सीता: एक नारी
॥तृतीय सर्ग॥
स्वीकार करती बंध जब, सम्मान नारी का तभी
होती प्रशंसित मात्र तब, संतुष्ट जब परिजन सभी
भ्राता, पिता, पति, परिजनों की दासता में रत रहे
होती विभूषित नारि जो मन की नहीं अपने कहे
उसके लिए इच्छा-अनिच्छा व्यक्त करना पाप है
जीवन जगत में नारि का कोई बड़ा अभिशाप है
बस कष्ट ही तो नीतियों के नाम पर उसने सहा
मरजाद के निर्वाह का दायित्व उस पर ही रहा
मैंने बचा ली लाज सहकर ताप, जो रघुवंश की
हर्षित सभी, सुधि थी किसे मेरे हृदय के दंश की
अभिभूत थे श्रीराम मेरे हो रहे यशगान से
संतप्त था जो मुख, हुआ दर्पित पुनः अभिमान से
जो बुझ गए थे उन दृगों में उतर आई कांति थी
उन्मन हुए हिय प्राण में अब एक अद्भुत शांति थी
हम चल दिए कपिगण सहित वापस अयोध्या के लिए
लंकाधिपति प्रभु चरण में पुष्पक सहित प्रस्तुत हुए
चौदह बरस वनवास ने जो घाव थे मन पर दिए
प्रभु स्नेह वर्षा कर रहे उनको मिटाने के लिए
जिससे अयोध्या लौटने पर पूर्णतः मन स्वस्थ हो
वनवास के दुःख से न अंतःपुर अवध का ग्रस्त हो
पर उस समय अत्यन्त मैं आक्रांत थी निज शोक से
निष्प्राण, निश्चल और थी निर्लिप्त मैं इस लोक से
अज्ञात तो उनको न थी मेरी सघन संवेदना
हिय व्योम पर जो था प्रदाहित मेघ आच्छादित घना
करने लगे हरि जतन सब, मन वेदना से मुक्त हो
कोशल पहुँचने पर नवल आनंद से हिय युक्त हो
रमणीक आश्रम, वन, नगर, जो भी मिले थे राह में
हमने वहाँ विचरण किया नव अनुभवों की चाह में
जाते समय हम निर्वसित, पैदल तथा असहाय थे
कर प्राप्त लंका पर विजय अब शक्ति के पर्याय थे
संपन्न होकर थे चले नव तेज, बल, उल्लास से
आशीष पाकर ऋषिजनों का भर नए विश्वास से
सानिध्य वनचर रीछ वानर का रहा शिक्षण बड़ा
श्रीराम में वनवास से विकसित हुई नवधारणा
दसरथ, नहुष, शिबि, रघु तथा सब पूर्वजों के राज्य से
श्रीराम का नव-राज होगा भिन्न हर साम्राज्य से
क्योंकि गरीबी का नहीं था ज्ञान पुस्तक से लिया
सामान्य जन के साथ ही चौदह बरस उसको जिया
था शोक, दुःख, संताप सब कुछ राम ने वन में सहा
आश्रय बनी थी झोपड़ी, प्रस्तर सदा शय्या रहा
वे सूक्ष्मतर संवेदनाओं से प्रजा के भिज्ञ हैं
अति स्नेह, करुणा से भरे; श्रुति, शास्त्र के वे विज्ञ हैं
उनके दया औ’ शील से हैं जगत में अवगत सभी
होगा न कोई भूमि पर उनसा प्रजा-पालक कभी
थे चिर-प्रतीक्षारत अयोध्या जन खड़े सब राह में
आँखें बिछाए वे हमारे दर्शनों की चाह में
मन में भरा उल्लास, अर्पित कर रहे पुष्पांजली
दुल्हन बना था अवध, चारो ओर थी दीपावली
फिर नव दिवस के साथ ही तैयारियाँ होने लगीं-
श्रीराम के अभिषेक की; नव स्फूर्ति थी सब में जगी
तापस भरत को राज्य-संचालन नहीं स्वीकार था
होते उपस्थित राम के, जिनका प्रथम अधिकार था
बनकर तपस्वी था उन्होंने अवध का पालन किया
परित्याग जीवन के सभी भौतिक सुखों का कर दिया
रहते हुए भी अवध में वनवास ही सहते रहे
श्रीराम के वनगमन का नित शोक वे करते रहे
चौदह बरस जिसकी प्रतीक्षा में उन्होंने तप किया
आया समय जिसके लिए इतना कठिन था व्रत लिया
बरसों बरस से चल रही थी यामिनी अब कट चुकी
लांछन लगा था वन गमन का, कालिमा वह हट चुकी
था निज तपस्या से भरत ने अवध को सिंचित किया
श्रीराम को समृद्ध, उर्वर राज्य हस्तांतरित किया
गणमान्य जन, कुलगुरु तथा निज परिजनों के सामने
था राज्य-पालन का लिया संकल्प प्रभु श्रीराम ने
अभिषेक के उपरांत मंगल कामना करते हुए
होकर प्रफुल्लित अवध से प्रस्थान सब राजा किए
आरम्भ फिर जीवन हुआ था, साथ नव-दायित्व के
नूतन व्यवस्था के क्रियान्वयन और स्थायित्व के
अब तक रहा था राज्य संचालन नृपों के हाथ में
पर राम चलना चाहते लेकर प्रजा-मत साथ में
जिससे सभी के पास ही अभिव्यक्ति का अधिकार हो
हित आम जन का, राज्य के उत्कर्ष का आधार हो
दुःख क्लेश की छाया कहीं भी राज्य में किंचित न थी
खुशहाल कोशल की प्रजा होती कभी चिंतित न थी
अनुरक्त नित गुरु शिष्य रहते पठन-पाठन में जहाँ
थे नित्य ही आचार्य, ऋषिजन शास्त्र मंथनरत वहाँ
"धन, शस्त्र, भुजबल का प्रदर्शन था नहीं बिल्कुल कहीं
यद्यपि कमी संपन्नता औ’ वीरता की थी नहीं
सत-धर्म और समाज स्वीकृत आचरण करते सभी
मन में किसी के द्रोह, इर्ष्या, छल नहीं उपजा कभी
वंचित न था रनिवास भी आमोद, क्रीड़ा, हास से
था सकल अन्तःपुर भरा ऐश्वर्य और विलास से
निज परिजनों का स्नेह, सघनित प्यार प्रियतम का लिए
आनंद के हम नित्य ही सोपान चढ़ते थे नए
पर देख कुब्जा मंथरा को, विगत बातें चित्र सी
मानस पटल पर उभर आतीं वेधतीं उर भित्त सी
फिर नक्कटी विकृत सुपनखा सामने होती खड़ी
संस्पर्श से ही मात्र जिसके विकट विपदा आ पड़ी
जो राक्षसी कारण बनी मेरे दुसह दुःख भोग का
है आज भी पीछे पड़ी अविछिन्न उसकी नासिका
मारे गए सहचर सभी, वह किंतु पीछा कर रही
छितनार हो वह नाक मन में कालिमा है भर रही
चिपटी नखें, उसका सृगाली सदृश मुख फैला हुआ
श्रुति, नासिका से रक्त अविरल दीखता बहता हुआ
मैं सिहर जाती देख उसके बदन की वीभत्सता
भय-राहु हृदयाकाश में मन-चंद्रमा को लीलता
अपरुपता तो है स्वयं ही व्याधि अपने आप में
कुंठा स्वयं गलती, गलाती और को निज ताप में
सुख, शान्ति, वैभव दूसरों का चाहता है वह कहाँ
जो व्यक्ति निज कमजोरियों से ही सदा कुंठित रहा
रघुवंश को निज ताप, कुंठा से गला दी मंथरा
सुख देख मेरा, राम का, हिय कष्ट से उसका भरा
ईर्ष्या हुई थी प्रस्फुटित हिय मध्य ले ज्वाला घनी
वनवास के अभिशाप का कारण हमारे जो बनी
दुःख पूर्ण जीवन देखना ही नीच मन की वृत्ति है
बस छटपटाहट अन्य की, उनके अहम की तृप्ति है
श्रीराम के अभिषेक से अतिशय व्यथित वह आज है
उसको उतरता दीखता वर्चस्व का अब ताज है
अस्तित्व अपना आज उसको भँवर में है दीखता
पर सहज छोड़ेगी नहीं निज दंभ-पूर्ण वरिष्ठता
कोई बदल सकता नही है मंथरा के भाग्य को
पर मंथरा है बदल सकती राम के इस राज्य को
हैं मंथरा के कुब्ज पर हँसते अयोध्याजन अभी
कुब्जा हँसेगी, कुब्ज कर सम्पूर्ण जनता को कभी
उसका समर्पण मात्र कैकेई भरत के प्रति यहाँ
क्यों मोह होता अवध से, पारंपरिक दासी कहाँ
है स्वार्थ का वटवृक्ष ढँककर हृदय को उसके खड़ा
श्रीराम-सिय के शील से भी स्वार्थ उसका है बड़ा
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