एक अप्रेषित-पत्र - 11 Mahendra Bhishma द्वारा पत्र में हिंदी पीडीएफ

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एक अप्रेषित-पत्र - 11

एक अप्रेषित-पत्र

महेन्द्र भीष्म

मग़रिब की नमाज

‘‘सुषमा! प्लीज.... देर हो रही है।''

“बस्स... दो मिनट.... अौर जज साहब।”

“क्या सुषमा....? पिछले बीस मिनट से अभी तक तुम्हारे दो मिनट पूरे नहीं हुए?” मैंने रिस्टवाच में देखते हुए कहा।

“ममा क्यों डैडी को तंग करती हो....।” उर्वशी मेरी पाँच साल की बेटी मेरे लिए हमदर्दी जताते बोल पड़ी।

“लो भई.... हो गयी तैयार...।” सुषमा ने उर्वशी के गालों पर तेज चुम्बन जड़ते हुए कहा।

“.... अौर जो मैं पिछले आधे घण्टे से....।” मैंने अपनी बारी न आते देख सुषमा को अपने गाल की अौर संकेत करते हुए कहा।

“आप भी....” सुषमा कुछ लजाते कुछ बनावटी गुस्से के साथ आँखें तरेर कर बोली।

फ्लैट का ताला बंद करने के बाद हम तीनों तीसरी मंजिल से जीने के सहारे नीचे उतरने लगे। लिफ्ट पिछले दो माह से बंद पड़ी है, ओटिस अौर राज्य सम्पत्ति विभाग के मध्य बकाया राशि को लेकर छिड़े विवाद स्वरूप।

मैंने गैराज से पिछले माह ही खरीदी मारुति जेन बाहर निकाली अौर ड्राइविंग सीट में बैठे—बैठे पिछला दरवाजा खोल दिया।

“नहीं डैडी.... हम आगे बैठेंगे.... आपके पास।” उर्वशी कार का दरवाजा बंद करते हुए बोली।

“अच्छा... पर बेटे आपकी ममा।”

“वाह मैं क्यों पीछे बैठूँ...?. मै भी अपनी बेटी के साथ आगे बैठूँगी”।

“बेटी क्यों ममा?.... डैडी के साथ बोलिए न।” उर्वशी खिलखिलाकर हँस दी।

“यू नॉटी गर्ल।” सुषमा उर्वशी की नन्हीं चोटी हौले से खींचते हुए बोली। मैं माँ—बेटी की नोक—झोंक से मुस्कराये बिना न रह सका।

कुछ देर बाद हम लोग शहर को पीछे छोड़ डॉक्टर विनोद के गाँव की ओर जाने वाली सड़क पर थे। शहर से कोई तीस किलोमीटर दूर गाँव में डॉक्टर विनोद के नर्सिंग होम के एक्सटेंशन ब्लाक का मुझे उद्‌घाटन करना था।

शहर की अपेक्षा गाँव में नर्सिंग होम खोलकर डॉक्टर विनोद ने प्रशंसनीय कार्य किया है। इसी कारण मैं उसके आग्रह को टाल नहीं सका था अौर सपरिवार वहाँ पहुँचकर उसे बधाई देना मैंने आवश्यक समझा।

हम लोग परस्पर हँसते बोलते आधे से ज्यादा रास्ता तय कर चुके थे। सड़क के दोनों ओर लगे छायादार वृक्ष और दूर—दूर तक विस्तृत खेत मनोरम दृश्य उपस्थित कर रहे थे। नाले के ऊपर बने पुल से दाहिने सड़क ढाल के साथ घूमी हुई थी। मैंने कार की गति धीमी करते हुए जैसे ही घुमाव पार किया, कार लहराने लगी। मैंने ब्रेक लगाकर कार किनारे रोक दी। बाहर आकर देखा आगे के दोनों पहिए पंचर हो चुके थे।

कार की डिग्गी में एक ही स्टपनी थी। विनोद का गाँव अभी आठ या दस किलोमीटर की दूरी पर था। मेरे माथे पर परेशानी के बल पड़ने स्वाभाविक थे। सुषमा भी कार से उतर कर मेरे पास आ गयी। हम दोनों कुछ सोच पाते तभी, ..... “डैडी.... ममा...'' उर्वशी की एकाएक तेज चीख सुन हम दोनों सकते में आ गये।

कोई बीस—बाइस साल का नौजवान ड्राइविंग सीट वाले दरवाजे के पास उर्वशी को एक हाथ से दबोचे अौर दूसरे हाथ से लम्बा चाकू उसके गले में सटाये हुए हमारी ओर घूर रहा था।

मैं एकाएक आयी इस नयी मुसीबत से अकबका—सा गया। मैंने अपने कदम आगे बढ़ाने चाहे कि वह बदमाश चीखा, “ओय, .... आगे मत बढ़ना वरना.... तेरी बेटी का गला रेत डालूँगा.... जल्दी से अपना पर्स अौर घड़ी इधर को फेंको.... अौर ऐ मेम साहब तुम.... अपने सारे जेवर इन साहब के पर्स में डालकर इधर फेंको, नहीं..... सब का सब रूमाल में बाँध कर इधर को फेंको जल्दी.... क्या समझे....।''

उर्वशी की चीख अौर रुलाई को भूल हम दोनों ने जल्दी जल्दी अपनी—अपनी चीजें निकालकर रूमाल में बाँध दीं अौर रूमाल की पोटली उस बदमाश के पास उछाल दी..।

“अब छोड़ दो मेरी बेटी को.... अौर दफा हो जाओ यहाँ से।'' एकाएक मैं चीखा,.“बेटा डरो नहीं अभी हम आते हैं, तुम्हारे पास।” भयभीत उर्वशी को मैंने साहस बँधाने की कोशिश की।

“अभी नहीं .... रूमाल की पोटली शर्ट के अंदर डालते हुए वह बदमाश बोला,” अब वहीं सड़क पर दोनों उल्टे लेट जाओ, लेटो.... अौर दस मिनट बाद उठना.... समझे कि नहीं ....।''

बेवश, हम दोनों सड़क पर उल्टे लेट गये। अगले ही पल उर्वशी की तेज चीख वातावरण में गूँज गयी.... मैं तुरंत ही उठ खड़ा हुआ.... मैंने देखा वह बदमाश सड़क के किनारे पेड़ों के पीछे ओझल हो रहा था। मैं उर्वशी के पास एक ही छलांग में पहुँच गया। वह अपनी बायीं कलाई दाबे दर्द से रो रही थी।

मैंने कार का दरवाजा खोला। उर्वशी को गोद में लिया, उसे चूमा, फिर

कंधे से लगाकर पीठ थपथपायी। वह दर्द से छटपटा रही थी। उसकी बायीं कलाई उस बदमाश की लापरवाही से चाकू से कट गयी थी, जिससे खून तेजी से बह रहा था। मैंने घाव पर हाथ रखा, खून लगातार बह रहा था। तब तक सुषमा ने अपना रुमाल दिया, सफेद रुमाल भी खून से तरबतर हो गया। उर्वशी की कलाई की नस कट गयी थी, खून बहना बंद ही नहीं हो रहा था। मैं और सुषमा घबड़ा उठे। इस सूनसान सड़क पर कोई भी हमारी मदद करने वाला नहीं था। कुछ ही पल में यह सब घट गया, जिसकी जरा भी आशंका नहीं थी।

“सुषमा तुम मेरे पीछे आओ, जब तक कोई साधन नहीं मिलता.... हम दौड़ते हैं।” मैं उर्वशी को गोद में लिए एक हाथ से कलाई दाबे, डॉक्टर विनोद के गाँव की ओर दौड़ पड़ा।

कोई आधा किलोमीटर हमें दौड़ते हुआ था कि मुझे दो साइकिल सवार सड़क के दाहिनी ओर की पगडंडी से मुख्य सड़क की ओर आते दिखे।

मैं चिल्लाया.... वे दोनों कुछ अप्रत्याशित समझ शीघ्र ही तेज साइकिल चलाते हमारे पास आ गये।

“क्या हुआ बेटा....” चेहरे मोहरे से मौलाना लग रहे, उनमें से एक बुजुर्ग ने बड़ी आत्मीयता से पूछा।

“चचा.... मैं .... यहीं शहर में सिविल जज हूँ। एक बदमाश ने हमारे साथ राहजनी की है.... मेरी बेटी को घायल कर दिया.... पहले हमारी कार पंचर कर दी ... हमें डॉक्टर विनोद के गाँव पहुँचना है.... वे मेरे दोस्त हैं।” मैं एक ही साँस में बोल गया।

“हम दोनों भी वहीं जा रहे हैं.... आज उनके अस्पताल में कार्यक्रम है.... ये मेरे साथ हमारे गाँव के प्रधान जी हैं।

“नमस्ते”

‘नमस्ते.... साब.... मेम साहब आप मेरी साइकिल पर बैठ जाएँ अौर साहब आप मौलवी साहब की साइकिल पर अभी पहुँचते हैं, डॉक्टर साहब के अस्पताल।”

दोनों वृद्ध साइकिल सवार हमारे लिए साक्षात्‌ भगवान का रूप बनकर आ गये थे। मैंने मौलवी साहब की साइकिल ले ली सुषमा उर्वशी को गोद में लेकर कैरियर पर बैठ गयी।

मैं ताबड़तोड़ साइकिल के पैडल मारने लगा। वर्षों बाद साइकिल चलायी, सुषमा शायद ही कभी साइकिल के कैरियर पर बैठी हो, इसी कारण वह स्वयं को संभाल नहीं पा रही थी। दो बार वह गिरते—गिरते बची।

“साहब रुकिए, आप साइकिल के कैरियर पर बच्ची को लेकर बैठ जाएँ, साइकिल मैं चलाता हूँ.... अौर बेटी आप प्रधानजी की साइकिल पर बैठ जाएँ.... जल्दी.....। सोचने का वक्त नहीं है।''

हम दोनों ने बुजुर्गवार की सलाह यंत्रवत मानी। साठ वर्षीय बुजुर्ग मौलवी साहब मंजे सवार की तरह तेज साइकिल चला रहे थे। मैं गोद में उर्वशी को सम्भाले बैठा हुआ जल्दी से जल्दी डॉक्टर विनोद के नर्सिंग होम पहुँचने के लिए बेचैन था।

यही कोई दो किलोमीटर बाद डॉक्टर विनोद के गाँव की ओर से आ रहा सवारी भरा ताँगा दिखाई दिया।

मौलवी साहब को तांगे वाला जानता था। सारी स्थिति समझ ताँगेवाला और उसकी सवारियाँ सहज ही सारी परिस्थितियाँ समझ गयीं।

कुछ पल बाद मैं, उर्वशी को लिए सुषमा सहित ताँगे पर था। ताँगा तेजी से गाँव की ओर बढ़ चला। मैं हृदय से बुजुर्गद्वय और तांगे की ग्रामीण सवारियों की सहृदयता का कायल हो उठा।

कुछ ही मिनटों में हम लोग डॉक्टर विनोद के नर्सिंग होम के बाहर थे। गाँव की मुख्य सड़क के किनारे बने डॉक्टर विनोद के नर्सिग होम के अंदर और बाहर हल्की भीड़ उद्‌घाटन कार्यक्रम के लिए एकत्र थी।

एकाएक ताँगे से मरीज बच्ची को आया देख भीड़ ने हमें कौतूहलवश घेर लिया। इसी बीच डॉक्टर विनोद वहाँ आ गये। हमें इस हाल में देख वह बिना ज्यादा बातचीत किये अपनी ड्‌यूटी में मुस्तैद हो गये।

उर्वशी के शरीर से काफी रक्त बह चुकने के कारण उस पर बेहोशी छाने लगी थी।

आपात्‌ उपचार के बाद डॉक्टर विनोद आपात्‌ कक्ष से चिंतित बाहर निकले अौर बोले, “शर्माजी, उर्वशी बिटिया के शरीर से अधिक रक्त बह जाने के कारण उसकी जान को खतरा है। उर्वशी का ब्लड मैंने चेक कर लिया है, उसका ‘ओ निगेटिव ग्रुप का ब्लड' है, जो इस समय हमारे पास नहीं है।”

“डॉक्टर साहब मेरा ब्लड ‘ओ निगेटिव' है.... मैंने तुरंत कहा.... किन्तु.... पिछले माह ही मुझे ‘ज्वाइंडिस' हुआ था। कहीं इससे कोई....

”ओह.... आप का ब्लड नहीं दिया जा सकता, कम से कम छः माह तक नहीं।

मैं परेशान हो उठा।

“शहर जाने का भी वक्त अब शेष नहीं रह गया है।” डॉक्टर विनोद भी परेशान हो उठे।

हम दोनों कुछ तय कर पाते कि साइकिल सवार दोनों बुजुर्ग वहाँ आ गये। मौलवी साहब ने सीधा प्रश्न किया, “साहब बच्ची अब कैसी है ?”

“चचा उसको ‘ओ निगेटिव ग्रुप' का खून तुरंत चाहिए.... नहीं तो.... वह बच नहीं सकेगी” मेरी आँखों में आँसू आ गये, गला रुँध गया। पहली बार मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा सब कुछ छिननेवाला है, तभी....

“अरे वाह! तो इसमें परेशान होने की क्या बात है.... विनोद बेटा तुम मेरा खून निकालो.... मेरा खून ‘ओ निगेटिव ग्रुप' का है।” मौलवी साहब ने अपनी कमीज की बाँह ऊपर खींचते हुए आग्रहपूर्वक कहा।

मौलवी साहब की दरियादिली देख मैं उनके पैरों के नीचे झुक गया।

“अरे बेटा! यह क्या कर रहे हो, यह तो मानवता का तकाजा है.... हमें एक दूसरे के काम आना चाहिए।” बीच में ही मौलवी साहब मेरा हाथ पकड़ कर मुझे उठाते हुए बोले।

‘साहब' से ‘बेटा' का सम्बोधन आत्मीयता लिए हुए था।

“परन्तु, मौलवी साहब हम आपका खून कैसे निकाल सकते हैं। इस उम्र में रक्तदान करना आपके स्वास्थ्य को जोखिम में डालना है।” डॉक्टर विनोद चिंतित स्वर में बोले।

‘‘बेटा विनोद! मैंने तुम्हें पढ़ाया है, तुम मेरी बात मानो, मेरे स्वास्थ्य की परवाह न करो.... मेरी तो एक टांग कब्र में लटक रही है। जाते—जाते एक बच्ची की जान बचाने का जो पुण्य मुझे मिलने जा रहा है, वह तो मुझसे न छीनों....चलो अंदर।”

मौलवी साहब के पीछे—पीछे डॉक्टर विनोद भी आपात्‌ कक्ष में चले गये।

मैं किंकर्तव्यविमूढ़—सा कभी बैंच पर बैठी चिंतातुर सुषमा को, तो कभी उद्‌घाटन के लिए लगी श्री गणेश जी की फ्रेमजड़ित फोटो की ओर देखता....। श्री गणेश जी में इस वक्त मुझे मौलवी साहब स्पष्ट दिख रहे थे। मैेंने अपने नेत्र बंदकर श्रद्धा से हाथ जोड़ लिये।

कोई आधे घण्टे बाद डॉक्टर विनोद आपात्‌ कक्ष से बाहर निकले।

“शर्मा जी.... चिंता छोड़िए.... समय से ब्लड मिल जाने से उर्वशी बेटी के प्राण खतरे से बाहर है। वह अब ठीक है.... आइए उससे मिल लीजिए।”

हम दोनों पति—पत्नी आपात्‌ कक्ष में गये। अंदर दो पलंग पड़े हुए थे एक पलंग पर उर्वशी लेटी हुई थी, दूसरी पर मौलवी साहब।

पहली बार मेरी आँखों से आँसू निकल पडे़। सुषमा भी अपने आप को रोक न सकी। वह उर्वशी के माथे को चूमते हुए रो रही थी अौर मैं मौलवी साहब के हाथ को....।

उर्वशी को समय रहते खून मिल जाने से उसके प्राणों की रक्षा तो हो गयी, किन्तु अभी उसे अौर खून दिये जाने की आवश्यकता थी। अतः डॉक्टर विनोद जो उर्वशी के सफल उपचार को ही अपने नर्सिंग होम के एक्सटेंशन ब्लाक का उद्‌घाटन मान चुके थे, के सुझाव पर उन्हीं की एम्बुलेंस से हम सब शहर के लिए रवाना हो गये।

जल्दीबाजी में, मैं मौलवी साहब के प्रति ठीक से अपनी कृतज्ञता भी प्रकट न कर सका। शीघ्र पुनः मिलने की उम्मीद के साथ मैंने उनसे विदा ली।

इस बीच विनोद को मैंने सारा घटनाक्रम बता दिया। वह अपने साथ गाँव के दो आदमी भी लेते चल रहे थे, जिनमें से एक मैकेनिक था। रास्ते में कार के पास उन दोनों को कार ठीक करके गाँव पहुँचाने का जिम्मा सौंप, हम लोग शहर के लिये बढ़ लिये।

शहर के जिला अस्पताल में ‘ओ निगेटिव' ग्रुप का खून मिल गया।

सुषमा सारी रात अपनी बेटी के पास बैठी जागती रही। लाख कहने के बाद भी डॉक्टर विनोद गाँव वापस नहीं गये। वह भी सारी रात मेरे साथ जागते रहे अौर अपनी देखरेख में उर्वशी को खून अौर ग्लूकोज चढ़वाते रहे।

उर्वशी के शरीर में खून की पर्याप्त मात्रा पहुँच जाने और समुचित उपचार के बाद वह अब ठीक हो रही थी।

प्रातः डॉक्टर विनोद के जोर देने पर मैंने कल हुई राहजनी और उर्वशी पर हुए प्राणघातक हमले की प्राथमिकी थाने में दर्ज करा दी।

अस्पताल से उसी शाम उर्वशी को छुट्‌टी मिल गयी।

अपने परिवार के साथ हुए हादसे को मैं एक बुरा स्वप्न समझ भूलने का प्रयत्न करने लगा; किन्तु मैं कभी नहीं भूल सकता था उन मौलवी साहब को, जिन्होंने वृद्ध होते हुए भी अपना खून देकर उर्वशी की प्राण रक्षा की थी। यदि वह हमारी मदद को नहीं आते तो शायद आज मेरी प्यारी बेटी उर्वशी जीवित नहीं होती।

मैं नियमित कोर्ट जाने लगा। एक दिन मुझे सूचना दी गयी कि हमारे साथ राहजनी करने वाले बदमाश को पुलिस ने पकड़ लिया है अौर मुझे उसकी शिनाख्त करने के लिए बुलवाया गया।

मैं पुलिस स्टेशन पहुँचा। पकड़ा गया नवयुवक वही बदमाश था, जिसने हमें लूटा अौर उर्वशी को घायल कर उसे मृत्युद्वार तक पहुँचाया था। उर्वशी का ख़्याल आते ही मुझे उस बदमाश के प्रति तेज गुस्सा आया। इच्छा हुई कि उसे बुरी तरह पीट दूँ, फिर स्वयं को काबू में रखते हुए मैं उस बदमाश की शिनाख्त करने के बाद वापस कोर्ट आ गया। लुटेरे बदमाश के पकड़े जाने से सुषमा भी प्रसन्न हुई।

उस अभियुक्त को मेरे कलीग प्रदीप कुमार की अदालत में अगले दिन पेश किया गया। न्यायिक प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए मात्र दो सप्ताह में अभियुक्त के विरुद्ध आरोप विरचित करते हुए न्यायालय द्वारा अभियोजन पक्ष के वकील को निर्देशित किया गया कि वह घटना से सम्बंधित सारे साक्ष्य शीघ्रातिशीघ्र न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करे।

चूँकि सारा मामला एक जज के साथ घटा था। अतः लोगों का ध्यान इस मुकदमें की ओर विशेष रूप से आकृष्ट था। मेरे, सुषमा और उर्वशी के बयान न्यायालय के समक्ष दर्ज हुए।

गवाहों के बयान, उभय पक्षों की दलीलें सुनने एवं अभियुक्त द्वारा अपना जुर्म कबूलने के बाद न्यायालय द्वारा अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 392 का दोषी पाते हुए उसे आठ वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी।

न्यायालय के निर्णय से मेरे मन को शांति पहुँची। मैंने फोन से सुषमा को भी सूचित किया वह प्रसन्नता से बोली, “अच्छा हुआ अपराधी को अपने किए

अपराध की सजा मिलनी ही चाहिए।”

मैंने सुषमा से फोन पर बात करके फोन रखा ही था कि चपरासी ने एक विजिटिंग कार्ड मेरे सामने रख दिया।

“हाँ, हाँ.... बुलाओ उन्हें।” विजिटिंग कार्ड डॉक्टर विनोद का था। अपनी कुर्सी से उठकर मैंने उनका स्वागत किया अौर हाथ मिलाते हुए उन्हें न्यायालय के फैसले की सूचना दी; परन्तु फैसले से प्रसन्नता व्यक्त करने के स्थान पर वह उदास से कुर्सी पर बैठ गये।

“क्या हुआ डॉक्टर साहब.... क्या न्यायालय का निर्णय.....

“नहीं यह बात नहीं है शर्मा जी, दरअसल.... बात कुछ अौर है।”

“क्या ? मैं कुछ समझा नहीं, जरा स्पष्ट करें।” मैंने कौतूहल से पूछा।

“दरअसल शर्मा जी.... जिस बदमाश नवयुवक ने आपके साथ लूटपाट की थी अौर जिसकी चाकू से उर्वशी घायल हुई थी, दरअसल वह.... वह....

“हाँ.... हाँ.... बोलिए डॉक्टर विनोद।”

‘‘.......वह उन्हीं मौलवी साहब का इकलौता बेटा है, जिन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर उर्वशी को खून दिया था।

“क्या?....” मैं मानो आसमान से जमीन पर गिर पड़ा।

“मौलवी साहब प्राइमरी स्कूल में हेडमास्टरी करके दो वर्ष पूर्व रिटायर हुए थे। परन्तु पेंशन उन्हें अभी तक नहीं मिल पायी है। पास—पड़ोस के गाँव के बच्चों को साइकिल से जा—जाकर ट्‌यूशन करके वह किसी तरह अपना और अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं। दो लड़कियों की शादी कर देने के बाद वे आर्थिक तंगी से गुजर रहे हैं,.... जवान इकलौता बेटा बी.ए. करने के बाद बेरोजगार था। किसी ने नगर पालिका में बाबू की नौकरी दिलाने के दस हजार उससे माँगे, जिसका बंदोबस्त न हो पाने के कारण उसने राहजनी की.... वह भी पहली बार आपके साथ अौर पकड़ा गया।”

कटघरे में खड़े उस अभियुक्त नवयुवक का चेहरा मेरी आँखों में घूम गया, जिसमें अब मुझे मासूमियत स्पष्ट नजर आने लगी थी, ‘ओह....' मेरे मुँह से स्वतः निकल गया।

“यह तो बहुत बुरा हुआ मौलवी साहब के साथ.... पर डॉक्टर साहब इतने दिन केस चलता रहा, न तो आपने, अौर न ही मौलवी साहब ने मुझे बताया कि अभियुक्त उनका बेटा है।”

“मुझे पता होता, तब न बताता.... मुझे आज ही मेरे कम्पाउण्डर द्वारा चर्चा करने पर पता चला.... जैसे ही पता चला, मैं यहाँ आपके पास आ गया।

“हे भगवान्‌! अब तो देर हो चुकी.... फैसला भी हो गया....मौलवी साहब पर क्या बीतेगी”। कुछ देर पहले जिस फैसले से मैं जितना प्रसन्न था, अब उतना ही दुःखी हो गया था।

“कम से कम मौलवी साहब को तो एक बार मुझे आकर बता देना चाहिए था।”

“क्या शर्मा जी..... मौलवी साहब ने ही तो अपने बेटे को पुलिस के हवाले किया था।”

“क्या?” यह मेरे लिए दूसरी जबरदस्त सूचना थी।

“हाँ.... वह बेहद कर्तव्यपरायण, परोपकारी अौर संवेदनशील व्यक्ति हैं। जब उन्हें अपने बेटे के कुकृत्य का पता चला, तब वे स्वयं ही अपने बेटे को पुलिस स्टेशन लेकर गए.... अब आप ही बताइये शर्मा जी.... भला ऐसा व्यक्ति क्यों अपने बेटे की सिफारिश के लिए आपके पास आता.... फिर....

“ओह! डॉक्टर साहब यह सब जो भी हुआ मौलवी साहब के पक्ष में कुल मिलाकर बहुत बुरा हुआ.... मैं ... मैं.... तो उनसे मिलने लायक भी नहीं रहा... काश! मुझे जरा भी भनक लग जाती....।”

मैंने अपना सिर थाम लिया अौर कोहनी मेज पर टिका कर कुछ पल के लिए अपनी आँखें बंद कर लीं। सारा घटनाक्रम मेरी आँखों के सामने घूमने लगा।

मैंने सुषमा को फोन पर इतना ही कहा, “जल्दी तैयार हो जाओ, कहाँ चलना है वह, आकर बताऊँगा, डॉक्टर विनोद साथ में हैं।”

“डॉक्टर साहब, प्लीज मैं अभी मौलवी साहब के पास जाना चाहता हूँ, उनके गाँव.... जब तक मैं उनसे मिल नहीं लेता मेरे दिल को चैन नहीं मिलेगा।”

मैंने दीवार घड़ी की ओर देखा, शाम के साढ़े चार बजने को थे।

सूर्यास्त से पहले हम लोग मौलवी साहब के गाँव पहुँच गये, जो डॉक्टर विनोद के गाँव से काफी पहले था।

गाँव के बच्चे हमारी कार के आगे—पीछे हमें मौलवी साहब के घर का पता बताते चलने लगे। मुझे अपना बचपन याद आ गया। गाँव अौर गाँव के लोग जरा भी तो नहीं बदले थे। जल्दी ही हमारी कार मौलवी साहब के कच्चे खपरैलनुमा मकान के सामने खड़ी थी।

मकान के बाहर दायीं ओर सेम की बेलों के नीचे मुर्गियों का दड़बा बना हुआ था अौर बायीं ओर की खाली जगह में कुछ फूल के पौधे अौर सब्जियाँ लगीं थीं। दोनों के बीच का कुछ गज का रास्ता मौलवी साहब के मकान के मुख्य दरवाजे पर जाकर खत्म होता था।

हम सभी कार से बाहर आ गए। उर्वशी दौड़कर मुर्गियों के दड़बे के पास पहुँचकर चूजों से खेलने लगी। डॉक्टर विनोद ने बंद दरवाजे की साँकल खट—खटायी। मैं अौर सुषमा हाथ बाँधे कार के पास खड़े रहे।

कुछ देर बाद ही एक व्याहता लड़की सलवार कमीज पहने व सिर पर दुपट्‌टा रखे दरवाजा खोलकर बाहर आ गयी। उसने डॉक्टर विनोद को ‘सलाम' किया, फिर मुझे और सुषमा को।

वह डॉक्टर विनोद से परिचित थी, “अब्बा नमाज पढ़ रहे हैं.... आप लोग अंदर आ जाइए।”

डॉक्टर विनोद ने हमें अंदर चलने का संकेत दिया। सुषमा ने उर्वशी को बुलाया अौर मेरे पीछे हो ली। डॉक्टर विनोद के पीछे—पीछे चलते हुए हम लोग मकान के बीचोंबीच एक बड़े—से आँगन में पहुँच गए।

सूर्यास्त हो चुका था। आँगन के एक कोने में बने चबूतरे पर दरी बिछाकर मौलवी साहब निश्चिंत, निर्विकार मगरिब की नमाज पढ़ रहे थे।

मौलवी साहब की बेटी ने दो चारपाइयाँ अंदर से लाकर आँगन में डाल दीं अौर उन पर हाथ से बुनी दरियाँ बिछा दीं।

उर्वशी की शरारती आँखें आँगन में कुछ ढूँढ़ने लगीं थीं अौर मैं ईश्वर की प्रार्थना में मग्न मौलवी साहब को अपलक देखे जा रहा था, जो आज भी ढ़हती हुई मानवीय संवेदना की इमारत को पूरी शिद्‌दत अौर कर्तव्यनिष्ठा से दृढ़ता के साथ बचाये हुए थे।

ऐसे परोपकारी, महापुरुष के प्रति मेरी संवेदनाएँ प्रबल हो उठीं थीं। इस बीच मेरे हृदय में पनप रहे निर्णयों की खबर शायद सुषमा तक पहुँच चुकी थी, तभी उसने चारपाई पर बैठते ही मेरी हथेली अपने दोनों हाथों में लेकर मुझे आश्वस्त किया था।

*****