भीड़ में - 6 Roop Singh Chandel द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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भीड़ में - 6

भीड़ में

(6)

“बाऊ जी बुरा न मानो तो एक गल कवां---“मंजीत चेहरे पर मुस्कान ला बोला, उन्हें अच्छा लगा था कि उस दिन जैसे रुखाई उसमें न थी---’शायद’ यह मेरी विवशता समझ रहा है. उन्होंने सोचा था.

“किराए दे पैसयां द हिसाब अलग ही रहे ते चंगा होयेगा.” उन्होंने मंजीत के चेहरे पर नजरें टिका दी थीं.

“एक प्रपोजल है.”

“हां—हां—कहो.”

“जे मैं तोहनू साढ़े तीन हजार दवां ते दस हजार हो जाएंगे. इस नू तुसी पगड़ी समझो या---जे परमिशन दो ते मैं इस पोर्शन को अपने नाम –एलॉट करवा लवां.”

“ऎं---?” वे चौंके थे, लगा था जैसे आसमान से नीचे आ टपके हैं.

“एलॉटमेंट?”

“बाऊ जी, एलॉटमेंट द मतलब ये नहीं कि वो मेरा हो जाएगा---ये त्वाडा ही रहेगा. किराया सौ रपए घट दवांगा---वैसे भी मैं कानूनन एलॉट कराने का हकदार तो हो ही चुका वां.”

“सोचने दो.” वे इतना ही कह पाए थे.

“सोचना की है बाऊ जी, तुहानू मेरे तो अच्छा किराएदार नहीं मिलेगा. दूजा किराएदार रख दे तो ओ एलॉट पहले करादा दंसदा बाद च---खैर, मैं आपको साढ़े पांच हजार और दे दांगा.”

चुप रहे थे वे. जिन्दगी भर जिस आदमी ने पैसों को अहमियत नहीं दी उससे मंजीत ऎसी भाषा में बोल रहा है. नौकरी के दौरान रिश्वत की बात करनेवालों को वे सीधे दरवाजा दिखाते थे. लेकिन उस दिन वे कितना विवश थे. केवल इतना ही कह सके थे, “ठीक है, चार दिन में सोचकर बताऊंगा.”

और चार दिन बाद उन्होंने साढ़े पांच हजार लेकर मंजीत को किराए का पोर्शन एलॉट करवा लेने की अनुमति दे दी थी.

लेकिन वह पैसा भी छः महीने में समाप्त हो गया था, उनकी परेशानी बढ़ गयी थी. मंजीत ने सलाह दी थी कि उसके सामने के खाले पड़े दो कमरे यदि वे किराए पर उठाएं और एलॉट करवाने की अनुमति दें तो वह उन्हें पन्द्रह हजार दिलवा देगा. तीन सौ रुपए महीना किराया अलग. उन्होंने वह सौदा भी कर दिया था. गुप्ता था नया किराएदार. उनके पास नीचे का पोर्शन रहने के लिए पर्याप्त था और छत तो थी ही. किराएदारों को स्पष्ट कह दिया था कि वे छत को प्रयोग में नहीं लाएंगे.

गुप्ता के पन्द्रह हजार खत्म होने तक सावित्री उन्हें छोड़कर चली गयी थी. उसके जाने के बाद आयी थी विनीता पुत्तन को लेकर. बेटे-बहुएं, पोते-पोतियां, बेटियां-दामाद और दूसरे रिश्तेदार जुटे थे. बेटों को किराएदार रखना पसन्द न आया था, लेकिन इस बात को लेकर किसी ने अधिक कुछ कहा नहीं था.

तेरहवीं के बाद सभी चले गए. तेरहवीं के बाद धीरेन्द्र ने साथ चलने के लिए कहा था, लेकिन –“अभी तुम जाओ—सोचकर बताऊंगा.” उन्होंने कहा था.

और वे अकेले रह गए थे. बाद में उन्होंने निश्चय किया कि वे न किसी बेटे के पास जाकर रहेंगे और न बेटियों के पास. उनके इस निर्णय को बदलने के लिए किसी ने दबाव भी नहीं डाला था और उनका जीवन अपने ढंग से चलने लगा था.

सावित्री के जाने के साल-डेढ़ साल तक बेटे बीच-बीच में आते रहे थे. दोनों बेटियां गर्मी की छुट्टियां बिताने के लिए आ गयी थीं. कुछ दिन चहल-पहल में कटे थे. लड़कियों का यह सिलसिला कुछ वर्षों तक चलता रहा था, लेकिन बड़े होते बच्चों, परिवार की बढ़ती जिम्मेदारियों और निजी कार्यक्रमों के कारण उनका वह क्रम भंग हो गया था. बेटों का क्रम तो बहुत पहले ही भंग हो चुका था. रमेन्द्र कभी सरकारी काम से नगर में आता तो एक-दो घंटे के लिए मिल जाता. लेकिन उसकी कोई निश्चित अवधि न थी. वह कभी साल में दो बार आ जाता तो कभी दो साल तक उधर रुख नहीं करता. धीरेन्द्र ही अपेक्षाकृत अधिक आता और कभी-कभी नंदिता और बच्चों को भी ले आता. धीरेन्द्र के एक लड़का और लड़की थे, जबकि रमेन्द्र के पुत्तन के बाद एक और बेटा सज्जन और बेटी स्मृता थे. ’बच्चे सुखी रहें—मुझे क्या चाहिए. किसी भी पिता के लिए इससे बड़ी प्रसन्नता क्या हो सकती है कि उसकी औलादें ढर्रे से---ढर्रे से ही नहीं बेहतर ढंग से रह रही हैं. समाज में उनकी प्रतिष्ठा है.’ सोचकर मन को सन्तुष्ट करते बाबू रघुनाथ सिंह.

बच्चों ने कभी उनसे यह नहीं पूछा, “बाबूजी आपने ऊपर की मंजिल किराए पर क्यों दी? किराएदार रखे, यह उन्हें पसन्द नहीं आया था, लेकिन क्यों रखे यह दोनों में से किसी ने भी नहीं पूछा था, वैसे कैसे रहते हैं---खाना कौन बनाता है---क्या व्यवस्था है---रमेन्द्र ने कभी इस विषय में जानने की इच्छा व्यक्त नहीं की. धीरेन्द्र अवश्य पूछ लेता और दबी जुबान कुछ सुझाव भी दे देता. हालांकि उन्होंने कभी किसी का सुझाव नहीं माना.”

सावित्री के जाने के बाद उन्होंने नौकरानी विमला को काम के लिए मना कर दिया था. हप्ते में एक दिन के लिए उसके छोटे भाई को बुलाते और घर और कपड़ों की सफाई करवा लेते. उस दिन का पैसा उसे दे देते. खाना वे स्वयं पकाने लगे थे. ’एक आदमी के लिए चाहिए ही कितना!’ सुबह सब्जी बनाते तो उसे फ्रिज में रख देते और शाम को भी उसी से काम चला लेते. शाम को बनाते तो सुबह के लिए रख लेते. कभी नहीं भी बनाते. दो ब्रेड स्लाइस खाकर सो जाते. और दस वर्ष यों कट गए कि पता ही नहीं चला. लेकिन शरीर तब भी उनका मजबूत था और वे साइकिल पर लाल बंगले तक बिना थके जाते----लौट आते. पैंतीस—छत्तीस किलोमीटर की यात्रा होती वह. पचास की उम्र तक इतनी यात्रा वे एक ओर की तय करते थे. तब की बात ही कुछ और थी. जो जी में आता था खाते थे. दूसरे शहरों में पोस्टिंग पर रहते हुए भी सावित्री के कारण कभी घी की कमी नहीं होने पायी. जब भी अवकाश पर आते, जाते समय चार-पांच किलो घी वह दे देती. कहती, “लल्लू के बाबू, खाओगे नहीं तो काम क्या करोगे? लिखा-पढ़ी का मामला ठहरा---दिमाग को तर रखना जरूरी होता है?”

’यह सावित्री की खिलायी ही है कि वे इस उम्र में भी दो-चार किलोमीटर साइकिल चला लेते हैं---या पैदल टहल आते हैं. वर्ना इस उम्र तक लोग चारपाई पकड़ लेते हैं---उन्हें सावित्री की याद ने गहनता से आ घेरा तो वह उठ बैठे. बेचैनी-सी अनुभव हुई. एक गिलास पानी पिया और छत पर टहलने लगे.’

’सावित्री के बीमार होने के बाद खाने-पीने, पहनने के शौक जाते रहे थे. लेकिन जिन्दा रहते उसने व्यवस्था में अधिक ढील नहीं आने दी थी. सुबह का दूध बन्द हुआ था तो घी-पनीर आदि विमला से मंगवा लेती थी.’

“लल्लू के बाबू, जब तक सांस चल रही है---कोताही न होने दूंगी. आगे फिर भगवान मालिक---“ सावित्री कहती तो वे उसके प्रति और अधिक चिन्तातुर हो जाते.

लेकिन सावित्री के आंखें मूंदते ही उन्होंने मन को मना लिया था, ’जब खिलाने वाली ही न रही तब खाने का क्या स्वाद!’ और वे धीरे-धीरे हर बात के प्रति उदासीन होते गए थे. सदैव टिप-टॉप रहने वाले उनके कपड़े गन्दे रहते तो भी महसूस न करते. ’विमला का भाई रविवार को आएगा—तब तक खींच लेना क्या बुरा है.’ वे कपड़ों को निहारते और मन को सन्तोष देते सोचते, ’इतने गन्दे भी नहीं हैं. फिर उम्र के हिसाब से सब अच्छा लगता है. इस बुढ़ापे में सज-धजकर रहने का क्या मतलब!’

दस वर्ष बीत जाने तक वे किराएदारों से कुछ न बोले थे, लेकिन बढ़ती महंगाई और किराया दस वर्ष पूर्व का ही---उन्हें लगा था कि वे दोनों ही उनकी सरलता का अनुचित लाभ ले रहे हैं. हालांकि उन्होंने अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर लिया था, लेकिन पेंशन से कठिनाई से ही काम चल पाता था. बैंक बैलेंस था नहीं और साल-दो साल में बेटियों और नाती-नातिनों के आगमन पर जब अतिरिक्त खर्च करना पड़ता तब हिसाब खराब हो जाता. एक दिन उन्होंने दोनों को बुलाया और किराया बढ़ाने के लिए कहा. सुनते ही दोनों एक स्वर में बोले थे, “बाबू जी, किराया किसलिए बढ़ाएं?”

“क्या मतलब?” वे दोनों के चेहरे देखने लगे थे बारी-बारी.

“हमने एलॉटमेंट के समय जो पगड़ी दी थी---उसका हर महीने कुछ ब्याज बनता है कि नहीं.”

“बनता होगा भाई. लेकिन दस साल में महंगाई कहां से कहां पहुंच गयी. एक रुपए की वस्तु अब पांच में मिल रही है. किराया तो आप दोनों को स्वयं ही बढ़ाना चाहिए था. अब जबकि मैं कह रहा हूं तो आप लोग मुझसे ही उल्टे प्रश्न करने लगे.” स्वभाव के विपरीत उन्हें क्रोध आ गया था.

“एक बार मकान एलॉट होने के बाद किराया क्यों बढ़ाएं?” दोनों समवेत स्वर में बोले थे.

’इसका मतलब यह है कि दोनों ने पहले ही तय कर लिया है कि ऎसे ही बात करनी है.’ उन्होंने सोचा, ’सीधी उंगलियों घी नहीं निकलेगा.’

“फिर हम दूसरा किराएदार देख लेते हैं. आप दोनों के पैसे लौटा दूंगा. नहीं चाहिए आप जैसे किराएदार.”

“सानू कोई परेशानी नहीं बाऊजी. आप पचहत्तर हजार जिस दिन दे देंगे---उस तो अगले दिन खाली कर दवांगे---जे ओदो बारह हजार बिजनेस बिच लगांदा ते डेढ़ लाख कमांदा. आप आधे ही दे दें बाऊजी---“ मंजीत सधे स्वर में उनके चेहरे पर नजरें गड़ा बोला तो वे चीख उठे थे, “यू चीटर---रॉस्कल---“ वे बुरी तरह कांपने लगे थे और आगे कुछ कह न पाए थे.

“चीखने से काम न चेलगा बाबू जी! आप मंजीत को बारह के पचहत्तर देंगे तो मेरा हक तो अधिक ही बनता है. लेकिन कोई बात नहीं---मुझे भी उतने ही दे देंगे तो मैं भी छोड़ दूंगा. सौदा मंजूर हो तो बता दीजिएगा.” मंजीत के बजाय गुप्ता मुस्कराता हुआ बोला तो उन्हें लगा था कि वे दीवार से अपना सिर टकरा लें.

दोनों उठ खड़े हुए थे जाने के लिए. उन्होंने अपने को संयत कर कहा था, “आप दोनों जानते हैं न कि मेरे बेटे क्या हैं? अदालत के चक्कर काटोगे तब पता चलेगा.” वे कह तो गए थे लेकिन तभी उन्होंने सोचा था, यहीं तो वे कमजोर हैं---शायद इन्हें भी मेरी कमजोर नब्ज का पता है इसलिए---.’

“आप जो चाहें कर लेंगे. एलॉटमेंट हमने आपकी मर्जी से करवाया था. और किराया बढ़ाने की बात---आप याद करें---पांच साल से आपने रसीदें नहीं दीं. आप कैसे सिद्ध करेंगे कोर्ट में कि आपको कितना किराया मिल रहा है.” दोनों कहकर मुस्कुरात हुए चले गए थे तो वे कटे पेड़ की भांति सोफे में ढह गए थे हताश---बेबस.

और उस महीने के बाद मंजीत और गुप्ता ने उन्हें किराया देना भी बंद कर दिया था. दोनों जानते थे कि वे डेढ़ लाख रुपयों की व्यवस्था नहीं कर सकते. कोई दूसरा किराएदार ढूंढ़ना इतना सहज न था. वे बेटों से इस विषय में चर्चा करना चाहते थे, लेकिन जब उन्हें ज्ञात हुआ था कि लल्लू ने लखनऊ में महानगर में अपनी कोठी बना ली है और धीरेन्द्र भी वहां इंदिरा नगर में फ्लैट लेकर लखनऊ पहुंच गया है तो उनको कुछ न कहना ही उन्होंने बेहतर समझा था.

’बेटों को इस घर में रुचि नहीं है. वे कुछ कहें भी और दोनों कह दें, “बाबू जी इसे बेचकर हमारे साथ आ जाओ तो---“ ’क्या मैं रह पाऊंगा उनके साथ. अपने हाथों एक-एक ईंट जोड़कर बनवाया है इसे. यहीं मरूंगा. सावित्री की आत्मा को इसी में सुख मिलेगा. वसीयत कर जाऊंगा दोनों के नाम—दोनों के ही नाम क्यों? बेटियों को क्यों छोड़ रहा हूं!’ उन्होंने मन-ही-मन अपने को धिक्कारा था, ’बेटियों को भी बराबर का हिस्सा दूंगा. रहें तब तक दोनों किराएदार—अपना-अपना भाग्य--.’

उस दिन के बाद बाबू रघुनाथ सिंह ने एक शब्द भी नहीं कहा था दोनों किराएदारों से और न ही बेटे-बेटियों से. और उस घटना को भी दस वर्ष बीत गए. यानी सावित्री को मरे लगभग बीस वर्ष!.

घाम दीवार पर पूरी तरह चढ़ गया था. शाम नीचे उतरने की तैयारी करने लगी थी. हल्की ठंड अपना एहसास करवाने लगी थी.

’नीचे चलना चाहिए!’ उन्होंने चारपाई दीवार के सहारे खड़ी की और नीचे उतर गए.

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