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एक अप्रेषित-पत्र - 10

एक अप्रेषित-पत्र

महेन्द्र भीष्म

मसीहा

चाय का घूँट भरते हुए असगर ने विक्रम में चढ़ रही सवारियों की ओर ताका, फिर दूसरा घूँट भरने से पहले उसने टैम्पो ड्राइवर की ओर देखा। माथे पर सिंदूरी टीका लगाये वह राधेश्याम ही था, जो चेहरे पर संतोष के भाव लिए बीड़ी फूँक रहा था। कभी राधेश्याम उसकी नयी विक्रम के साथ था। उसी के साथ रहकर वह क्लीनर से ड्राइवर बना था। फिर किराये के टैम्पो चलाने के बाद आज वह मात्र दो बरस में अपनी स्वयं की टैम्पो का मालिक बन चुका था।

अल्ला! सब पर मेहरबान है, सिवाय उसके। असगर ने गिलास में ठंडी हो चुकी बाकी की चाय एक साँस में गले से नीचे उतार ली। वह राधेश्याम से अपने लिए कुछ कहने की गरज से एकाएक उठा, परन्तु देर हो चुकी थी। विक्रम में सवारियाँ पूरी हो जाने के बाद राधेश्याम पहले से स्टार्ट विक्रम को बढ़ा ले गया।

राधेश्याम से अब वह दूसरे फेरे पर ही बात कर पायेगा। कंगाली के इन दिनों में जो अल्ला कराये, कम है। असगर ने अपनी दाढ़ी के खिचड़ी बालों पर हाथ फेरा, गोल चेहरे पर दबी—सी नाक खुजलायी, फिर ढाबे की मालकिन नसीबन से माचिस माँगकर कुर्ते की जेब में पड़ी इकलौती बीड़ी सुलगा ली।

मकर संक्रांति के बाद भी इस बार मौसम में ठिठुरा देने वाली ठंडक थी। अखबार में तो आ गया कि इस बार की ठंड ने चालीस साल पुराना रिकार्ड तोड़ दिया है। पूरे प्रदेश में आठ सौ से ज्यादा मौतें ठंड लगने से अब तक हो चुकी थीं। छोटी चिड़ियों और जानवरों के ऊपर तो मानों इस ठंड में शामत ही आ गयी थी।

जिला प्रशासन ने शीत लहर से बचाव हेतु अस्थाई रैन बसेरा और चौराहों पर अलाव जलवा दिये थे। कोहरा और ठंड से जन—जीवन अस्त—व्यस्त हो चला था, ऐसी ठंड में घर से बाहर निकलने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ती। जिला प्रशासन के द्वारा स्कूल—कालेजों में छुटि्‌टयाँ कर दी गयी थीं।

ऐसी कड़ाके की ठंड में नसीबन की चाय की बिक्री जोरों पर थी। आस—पास के ऑफिस के बाबुओं से लेकर टैम्पों, रिक्शा चलाने वाले तक नसीबन की चाय पीकर अपनी थकान मिटाते थे। नसीबन की इलायची पड़ी चाय का स्वाद कुछ अलग ही किस्म का होता।

नसीबन के यहाँ चाय भी तीन प्रकार की मिलती थी। जिन्हें चालू, स्पेशल, और सुपर क्लास कहा जाता। चालू चाय यानि एक रुपया, स्पेशल यानि दो रुपया और सुपर क्लास का मतलब ढाई रुपया होता था, जिसमें चाय पत्ती की कड़क, गाढ़े दूध की मात्रा ज्यादा और इलायची की भरपूर खुशबू होती थी।

असगर के अच्छे दिनों की गवाह नसीबन इन दिनों उससे चाय के पैसे नहीं लेती और उसे पीने को देती थी सुपर क्लास चाय। वक्त जरूरत उसके मना करने पर भी वह उसकी जेब में कुछ पैसे—रुपये भी डाल दिया करती। इसी कारण वह उसके ढाबे में संकोचवश बहुत कम आता था। क्या करे नसीबन की चाय की तलब उसे ढाबे तक खींच ही लाती थी।

अपने अच्छे वक्त में असगर नसीबन की चाय पीने चार—पाँच किलोमीटर दूर से खाली विक्रम लिए चला आता। नसीबन अपनी चाय के इस कद्रदान द्वारा चाय की तारीफ पर खुश हो बाग—बाग हो उठती और वह इस बात की चर्चा अपने नौकर रज्जू से ग्राहकों के बीच अक्सर करा देती।

पिछले जुमें को असगर की बदहाली का चौथा महीना पूरा हो चुका था। काश! वह उस दिन सादी वर्दी में दारू से धुत उस दारोगा से न उलझता। दारोगा से किराये के पैसे माँग बैठने और उसे मात्र सवारी कह देने भर से गाली—गलौज से मारपीट पर उतर आये उस दारोगा ने असगर के प्रतिरोध करने मात्र से उसे दूसरे दिन विक्रम सहित थाने चलने पर मजबूर कर दिया और झूठे आरोप लगाकर निर्दोष असगर को थाने में बंद कर दिया।

बूढ़ी माँ के द्वारा भाग—दौड़ करने पर वह तो जैसे तैसे जमानत पर उसी रात छूट गया, किन्तु कोर्ट—कचहरी के तमाम चक्कर लगाने के बावजूद वह अपनी रोजी के एक मात्र सहारे विक्रम को थाने से नहीं छुड़ा पाया।

प्रत्येक तारीख के बाद वह थाने में बदहाल खड़ी अपनी विक्रम को दूर से देखता। ‘स्क्रेबर युक्त—प्रदूषण मुक्त' लिखे टैम्पो विक्रम के पिछले शीशे में धूल की कई परतें जम चुकी थीं। एक—दो बार उसका मन हुआ पास जाकर वह विक्रम को झाड़—पोंछ दे, पर संतरी ने उसकी विनती तो सुनना दूर उसे भद्‌दी—भद्‌दी गालियांँ दे व धमका कर भगा दिया, जिससे उसकी दोबारा हिम्मत ही नहीं पड़ी। भरी आँखों से वह स्वयं को और दूर खड़ी विक्रम को मन ही मन दिलासा देता कि अगली तारीख में उसकी विक्रम जरूर छूट जायेगी।

बूढ़ी माँ, चार बाल—बच्चों के साथ बीबी और स्वयं का खर्चा—पानी जुटाने में एक माह में जीवन का यथार्थ असगर के सामने आने लगा। दूसरे माह की समाप्ति के साथ ही रही सही पूंजी भी राशन जुटाने में चुक गयी। विक्रम मिलने की आस में तीसरा और फिर चौथा माह भी बीत गया, पर विक्रम नहीं छूटा तो नहीं छूटा। वकील साहब हर अगली तारीख में विक्रम अवश्य छूट जाने की पक्की उम्मीद जताते।

ग्यारह भाई—बहनों में सातवाँ स्थान था असगर का। दो बड़े भाई दुबई में अच्छे काम में लग गये थे और उससे छोटे ने मुम्बई में किसी फिल्म स्टूडियो में ठीक—ठाक काम पा लिया था। शेष वह और सबसे छोटे भाई किसी तरह महानगर में अपनी—अपनी जीविका चला रहे थे। छः बहनों की शादी अब्बा अपने जीवन—काल में ही कर गये थे। अब्बा के गुजर जाने के बाद से अम्मी उसी के साथ रह रहीं थीं।

तीसरा महीना खत्म होते ही वह अपनी बीवी और चारों बच्चों को उसके मायके छोड़ आया था। इस बीते माह में उसके ऊपर अच्छी खासी उधारी चढ़ चुकी थी। अब उधार माँगना क्या मिलना ही बंद हो गया था। लोगों के तकादे शुरू हो चुके थे। लाला ने पिछला हिसाब न चुकाने पर पहले ही सामान उधार देना बंद कर दिया था

अम्मी ने अपने गले में पड़ी सोने की चेन गिरवी रखकर उसे जमानत में छुड़ाने से लेकर कोर्ट कचहरी का सारा खर्च स्वयं उठाया था।

दो दिन पहले नसीबन के दिये दस रुपये में से एक पसेरी आलू ले लिये थे। माँ—बेटे वही भून—भून नमक संग खा रहे थे। कचहरी में लगी तारीख के अभी सात दिन बाकी थे। पिछले अनुभवों को देखते हुए असगर को इस तारीख में भी कुछ हो पाने की उम्मीद दिखायी नहीं देती थी, तभी आज उसने निश्चय कर लिया था कि वह दूसरों के टैम्पो चलायेगा। कंगाली, फाँकाकसी के इन दिनों में अब हालात यहाँं तक बदतर हो चुके थे कि कोई अगर उसे क्लींनरी में ही रख ले तो वह खुशी से स्वीकार करने को तैयार है।

टैम्पो स्टैण्ड में उसने अपने एक—दो पुराने नजदीकी साथियों से बात की, किन्तु उन्होंने कोई न कोई बहाना गढ़कर उसे टरका दिया। तब उसने जान—पहचान के सभी टैम्पों चालकों से बात की, परन्तु कोई संतोषजनक परिणाम नहीं निकला।

सुबह से शाम होने को आ रही थी। असगर टैम्पो स्टैण्ड के पास के पार्क में जा बैठा। भूख के मारे आँतें कुलबुला रही थीं। सुबह—सुबह भुने आलू नमक खाने से पेट भरे होने का बोध तो नहीं हुआ, पर प्यास खूब लग रही थी। दोपहर तक पेट में आलू पानी सब बराबर हो चुके थे। वह सार्वजनिक नल से पानी कई बार चुहक चुका था।

खाली पानी पीकर पेट भरे होने का अहसास वह ज्यादा देर नहीं रख पाता था। पानी पीते—पीते पेट भी दुखने लगा था, तभी उसे नसीबन का ख्याल आया था।

दो—तीन टैम्पों वालो ने उसे बैठाया ही नहीं। एक नये टैम्पो चालक ने उसे सवारी समझकर बैठा लिया, बिना किराया चुकाये जाने पर, जो जलालत उसे झेलनी पड़ी, वही जानता है। गनीमत रही कि टैम्पो नसीबन की दुकान से काफी पहले ही रुक गया था। वह नसीबन के सामने कंगाली में और अधिक जलील नहीं दिखना चाहता था।

नसीबन ने बिना माँगे—कहे कोने में बैठे असगर के लिए रज्जू के हाथों सिका, मक्खन लगा बंद और सुपर क्लास चाय भिजवा दी।

नसीबन कनखियों से असगर को बंद खाते और चाय पीते देख लेती। असगर के चेहरे पर विषाद और निराशा की रेखाएँ स्पष्ट नजर आ रही थीं।

असगर की इस दशा से नसीबन के हृदय में उसके लिए दया मिश्रित आत्मीयता हो गयी थी। नसीबन ने रज्जू के हाथों एक बंद और असगर को भिजवा दिया। असगर ने कृतज्ञता से नसीबन की ओर देखा और रज्जू से बंद ले लिया पर खाया नहीं। अखबार में लपेट कर कुर्तें की जेब में रख लिया। बंद खाते उसे अपनी अम्मी का बार—बार ध्यान आ रहा था; जो दो दिन से उसी की तरह भुने आलू नमक खाये चारपाई पर लेटी उसकी खैरियत के लिए अल्ला मियां से दुआ कर रही होगी।

राधेश्याम टैम्पो लेकर कब का जा चुका था। बीड़ी खत्म हो चुकी थी। असगर ने चोर नजरों से ग्राहकों में व्यस्त चाय बनाती और हिसाब करती नसीबन की ओर देखा।

राधेश्याम दूसरे फेरे में कम से कम एक घण्टा लगायेगा। मग़रिब की अजान हुए घण्टा भर से ज्यादा बीत चुका था। आगे के दिनों की फिक्र में डूबे असगर ने अपनी अधखुली—अधमुंदी आँखों के सामने एकाएक नसीबन को खड़ा पाया। नसीबन को सामने देख वह अकचका कर बेंचनुमा पटरे से उठ खड़ा हुआ।

नसीबन उसकी ओर सौ रुपये का नोट बढ़ाते हुए कह रही थी, “......... लो ............. भाभी और बच्चों को कल सुबह ही लिवा लाना............ और दोपहर को रस्तोगी दादा के पास चले जाना। वह तुम्हें एक विक्रम सौ रुपये रोज के हिसाब से किराये पर दे देंगे............. मैंने उन्हें पूरे पाँच सौ रुपये पेशगी दे दिये हैं............ और सुनों! यह सब मैं कोई अहसान के लिए नहीं कर रही हूँ। जब थाने से तुम्हारा टैम्पो छूट जाये और कमाने लगो, तब सूद सहित वसूल कर लूँगी।” नसीबन मुस्कराते हुए रज्जू के साथ दुकान बढ़ाने में लग गयी।

असगर ठगा सा हाथ में सौ रुपये का नोट थामें अपने लिए मसीहा बनी नसीबन के उदार हृदय को डबडबा आयीं आँखों के बावजूद ठीक से देख पा रहा था।

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