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कलयुगी सीता--भाग(२)

मेरी मकरसंक्रांति की छुट्टियां हो गई थीं, तो पिताजी ने मां से कहा कि चलो गांव होकर आते हैं,मां और मैं भी यही चाहते थे तो दूसरे दिन हम गांव आ गये, पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई, और मैं तो समान रखकर तुरन्त काकी के घर भागा,
देखा तो काकी खाना बना रही थी, चूल्हे की हल्की रोशनी और लालटेन की लौ में उनका चेहरा बुझा-बुझा सा लग रहा था, उन्हें ऐसे देखकर मुझे अच्छा नहीं लगा और ताई जी की दोनो बेटियो का उनके बगल में बैठ कर खाना,खाना पता नहीं, मैं कुछ समझ नहीं पाया,बस उलझन में था।
अरे,लल्ला कब आए? काकी ने पूछा
थोड़ी देर पहले, मैंने कहा
चलो खाना खा लो,तुमाय पसंद की कढ़ी बनाई है, चलो आसन बिछाकर बैठ जाओ, काकी बोली।
लेकिन मुझे सब बदला -बदला सा लग रहा था,उस माहौल में मेरा मन घबरा रहा था, तो मैंने कहा काकी अभी मैं जाता हूं,कल आऊंगा , हाथ-पैर भी नहीं धुले और यहां चला आया,मां राह देख रही होगी, और मैं घर आ गया।
घर आया तो मां और मेरी खुद की सगी काकी रसोई के कामों में लगी हुई थी, काकी गर्म-गर्म रोटी सेंक रही थीं, चूल्हे पर, और मां थालियां परोसने का काम कर रही थीं,
फिर मां बोली, मिल आया,कस्तूरी काकी से,चल अब खाना खाने बैठ जा,हां यही नाम था उनका कस्तूरी।
फिर मैं वहीं मां और चाची के पास बैठ गया खाना खाने और काकी ने मां से कहा, जीजी बहुत बुरा हुआ बेचारी कस्तूरी के साथ, काम-काज में इतनी चतुर, और देखने में इतनी खूबसूरत,भाग्य फूट गये बेचारी के जो ऐसे आदमी के पल्ले बंध गई,
का हुआ, बेचारी के साथ,मां ने पूछा।
का होना है,ऐसी पत्नि को देवर जी छोड़ कर चले गए,
आप गांव आई नहीं, सात-आठ महीने से तो आपको कुछ पता नहीं, वो देवर जी जब शहर में पढ़ते थे तो उनके साथ में पढ़ने वाली किसी लड़की को पसंद करते थे, लेकिन बड़े ताऊ जी ने ज़बरदस्ती देवर जी की शादी कस्तूरी से करवा दी अब उनकी नौकरी लग गई तो उन्होंने उसी लड़की से शादी करली और उसी के मायके में रहने लगे हैं क्योंकि वो अपने मां-बाप की इकलौती संतान थी।
और इधर कस्तूरी रोज अंदर ही अंदर घुटी जा रही हैं, रात-रात भर आंसू बहाकर, उसकी ना जाने क्या हालत हो गई है, पता नहीं कौन सा वनवास काट रही है।
तीन महीने पहले बेचारी की जिठानी तीसरे बच्चे को जन्म देते समय नहीं रही अब तीनों बच्चों को वहीं सम्भाल रही है,सास तो पहले ही ना थी,उसी से सुख-दुख की बातें कर लेती थी,अब वो भी ना रही।
मैं ये सब बड़े ध्यान से सुन रहा था, तभी काकी का चेहरा उतरा हुआ था और मैं उनका दिल दुखा कर चला आया, शायद मुझे बुरा लग गया था कि उनकी जेठानी की बेटियां उनके पास बैठ कर खाना खा रही थीं।
हमें गांव में दो-चार दिन ही हुए थे कि दादाजी मतलब काकी के ससुर भी नहीं रहे, वो इन सब दोषी खुद को मानते थे,उनको लगता था कि उनकी वजह से एक निर्दोष लड़की की जिंदगी बर्बाद हो गई, उन्होंने काकी से दूसरी शादी करने के लिए भी कहा, लेकिन उन्होंने मना कर दिया, लेकिन मरते वक्त उन्होंने ने अपनी जायदाद से कस्तूरी काकी के पति को बेदखल कर दिया और आधी जायदाद काकी के जेठ के नाम और आधी कस्तूरी काकी के नाम कर दी
वो मेरी सगी काकी नहीं थी, लेकिन मेरे मन में उनके लिए बहुत अपनापन था,
फिर हम गांव से वापस आ गये__
कृमश:___


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