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एक अप्रेषित-पत्र - उपन्यास
Mahendra Bhishma
द्वारा
हिंदी पत्र
मैं एक नन्हा—सा वृक्ष हूँ। इस सुन्दर संसार में आए मुझे कुछेक वर्ष ही हुए हैं। नीले आकाश के नीचे, पर्वतमालाओं की तलहटी में विस्तृत सुरम्य वन के ठीक मध्य में लताओं से आच्छादित वृक्षों की हमारी रमणीक बस्ती है। मेरे माता—पिता, भाई—बन्धु एवं बुजुर्ग सभी मेरे आस—पास हैं, जिनकी छत्रछाया में मैं पल—बढ़ रहा हूँ। प्रकृति के महत्त्वपूर्ण घटक— नाना प्रकार के जीव—जन्तु हमारे बीच पलते—बढ़ते हैं। जब सूर्य देव आकाश के बीचो बीच आ जाते हैं, तब हमारी जड़ों के ऊपर की कुछ भूमि पत्तों से छनकर आते प्रकाश से प्रकाशित हो उठती है।
एक अप्रेषित-पत्र महेन्द्र भीष्म बचाओ मैं एक नन्हा—सा वृक्ष हूँ। इस सुन्दर संसार में आए मुझे कुछेक वर्ष ही हुए हैं। नीले आकाश के नीचे, पर्वतमालाओं की तलहटी में विस्तृत सुरम्य वन के ठीक मध्य में लताओं से आच्छादित ...और पढ़ेकी हमारी रमणीक बस्ती है। मेरे माता—पिता, भाई—बन्धु एवं बुजुर्ग सभी मेरे आस—पास हैं, जिनकी छत्रछाया में मैं पल—बढ़ रहा हूँ। प्रकृति के महत्त्वपूर्ण घटक— नाना प्रकार के जीव—जन्तु हमारे बीच पलते—बढ़ते हैं। जब सूर्य देव आकाश के बीचो बीच आ जाते हैं, तब हमारी जड़ों के ऊपर की कुछ भूमि पत्तों से छनकर आते प्रकाश से प्रकाशित हो उठती
एक अप्रेषित-पत्र महेन्द्र भीष्म विरह गति प्रिय रेवा, मेरे जीवन का पल—पल तुम्हें न्योछावर! तुम्हें रूठकर यहाँ से गये, आज पूरा एक माह होने जा रहा है। कल शाम पापा जी का पत्र मिला था कि तुम अभी कुछ ...और पढ़ेदिन अपने मम्मी—पापा के पास देहली में ही रहना चाहती हो। रेवा! तुम क्यों नहीं आयीं ? मैं जब तुम्हें लेने गया था, तब भी मेरे साथ आना तो दूर तुम मुझ से मिली भी नहीं थीं। अभी तो हमारे विवाह को हुए एक वर्ष भी नहीं बीता है......। आगे लम्बी जिन्दगी पड़ी है। ऐसे कैसे चलेगा... भाई! मैं मानता
एक अप्रेषित-पत्र महेन्द्र भीष्म रंजना रंजना मेरे ऑफिस की नेत्री है। चपरासी से लेकर बॉस तक सभी से वह एक ही अन्दाज में मिलती। सभी के साथ उसका व्यवहार निरपेक्ष रहता। ऑफिस में ऐसा कोई नहीं था, जो उसे ...और पढ़ेन करता हो। चाहे वह पोपले मुँह वाले बड़े बाबू राधेश्याम हों या खिजाब लगाकर आने वाले ऑफिस सुपरिटेण्डेण्ट मौलाना बदरुद्दीन हों, जिनकी मेंहदी लगी दाढ़ी की सुन्दरता में ग्रहण लगाते पान से गन्दे हो चुके दाँत और लटकते मसूड़ों के हरे रंग जैसी थैलियाँ, जो उनके हँसने पर सामने वाले को अपनी आँखें फेरने पर मजबूर कर देती थीं।
एक अप्रेषित-पत्र महेन्द्र भीष्म अब नाथ कर करुणा.... कुछ दिनों से क्या; बल्कि काफी दिनों से उसे सीने के ठीक मध्य से थोड़ा—सा दाहिनी ओर पसलियों के आस—पास, मीठा—मीठा—सा दर्द महसूस होता रहता था। विशेषकर तब, जब कुछ ठंडा—गर्म ...और पढ़ेलेने के बाद आने वाली स्वाभाविक खाँसी या तेज छींक से उसके दर्द की मिठास कुछ बढ़ जाती थी। मीठा दर्द उसे अच्छा लगता था। एक दो बार खाँसकर या छींक कर वह इस मीठे दर्द को और महसूस कर लेता था। पुलिस की नौकरी ने उसकी बेरोजगारी तो खत्म कर दी थी, परन्तु दिन—भर का सुख—चैन उससे छिन—सा चुका
एक अप्रेषित-पत्र महेन्द्र भीष्म कोई नया नाम दो ‘‘जागते रहो'' मध्य रात्रि की निस्तब्धता को भंग करती सेन्ट्रल जेल के संतरी की आवाज और फिर पहले जैसी खामोशी। मैं जाग रहा हूँ। 3श् ग 6श् की काल कोठरी में ...और पढ़ेकी चहल कदमी और मच्छरों की उड़ानों के बीच इस कोठरी में मुझे आये अभी चार दिन ही हुए हैं। यहाँ मुझे अन्य कैदियों से एकदम अलग रखा गया है। सभी मुझे नृशंस हत्यारा समझते हैं। चार दिन पहले की बात है, जब सेशन जज ने भरी अदालत में अपना फैसला सुनाया था, ‘‘तमाम गवाहों के बयानात व दोनों पक्षों