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कलयुगी सीता - उपन्यास
Saroj Verma
द्वारा
हिंदी महिला विशेष
बात उस समय की है, जब मैं छै-सात साल का रहा हूंगा,अब मेरी उर्म करीब चालीस साल है,वो उस समय का माहौल था,जब लोगों को शहर की हवा नहीं लगी थी,जब लोग कहीं से अगर दूर की रिश्तेदारी निकल आए तो बहुत मान -सम्मान के साथ अपने घर में रात गुजारने देते थे,सब अपना ही अपना था पराया कुछ भी नही,अगर गांव में किसी पड़ोसी के यहां चले जाओ तो लोग तुरंत चूल्हा जलवा कर ताजा खाना बनवाते थे। मुझे याद है बचपन में जब किसी के घर शाम को जल्दी चूल्हा जल जाता था, तो हम लोग पास-पड़ोस से
बात उस समय की है, जब मैं छै-सात साल का रहा हूंगा,अब मेरी उर्म करीब चालीस साल है,वो उस समय का माहौल था,जब लोगों को शहर की हवा नहीं लगी थी,जब लोग कहीं से अगर दूर की रिश्तेदारी निकल ...और पढ़ेतो बहुत मान -सम्मान के साथ अपने घर में रात गुजारने देते थे,सब अपना ही अपना था पराया कुछ भी नही,अगर गांव में किसी पड़ोसी के यहां चले जाओ तो लोग तुरंत चूल्हा जलवा कर ताजा खाना बनवाते थे। मुझे याद है बचपन में जब किसी के घर शाम को जल्दी चूल्हा जल जाता था, तो हम लोग पास-पड़ोस से
मेरी मकरसंक्रांति की छुट्टियां हो गई थीं, तो पिताजी ने मां से कहा कि चलो गांव होकर आते हैं,मां और मैं भी यही चाहते थे तो दूसरे दिन हम गांव आ गये, पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई, और मैं तो ...और पढ़ेरखकर तुरन्त काकी के घर भागा, देखा तो काकी खाना बना रही थी, चूल्हे की हल्की रोशनी और लालटेन की लौ में उनका चेहरा बुझा-बुझा सा लग रहा था, उन्हें ऐसे देखकर मुझे अच्छा नहीं लगा और ताई जी की दोनो बेटियो का उनके बगल में बैठ कर खाना,खाना पता नहीं, मैं कुछ समझ नहीं पाया,बस उलझन में था। अरे,लल्ला
यूं तो मैं नोएडा में रहता हूं, और मेरा आफिस दिल्ली स्थित मयूर बिहार में है,रोज का वहीं तनाव भरा जीवन, ऐसा लगता है समाज से सारी शुद्ध चीजों का नाश हो गया है,चारों तरफ बनावटी पन, वो चाहे ...और पढ़ेहो या रिश्ते, अब तो नारी में ना वो शालीनता नजर आती है और ना नजाकत,बस रंगी-पुती गुड़ियों जैसी, कितना अंतर आ गया है, कहां हमारी मां और काकी,बुआ,मौसी एक मार्यादित जीवन जिया करती थी और आज नारी___ खैर, मैं अब रहता हूं, बड़े शहर में, लेकिन मैं भी उत्तर प्रदेश स्थित बुंदेलखंड के एक छोटे से कस्बे महोबा, जो
मैं एक पुरूष हूं, तो नारी के जीवन के बारे में मैं क्या कहूं, लेकिन जो नारी एक नए जीवन को दुनिया में लाती हैं, वो कमजोर तो कभी नहीं हो सकती,बस वो मजबूती का दिखावा नहीं करती,ताकि हम ...और पढ़ेका मनोबल बना रहे, अपने लिए सम्मान नहीं चाहती, ताकि हम पुरूषों का स्वाभिमान बना रहे,सारी उम्र सिर्फ वो त्याग ही तो करती हैं और कभी जाहिर नहीं करती, कोई दिल दुखा दे तो कोने में जाके दो आंसू बहाकर अपना मन हल्का कर लेती है,वो कमजोर नहीं होती,बस अपनी शक्ति को वो उजागर नहीं करती। बस,ऐसी ही थी कस्तूरी