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भीड़ में - 5

भीड़ में

(5)

चलते समय लल्लू बोला था, “बाबू जी अम्मा की तबीयत तो अधिक ही खराब दिख रही है. पीछे आया तब इतनी कमजोर न थीं.”

“इलाज तो चल ही रहा है. जो हो सकता है कर रहा हूं.” न चाहते हुए भी स्वर तिक्त हो उठा था.

“क्यों न दिल्ली ले जाकर दिखाइए! वहां शायद अच्छा इलाज हो सकेगा.”

“हुंह” वे बात टाल ग्गये थे. बेटे को बताना उचित नहीं समझा कि दिल्ली की चिकित्सा की सम्भावनाएं वे तलाश चुके हैं और यदि ले भी जाना चाहें तो जेब अनुमति नहीं देगी.

“आप ये रुपए रख लीजिए---कुछ और भेजूंगा.” लल्लू ने पांच सौ रुपए उनकी ओर बढ़ाए तो उन्होंने हाथ हिलाकर मना करते हुए कहा, “इन्हें रखो तुम. बैंक में अभी पैसा है. जब जरूरत होगी तब तुम दोनों भाइयों से ही कहूंगा.”

“बाबूजी---!” उन्हें लगा शायद लल्लू को उनकी बात चुभी है.

“तुम जानते हो रिटायर्ड होने के बाद हमारे खर्च ही कितने रहे! जबकि तुम्हारी तो गृहस्थी है---तुम चिन्ता न करो---जब भी जरूरत हुई फोन करूंगा.”

उसके बाद लल्लू ने कुछ कहा नहीं. रुपए पर्स में रखे और सरकारी गाड़ी में बैठकर चला गया था. वे सोचते रहे थे कि पैसे न लेने से लल्लू को चोट पहुंची होगी. ले ही लेना चाहिए था---लेकिन क्यों? क्या पैसा दे देने मात्र से मातृऋण से मुक्त हो जाते हैं! मां-बाप क्या बच्चों से यही अपेक्षा करते हैं. मैंने तो कभी की ही नहीं. आवश्यकता ही नहीं रही. उन्हें किसी योग्य बनाना कर्तव्य समझा. बन भी गए. लेकिन जो असमर्थ मां-बाप बच्चों से ऎसी अपेक्षा करते हैं, वह अस्वाभाविक भी नहीं है. ’हम आपकी आवश्यकताएं पूरी कर रहे हैं, आपको और क्या चाहिए’ सोचने वाले बच्चे यह क्यों भूल जाते हैं कि पैसे से कहीं अधिक आवश्यकता वृद्धावस्था में अपनत्व और प्यार की होती है. बदलती परिस्थितियों में वह यहां सम्भव नहीं है, लेकिन कभी-कभी---अवकाश में, त्योहार में---सपरिवार दो-चार दिन आकर रह जाने में जो सुख मिलता है, वह हर महीने या दो-चार महीनों में पैसे देने से नहीं.’ सोचते झपकी लग गयी थी.

“तुम कुछ भी कहो लल्लू के बाबू---बड़ा ममतालु है लल्लू. जाते समय आंखें गीली थीं तो मैंने ही टोका, चिन्ता न कर बेटा, मैं इतनी जल्दी जाने वाली नहीं. तुम लोगों से पूरा कर्ज वसूल कर ही जाऊंगी. कुछ दिन के लिए कानपुर बदली करवा ले तो तेरी सेवा का सुख पा लूं. विनीता के हाथ की सिकी खाई नहीं. नंदिता पहले भी रही और अभी हाल में आकर गयी. वैसे तू बहू को लाएगा नहीं, अब बदली ही करवा ले यहां. पोते के साथ रह लूंगी तो सुख से जा सकूंगीं” फिर उन्हें टोका था, “तुम सुन रहे हो न लल्लू के बाबू?”

“हां, सुन रहा हूं.”

“कह तो रहा था कि बदली करवाने की कोशिश करेगा.”

“हुंह.” वे इतना ही बोले थे. जानते थे कि यह झूठी दिलासा है, लेकिन सावित्री के लिए वह झूठी दिलासा भी संजीवनी बने. वह स्वस्थ हो जाए, उन्हें क्या चाहिए.

“लल्लू भी क्या करे लल्लू के बाबू! नौकरी की जिम्मेदारी भी बड़ी चीज है. फिर पुत्तन बीमार न हो जाता तो वह लाता ही. चलो कोई बात नहीं. दो घंटे के लिए वह आ गया तो मन को तसल्ली हुई.” सावित्री सन्तुष्ट थी.

वे सावित्री के चेहरे की ओर देखते रहे. चश्मे के अन्दर आंखें गड्ढे में धंस चुकी थीं. सोचा, कितनी निश्च्छल---भोली है यह. जीवन में न कभी मुझसे कुछ चाहा न मुंह खोलकर कुछ मांगा, जो दे दिया ले लिया, जो पहनाया—पहना—मन में कोई दुर्भावना नहीं. उसके जाने के बाद मेरा क्या होगा!” उनकी आंखें छलछला आई थीं. चेहरा घुमाकर रूमाल रख लिया था आंखों पर.

एक वर्ष बाद सावित्री को माइनर हार्ट अटैक हुआ. हैलट अस्पताल में भर्ती करवाया. दोनों बेटॊं को फोन किया बाबू रघुनाथ सिंह ने. धीरेन्द्र से बात हुई, और रमेन्द्र के विषय में पता चला कि उसका ट्रांसफर देहरादून हो गया है दो सप्ताह पूर्व. परिवार लखनऊ में छोड़ वह चला गया था. उसके नए दफ्तर का पता लेकर उसे टेलीग्राम दिया. अकेले घर और अस्पताल के बीच वे झूलने लगे. बैंक में पांच सौ रुपए बचे थे. तभी धीरेन्द्र आ गया और हजार रुपए लेता आया था. उन दिनों इतने बहुत थे उनके लिए. दो दिन रहकर धीरेन्द्र चला गया था. वे फिर अकेले रह गए थे. इस बार मन में आया कि बेटियों को सूचित कर दें, “सावित्री के लिए कितनी बार सबको दौड़ाएंगे. जब स्थिति गम्भीर होगी तब देखेंगे. उनके बच्चों की पढ़ाई में बाधा क्यों डालें. वे भी तो नौकरी करती हैं.” सोचकर वे टाल गए थे. हालांकि सावित्री बच्चों को देखना चाहती थी. उसे लग रहा था कि अब वह नहीं बचेगी, लेकिन, “मैं जल्दी ही तुम्हें घर ले चलूंगा—घबराओ नहीं. घर पहुंचकर सभी को बुलाना ठीक होगा यहां, अस्पताल में अधिक देर टिकने भी नहीं देते.” कहकर उन्होंने सावित्री को आश्वस्त कर दिया था. उनके चेहरे पर नजरें टिका सावित्री ने कहा था, “तुम ठीक कहते हो लल्लू के बाबू.”

सावित्री को एक सप्ताह बाद अस्पताल से अवकाश दे दिया गया. सौ परहेज और महंगी दवाएं. शुगर कंट्रोल करने की हिदायत. जमापूंजी खत्म हो गयी थी. पेंशन से सावित्री का इलाज संभव न था. उन्होंने मकान के दो कमरे किराए पर देने का निर्णय किया. कई बार पड़ोसी सरदार सतविंदर सिंह बवेजा ने उनसे कहा था, “बाबू जी, ऊपर का पोर्शन किराए पर क्यों नहीं उठाते? पैसे काटते हैं क्या?” वे सरदार की बात टालते रहे थे. लेकिन सावित्री की बिगड़ती स्थिति और शून्य हुए बैंक बैलेंस ने उन्हें सरदार की बात पर विचार के लिए विवश किया. उन्हें लगा पाकिस्तान से आए ये लोग कितना सोच-विचार करते हैं जीवन के हर पहलू पर, तभी इतने कम समय में अपना व्यवसाय खड़ा कर लिया और कोठी बना ली. जब आए थे तब कंगाल थे. कुछ मदद सरकार से मिली, शेष श्रम, आत्म-विश्वास और जीवन के प्रति व्यवहारिक दृष्टि ने उन्हें यहां तक पहुंचा दिया. मैं तो सदैव अव्यवहारिक ही रहा. सोचकर चलता तो गांव की बेची खेती की रकम ही आज कई गुना होकर पास होती. उसके ब्याज से ही सावित्री का इलाज होता. लेकिन घर ही बनवा पाया उससे और शेष यों ही उड़ गयी. ’व्यर्थ गयी ऎसा कहना ठीक न होगा---’

सोना-चांदी खरीदा, जरूरत पर प्रह्लाद के बड़े भाई को दिया था. ’चचेरा भतीजा है. लौटा देगा, लेकिन चार वर्ष तक उसकी स्थिति संभली नहीं और उसके बाद—वह रहा ही नहीं. किससे मांगते पैसे! बच्चे उसके इस योग्य न थे. उसके पत्नी बच्चों का बोझ प्रह्लाद के सिर आ पड़ा था. प्रह्लाद से कभी कहा नहीं. बाद में उस प्रसंग को ही भूल गए.

सावित्री को घर ले आने के बाद वे टोह में रहने लगे कि सतविंदर सिंह दिखाई दे तो वे किराएदार की बात चलाएं. उसके घर जाकर यह सब नहीं कहना चाहिए. गर्ज भले ही हो, लेकिन प्रकट नहीं होना चाहिए. आयकर विभाग की नौकरी ने उन्हें इतना तो सिखाया ही था.

एक सप्ताह बाद सतविंदर दिखा. उन्होंने ही उसे सतश्री अकाल कहा. सतश्री अकाल कह सतविंदर ने अफसोस व्यक्त किया, “देखिए बाऊ जी, बिजनेस बड़ी खराब चीज है. ये चार दिन वी पैरा नहीं लगन देदां. आन्टी जी दे बीमार होन्दा पता घर जाके लग्या---आन्टी हुन कैसी है?”

वे जानते थे कि सरदार का टायरों का थोक व्यवसाय है. जे.के.टायर की एजेन्सी है. दूसरे शहरों की दौड़ बनी रहती है, लेकिन उन्हें यह बात कभी पसन्द नहीं आती इन लोगों की कि जब भी सामने पड़े अफसोस जाहिर कर दिया. तुम नहीं जानते थे, लेकिन तुम्हारे बीवी-बच्चे तो थे. बीवी एक बार भी न घर आई न अस्पताल. जरूरत पड़ेगी तो रात बारह बजे भी जगा देंगे. इनकम टैक्स बचाने के लिए कितनी ही बार सलाह लेने वह रात-बिरात आ जाता रहा है. भावनाओं में न बहने में ही शायद सफलता का रहस्य छुपा होता है.

“लेकिन मुझे क्या! किसी से इतनी अपेक्षा क्यों? फिर, कभी किसी काम के लिए कहूंगा तो मना तो करेगा नहीं---करे भले ही न!”

“पहले से बेहतर हैं.”

“गुरु महाराज दी मेहर है---सब ठीक हो जाएगा.”

सरदार की बात पर ध्यान न दे वे सोचते रहे कि उससे किराएदार के विषय में कहना चाहिए या नहीं. टोका है तो कहना ही चाहिए! सरदार की बात खत्म होते ही बोले, “आप कोई किराएदार बता रहे थे. ऊपर के दो कमरे देना चाहता हूं.”

“आहो---बाबू जी, एक-दो दिन में बताऊंगा.”

“जल्दी नहीं है.” फिर रुककर बोले, “कोई होगा तो साफ-सफाई होती रहेगी.”

“मैं त पहले वी कया सी. होन नी की----.”

और दूसरे ही दिन सतविंदर सिंह एक सिख युवक ले आया. “बाबू जी, मंजीत चंगा बन्दा है. गुमटी बिच स्टेशनरी दी दुकान है. छोटा ज्य परिवार. आप ते दो बच्चे. येदे मम्मी डैडी ते छोटे भा अशोकनगर न रहदें.”

मंजीत लगभग बत्तीस-तेंतीस का नौजवान था. स्मार्ट और मधुर. पूरा नाम था मंजीत सिंह गिल, बिना किसी तहकीकात के उन्होंने मंजीत को कमरे दे दिए. तीसरे दिन ही उसने शिफ्ट कर लिया. उसके सात साल का लड़का और पांच साल की लड़की थी. बीवी पढ़ी-लिखी सुन्दर और सफाई पसन्द. ऊपर का पूरा पोर्शन धो-पोंछकर साफ रखती. काम समाप्त कर सावित्री के पास आ बैठती. विमला की मदद करती और घर को साफ रखने के लिए उसे उचित निर्देश देती. दवा खत्म होने पर कभी-कभी “---बाबू जी आराम करें, मैं चली जाती हूं मेडिकल स्टोर---बाजार भी होती आऊंगी.” कहकर वह दवा ले आती. वे पैसे देने लगते तो कहती, “लौटकर ले लूंगी.” और लौटकर ले भी लेती.

एक महीने में ही मंजीत का परिवार उनका अभिन्न हो गया. सावित्री को बहू-पोतों का अभाव खटकना बन्द हो गया. लेकिन दस महीने ही बीते थे कि सावित्री को मेजर हार्ट अटैक हुआ. इस बार उन्होंने किसी को खबर नहीं दी. मंजीत का भरोसा था. पैसा भी बहुत खर्च हुआ. वे मंजीत के पांच हजार के कर्जदार हो गए. सावित्री ठीक तो हो गयी, लेकिन कमजोर इतनी कि अब-तब की स्थिति रहने लगी. रमेन्द्र-धीरेन्द्र रुटीन में घर आए. लेकिन उन्होंने अर्थाभाव की चर्चा नहीं की.

छः महीने और बीत गए. डेढ़ हजार का कर्ज और बढ़ा मंजीत का, लेकिन उन्होंने यह अनुभव भी किया कि उनके कर्जदार होने के बाद मंजीत के स्वभाव में रुखाई आ गयी थी. उसकी पत्नी अब सावित्री के पास नहीं आती थी और बच्चे भी दूर रहने लगे थे. तभी एक दिन मंजीत ने कहा था, “बाबूजी एक बात कहना है.” मंजीत के स्वर में नाटकीय संकोच उन्होंने महसूस किया.

“कहो, संकोच की कोई बात नहीं है.”

“तवानू पता ही है कि असी बिजनैस वाले ठहरे. ज्यादा देर तक रकम फंसान दा मतलब बिजनैस ठप.”

मंजीत क्या कहना चाहता है वे समझ चुके थे. हालांकि उन्हें ये कल्पना न थी कि वह इतनी जल्दी तकादा करेगा. बोले थे, “तुम्हारी बात समझ रहा हूं बेटा---मुझे कुछ वक्त दो. कुछ करता हूं.”

“दस पंदरा दिन च हो जाए तो अच्छा होगा---.” कहकर मंजीत चला गया था. वे कटे पेड़ की भांति बिस्तर पर ढह गए थे. सोचते रहे थे, “लल्लू से कहूं या धीरेन्द्र से. धीरेन्द्र के लिए इतनी बड़ी रकम कठिन होगी. लल्लू कर सकता है व्यवस्था. एस.डी.एम. है. उसके लिए मुश्किल नहीं होगा. लेकिन तभी तेजी से दिमाग में आया, “सारे एस.डी.एम. एक जैसे नहीं होते कि किसी व्यापारी को कहा और काम हो गया. आखिर लल्लू मेरा बेटा है, जिसके बाप ने जीवन में कोई समझौता नहीं किया---बेटा कैसे कर सकता है. नहीं उससे भी नहीं कहूंगा.” सावित्री के जेवर तो पहले ही बेच चुका हूं. जो बचा है वह इतना नहीं, मंगल सूत्र वह बेचने न देगी. कहेगी, “मेरे जीते-जी इसे नहीं बेचो. चाहो तो मकान बेच दो. बाबू पुरवा या जूही के लेबर क्वार्टर्स में दो कमरों का फ्लैट लेकर रह लेंगे.” वह पहले भी ऎसा कह चुकी है.

वे कोई निर्णय नहीं कर पाए. पन्द्रह दिन बीत गए. किराया देने के बहाने मंजीत आया. पैसे देने लगा तो वे बोले, “मंजीत बेटा, पैसों का इन्तजाम कर नहीं सका. तुम किराए के पैसों को कर्ज में एडजस्ट करो, जल्दी ही कुछ करके तुम्हारे पैसे लौटाऊंगा.”

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