लोग वहां आते जाते थे, पर उन दिनों सन्नाटा फैल गया था। अचानक दो दल साफ तौर पर दिखाई देने लगे थे। पूरे शहर में लूटपाट अपने पूरे शबाब पर थी। खाने की चीज़ें दुगुने दामों पर बिकना शुरू हो गई थीं।

दंगों का सबसे ज्‍यादा फायदा दुकानदार, सब्‍ज़ी वाले उठा रहे थे। कामना को अपने खाने के लिये भले ही कुछ न मिले, पर बच्‍चों का तो पेट नहीं सिल सकती थी न। जो लोग बाहर जाते थे, वे नयी नयी बातें सुनाते थे कि बाहर रुपये 100/- में एक रोटी मिल रही थी। अब यह कितना सच था और कितना झूठ, ये तो ऊपरवाला ही जानता था।

बड़ी मुश्‍किल से ये संकट के बादल ख़त्‍म हुए थे। अब हालत ये हो गई थी कि लोग एक दूसरे को देखने की बजाय घूरने लगे थे। कामना को वह दिन भी याद था, जब ऑफिस में पहली बार अपनी मराठी सहेलियों को वट सावित्री का व्रत करते देखा था। उसने कभी यह व्रत नहीं किया था।

वृंदा ने बताया – ‘इस दिन सुहागिनें अपने पति की सलामती के लिये दिन भर व्रत रखती हैं। ....दोपहर में पीपल के झाड़ की पूजा करती हैं और उस पेड़ के चारों ओर सात बार धागा बांधती हैं। तेरे को मालूम है कि सात बार धागा क्‍यों बांधती हैं?’

उसके ना में गर्दन हिलाने पर बोली – ‘इसलिये कि ये ही हसबैंड सातों जनम में मिले। अभी ये नईं मालूम, कि ये कौन सा जनम है।‘ यह कहकर वह हंस दी और बोली – ‘अग, मस्‍करी करते मी।‘

अब वह मालवणी, कोल्हापुरी, कोंकणी व थोड़ी थोड़ी पुणेरी मराठी समझने लगी थी और बोलने लगी थी। इस पर उसकी सहेलियां हंसकर कहतीं – ‘मेली, आम्‍ही तुझी हिंदी नायं शिकलो....किती चुकी करतात, पण तू आमची मराठी शिकली।

.....किती छान बोलतेस..आमाला बर वाटतय’।

वह उनकी ग़लत हिंदी सही करती थी और वे उसकी ग़लत मराठी सही करती थीं। इस तरह बड़े सहज तरीके से एक दूसरे की भाषा सीखने सिखाने का सिलसिला चल पड़ा था। वे जो भी मिठाई लातीं, उसमें कामना का हिस्‍सा ज़रूर होता था।

वो सुषमा....हरे नारियल की बर्फी, फणसवाड़ी के पेड़े लाती, और उसे फोन करती – ‘अग, खाली ये, तुझासाठी काही खायच आणल आहे। लवकर ये, नाहीं तर संपून जाईल।‘ वह खांडवी, ढोकले, छोले, बेसन की बर्फी बनाकर ले जाती और ऑफिस में सब मिल-जुलकर खाते थे।

उसने अपनी मराठी सहेली को पानीपूरी का पानी, चटनी और दहीवडे उसके घर जाकर बनाना सिखाया था। उसके घर जाकर उसके सामने बनाये थे। अब उसका हाथ भी सैट हो गया था। इसी तरह दिन, महीने और साल कट रहे थे।

मुंबई में किसी के घर आने जाने का रिवाज़ ही नहीं है। ग़मी में चले जायेंगे, शादी विवाह में चले जायेंगे, लेकिन रोज़मर्रा के जीवन में ज्‍य़ादा आना-जाना कोई पसंद नहीं करता। यदि वह अपनी किसी सहेली को घर न आने का उलाहना देती, तो वे कहतीं – ‘अग, कशाला वेळ घालवायचा? खूप काम असतात की।‘

अब उसका भी स्‍वभाव उनकी तरह का ही हो गया था। कोई बिना बताये आ जाता, तो उसे बड़ी उलझन होती थी। कई ज़रूरी काम छोड़कर उसे ख़ातिरदारी करनी होती थी। यदि बताकर आते तो मेहमानों का क्‍या बिगड़ जाता?

अतिथि वही होता है जो तिथि बताकर न आये। जब चिंकू की गर्मियों की छुट्टियां होतीं तो वह सोम के पास कानपुर चली जाती थी और वहां दो महीने रहती थी। इस चक्‍कर में विदाउट पे भी हो जाती थी।

बच्‍चे को पिता की भी ज़रूरत होती है, यह अच्‍छी तरह समझती थी। सोम के संस्थान के डॉक्‍टर 15-15 दिनों की मेडिकल छुट्टी लिखकर दिया करते थे, जिसकी जेरॉक्स प्रति वह अपने पास रखकर मूल प्रति संस्थान को भेज देती थी। दो महीनों में से एक महीना विदाउट पे होना तय था।

यह सब जानते हुए भी उसके संस्थान से चार्जशीट भेजी गई थी। जब कानपुर में पोस्‍टमेन घर आया और कामना के नाम का हरकारा दिया तब वह बाहर आई और लिफाफा हाथ में लेकर उसी समय खोला। देखा तो वह चार्जशीट थी।

उसने उसी समय उस चार्जशीट को फाड़ दिया और पोस्‍टमेन से हंसकर कहा – ‘आप जा सकते हैं। आपका काम पूरा हुआ।‘ इस पर साइन के लिये एक पन्ना दिखाकर बोला – ‘इस पर आपका साइन चाहिये।‘ कामना ने पूछा – ‘किस बात के लिये साइन चाहिये? पेपर रिसीव ही नहीं किया मैंने।‘

....तुम भी चुप रहना। पूछने पर कह देना कि चिट्ठी मिली ही नहीं। रजिस्टर्ड डाक भी खो जाती है।‘ इस तरह उस पोस्‍टमेन को उल्टी पट्टी पढ़ाकर भेज दिया था। जाते जाते वह भी हंसकर कहता गया था –

‘आप जइसन दबंग महिला नहीं देखी जो सरकारी पेपर फाड़ दे। आप बहुत गुस्‍सेवाली हैं और साहब शान्त हैं।‘ यही बात मुंबई में सोम की एक महिला मित्र ने कही थी, तब भी कामना ने यही कहा था - मैं अग़र तेज़ नहीं होती तो घर के बर्तन भांडे भी बिक गये होते।‘

सोम के भाई ने संदेश भिजवाया था – ‘भाई साहब, आप अपना बुश का टू-इन-वन मुझे भिजवा दो। मैं मासिक रूप से भुगतान कर दूंगा।‘ सोम तैयार भी हो गये थे और उस समय स्‍टैंड कामना ने ही लिया था।

संदेश लाने वाले से कहलवा भेजा था – ‘मासिक भुगतान पर दुकान पर भी मिलता है। इस घर से एक चम्‍मच भी नहीं जायेगी। अपनी मेहनत की कमाई से खरीदते हैं हम लोग और तुम भी खरीदो।‘ इस पर सोम का भुने जीरे सा उत्तर था – ‘तुम मेरे खून के रिश्‍ते भी नहीं टिकने दोगी।

उसने हंसकर कहा था – ‘यदि लेन-देन पर ही आपके रिश्‍ते टिके हैं तो उनका खत्‍म हो जाना ही ठीक है। बहुत दुख देते हें ये खून के रिश्‍ते और अपनापन जताने वाले मित्र कब पाला बदल लेते हैं, पता ही नहीं चलता उसे। अब कामना भी व्यावहारिक होती जा रही थी।

संबंध दोनों ओर से निभते हैं। इकतरफा संबंध एक समय के बाद ख़त्‍म हो जाते हें। वह अपनी ओर से कभी नहीं तोड़ती कोई संबंध। सामने वाला ही औरों के आगे घुटने टेक दे तो वह क्‍या करे?

वह तो गाना ही गा सकती है...तेरे द्वार खड़ा एक जोगी, ना मांगे वो सोना चांदी, मांगे दर्शन देवी/हम भक्‍तन के, भक्‍त हमारे....और हंस देती है एक बार फिर अपनी नियति पर। पर क्‍या करती? उसके बिना और कोई चारा भी तो नहीं था।

इस तरह उसने साढ़े छ: साल अकेले काटे थे। जब सोम को समय मिलता तो, वे भी एकाध सप्ताह के लिये आ जाते थे। उसके इस अकेलेपन के दौरान मज़ाल थी कि किसी रिश्‍तेदार का फोन आया हो कि वह कैसे रह रही थी या सोम के किसी मित्र का फोन आया हो किसी भी तरह का हालचाल पूछने के लिये...बल्‍कि अब वे लोग बात करने से बचने लगे थे।