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भीड़ में - उपन्यास
Roop Singh Chandel
द्वारा
हिंदी सामाजिक कहानियां
भीड़ में (1) सुनकर चेहरा खिल उठा था उनका. उम्र से संघर्ष करती झुर्रियों की लकीरें भाग्य रेखाओं की भांति उभर आई थीं. आंखें प्रह्लाद पर टिकाकर पूछा, “कहां तय की लल्लू ने शादी?” “आपको कुछ भी खबर नहीं बाबू जी?” प्रह्लाद, जो उनके चचेरे भाई का बेटा है, ने आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा था. “इसी शहर---काकादेव की पार्टी है---.” प्रह्लाद रुका, फिर बोला, “मैं सोचता था कि रमेन्द्र ने आपको बताया होगा---वे और भाभी जी तीन बार आ चुके हैं यहां----“ “फुर्सत न मिली होगी---लल्लू ’बिजी’ भी बहुत रहता है.” प्रह्लाद के चेहरे से आंखें हटा वे पास रखे
भीड़ में (1) सुनकर चेहरा खिल उठा था उनका. उम्र से संघर्ष करती झुर्रियों की लकीरें भाग्य रेखाओं की भांति उभर आई थीं. आंखें प्रह्लाद पर टिकाकर पूछा, “कहां तय की लल्लू ने शादी?” “आपको कुछ भी खबर नहीं ...और पढ़ेजी?” प्रह्लाद, जो उनके चचेरे भाई का बेटा है, ने आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा था. “इसी शहर---काकादेव की पार्टी है---.” प्रह्लाद रुका, फिर बोला, “मैं सोचता था कि रमेन्द्र ने आपको बताया होगा---वे और भाभी जी तीन बार आ चुके हैं यहां----“ “फुर्सत न मिली होगी---लल्लू ’बिजी’ भी बहुत रहता है.” प्रह्लाद के चेहरे से आंखें हटा वे पास रखे
भीड़ में (2) उन्होंने तीन महीने के अन्दर ही चुपचाप पड़ोसी गांव के शिवधार यादव को खेत बेच दिए थे. इस प्रकार गांव से नाता टूट गया था. गांव आज भी उनके जेहन में मौजूद है. लेकिन उस दिन ...और पढ़ेबाद वे गांव नहीं गए. खेत बेचकर गोविन्दनगर में प्लाट लिया था और रहने योग्य मकान बनवा लिया. इतना सब होने तक रमेन्द्र और बड़ी बेटी का जन्म हो चुका था. एल.एल.बी के बाद उन्होंने क्लर्की छोड़ दी थी. सोचा था कि प्रैक्टिस करेंगे, लेकिन तभी इन्कम टैक्स विभाग में जगहें निकलीं और कुछ मित्रो की सलाह पर आवेदन कर
भीड़ में (3) ’कभी उसने केवल ’गुडनाइट’ नहीं कहा. ’गुडनाइट बाबूजी’ ही कहता रहा है. लेकिन नौकरी के बाद मुझसे मिला ही कितनी बार---चार बार. और तब ऎसा अवसर भी नहीं आया. आज उसका बदला रुख देख आश्चर्य हो ...और पढ़ेहै. क्या आई.ए.एस.—पी.सी.एस. बनने वाले सभी बच्चों की मूल प्रकृति में परिवर्तन हो जाता है. क्या मेरा यहां आना उसे अच्छा नहीं लगा, इसीलिए ’गुडनाइट’ कहकर---मेरे इतना सब कहे को एक शब्द में ध्वस्त कर वह चला गया.’ देर तक उन्हें नींद नहीं आई. सुबह रमेन्द्र के उठने से पहले ही नहाकर तैयार हो अखबार देख रहे थे. सात बजा
भीड़ में (4) वे चिन्तित होते तो सावित्री कहती, “लल्लू के बाबू—तुम अपने शरीर पर ध्यान दो. देख रही हूं कि कंचन-सी काया मेरी चिन्ता में मिट्टी कर रहे हो. अरे मुझसे तो भगवान ही रूठ गया है---तुम भी ...और पढ़ेको बीमार कर लोगे तो जो दो-चार साल मुझे तुम्हारे साथ रहने को मिलने वाले हैं वे भी न मिलेंगे.” वे चुप रहते. जिन्दगी भर अच्छा खाने-पहनने वाले उन्हें सादा-खाना और दो जोड़ी कपड़ों में अपने को सीमित कर देना पड़ा था. बचपन से दूध उनकी कमजोरी रहा था. सुबह वे दो बिस्कुट या एक केला के साथ आधा लीटर
भीड़ में (5) चलते समय लल्लू बोला था, “बाबू जी अम्मा की तबीयत तो अधिक ही खराब दिख रही है. पीछे आया तब इतनी कमजोर न थीं.” “इलाज तो चल ही रहा है. जो हो सकता है कर रहा ...और पढ़ेन चाहते हुए भी स्वर तिक्त हो उठा था. “क्यों न दिल्ली ले जाकर दिखाइए! वहां शायद अच्छा इलाज हो सकेगा.” “हुंह” वे बात टाल ग्गये थे. बेटे को बताना उचित नहीं समझा कि दिल्ली की चिकित्सा की सम्भावनाएं वे तलाश चुके हैं और यदि ले भी जाना चाहें तो जेब अनुमति नहीं देगी. “आप ये रुपए रख लीजिए---कुछ और