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सीता: एक नारी - उपन्यास
Pratap Narayan Singh
द्वारा
हिंदी कविता
गाथा पुरानी है बहुत, सब लोग इसको जानते
वाल्मीकि ऋषि की लेखनी के तेज को सब मानते
है विदित सबको राम सिय का चरित-रामायण कथा
वर्णित हुआ मद, मोह, ईर्ष्या, त्याग, तप, दारुण व्यथा
अनुपम कथा यह राम के तप, त्याग औ' आदर्श की
उनके अलौकिक शौर्य, कोशल राज्य के उत्कर्ष की
पर साथ में ही है कथा यह पुरुष के वर्चस्व की
नर-बल-अनल में नारि के स्वाहा हुए सर्वस्व की
लंका विजय के बाद कोशल का ग्रहण आसन किया
श्रीराम ने तब राज्य को लोकाभिमुख शासन दिया
सीता: एक नारी ॥ प्रथम सर्ग ॥ गाथा पुरानी है बहुत, सब लोग इसको जानते वाल्मीकि ऋषि की लेखनी के तेज को सब मानते है विदित सबको राम सिय का चरित-रामायण कथा वर्णित हुआ मद, मोह, ईर्ष्या, त्याग, तप, ...और पढ़ेव्यथा अनुपम कथा यह राम के तप, त्याग औ' आदर्श की उनके अलौकिक शौर्य, कोशल राज्य के उत्कर्ष की पर साथ में ही है कथा यह पुरुष के वर्चस्व की नर-बल-अनल में नारि के स्वाहा हुए सर्वस्व की लंका विजय के बाद कोशल का ग्रहण आसन किया श्रीराम ने तब राज्य को लोकाभिमुख शासन दिया उद्देश्य में था निहित मानव मात्र का केवल भला नूतन व्यवस्था ने मगर था राज-रानी को छला बदली व्यवस्था राज्य की,
सीता: एक नारी ॥द्वितीय सर्ग॥ मेरे लिए जो था प्रतीक्षित वह समय भी आ गयारण बीच रावण बन्धु-बांधव के सहित मारा गया कम्पित दिशाएँ हो उठीं जयघोष से अवधेश के विच्छिन्न हो भू पर पड़े थे शीश दस ...और पढ़ेके था मुक्ति का नव सूर्य निकला पूर्व के आकाश मेंशीतल समीरण बह चला, नव-सुरभि भरता श्वास में हरि से मिलन की कल्पना से, हृदय आह्लादित हुआमन दग्ध करता अनवरत जो ताप, वह बाधित हुआ वे धमनियाँ जो सुप्त थीं, उनमें रुधिर बहने लगामन पर खड़ा था वेदना का मेरु, वह ढ़हने लगा अपने अनागत का सुनहला रूप मैं गढ़ने लगी नूतन उमंगों से भरी,
सीता: एक नारी ॥तृतीय सर्ग॥ स्वीकार करती बंध जब, सम्मान नारी का तभीहोती प्रशंसित मात्र तब, संतुष्ट जब परिजन सभी भ्राता, पिता, पति, परिजनों की दासता में रत रहेहोती विभूषित नारि जो मन की नहीं अपने कहे उसके लिए ...और पढ़ेव्यक्त करना पाप है जीवन जगत में नारि का कोई बड़ा अभिशाप है बस कष्ट ही तो नीतियों के नाम पर उसने सहामरजाद के निर्वाह का दायित्व उस पर ही रहा मैंने बचा ली लाज सहकर ताप, जो रघुवंश की हर्षित सभी, सुधि थी किसे मेरे हृदय के दंश की अभिभूत थे श्रीराम मेरे हो रहे यशगान से संतप्त था जो मुख, हुआ दर्पित पुनः अभिमान से जो बुझ
सीता: एक नारी ॥चतुर्थ सर्ग॥ सहकर थपेड़े अंधड़ों के अनगिनत रहता खड़ा खंडित न होता काल से, बल प्रेम में होता बड़ा पहले मिलन पर प्रीति की जो अंकुरित थी वह लता-लहरा उठी पा विपिन में सानिघ्य-जल की प्रचुरता ...और पढ़ेहुई संपृक्त दोनों के हृदय-अनुभूति से बढ़ने लगी थी नित्य-प्रति लगकर मृदुल उर-भीति से लेकिन प्रदाहित वात से थी समय के मुरझा गई पहले हरण फिर सति-परीक्षा, नित्य विपदाएँ नई विच्छोह के बीते दिवस, हिय-गात अपने फिर मिले अनुकूलता पाकर पुनः उसमें नए पल्लव खिले फिर प्रस्फुटित होकर कली थी एक मुस्काने लगी अनुपम, अलौकिक गंध से तन-प्राण महकाने लगी आयाम यह बिल्कुल नया मेरे लिए व्यक्तित्व का था कल्पना से
सीता: एक नारी ॥पंचम सर्ग॥ संतप्त मन, हिय दाह पूरित, नीर लोचन में लिएमुझको विपिन में छोड़कर लक्ष्मण बिलखते चल दिए निर्लिप्त, संज्ञा शून्य, आगे लड़खड़ाते वे बढ़ेउठते नहीं थे पाँव, रथ पर अति कठिनता से चढ़े रक्षार्थ खींचा ...और पढ़ेगमन करते हुए, रेखा कभी पर छोड़ असुरक्षित मुझे वे विपिन में, लौटे अभी लेकिन नहीं दुर्भावना मन में उठी उनके लिएथे कर्मचारी राज्य के दायित्व निज पूरा किए निर्दोष थी मैं, सत्य यह थे राम, लक्ष्मण जानतेपर कर्मचारी तो सदा विधि राज्य का ही मानते भाषा नियम की, राज्यकर्मी सर्वदा ही बोलतेहर सत्य को केवल विधानों पर सदा हैं तोलते होता नहीं